अपन ने जैसा कल लिखा। चुनाव अब आडवाणी-मनमोहन के बीच होगा। पहली बार देश सीधे पीएम चुनेगा। कांग्रेस ने मजबूरी में मनमोहन को प्रोजेक्ट किया। रणनीति राहुल के लिए खिड़की खुली रखने की थी। राहुल को 'होर्डिंग' में 'भविष्य' बताया भी इसीलिए गया। पर मनमोहन का आडवाणी पर हमला भी दहशत का सबूत। अपन को 1999 का चुनाव याद। सोनिया ने इसी तरह वाजपेयी पर हमला किया। तो सोनिया को उलटा पड़ा। फिर नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कह डाला। तो वह भी सोनिया को उलटा पड़ा। अपने मनमोहन ने अपशब्द तो नहीं बोले। पर अपने अंदर का डर तो दिखा ही दिया। अपन को रविशंकर प्रसाद बता रहे थे- 'मनमोहन को अपने मजबूत होने पर इतना ही भरोसा। तो लोकसभा चुनाव में क्यों नहीं उतरते। अब तो आमने-सामने की लड़ाई हो गई।' अपन को मनमोहन का देवगौड़ा-गुजराल से मुकाबला भी अजीब लगा।
दोनों से मुकाबला कर मनमोहन ने अपनी पोल ही खोली। जहां तक बात इंदिरा गांधी की। तो मनमोहन भूल गए। इंदिरा ने पीएम बनकर फौरन लोकसभा चुनाव लड़ा था। यों भी आडवाणी ने जब पीएम के लोकसभा मेंबर होने की बात कही। तो उनने कहा था- 'संविधान संशोधन तो आम सहमति से होगा। नैतिक तौर पर लोकसभा से होना चाहिए।' मनमोहन भले आडवाणी की बात न मानें। इंदिरा गांधी का दिखाया रास्ता तो अपनाते। पर वह तो गुजराल-देवगौड़ा बनने पर आमादा। अपन को ताज्जुब तो तब हुआ। जब सोनिया ने कांग्रेस को बहुमत का ख्वाब देखा। सोनिया का यह दावा सुन अपन को 1999 याद आ गया। सोनिया ने 272 का दावा तो ठोका। पर जुगाड़ नहीं कर पाई। तब मुलायम साथ छोड़ गए थे। अब के भी मुलायम बीच रास्ते में छोड़ गए। अपन ने जब 11 फरवरी को लिखा- 'कांग्रेस-सपा प्रेम विवाह टूटने के कगार पर।' तो कांग्रेसी नहीं माने। अपन पर खाम ख्याली का आरोप मढ़ा। पर टूटा न प्रेम विवाह। चलते-चलते अपन 20 फरवरी का लिखा भी याद करा दें। अपन ने लिखा था- 'मैच फिक्सर को पाकर सोनिया हुई बाग-ओ-बाग।' तो अब वह मैच फिक्सर न हैदराबाद में लड़ेंगे। न राजस्थान के टोंक में। मुरादाबाद में टिकेंगे या मेरठ में। पर बात प्रेम विवाहों की। तो अपन ने उसी दिन लिखा था- 'क्या आखिर में रामदास भी पाला बदलेंगे।' तो आज पैंतीसवें दिन देख लो। कांग्रेस का अपने बूते पर बहुमत आना तो भूल जाए सोनिया। यूपीए को भी बहुमत नहीं मिलना। मुलायम-लालू-पासवान छिटक ही चुके। शिबू सोरेन छिटकने की फिराक में। पीएमके गई, तो तमिलनाडू का किला भी ढहेगा। ताकि सनद रहे, सो बता दें। यूपीए के आधार लालू, करुणानिधि और राजशेखर रेड्डी थे। तीनों के बूते तीन राज्यों में एक सौ तीन सीटें आई थी। अब आंध्र में टीआरएस गई। राजशेखर खुद भी उतार पर। बिहार में लालू ने गच्चा दिया सो दिया। खुद लालू भी उतार पर। रहा तमिलनाडु। तो रामदौस-जयललिता के मिलते ही तमिलनाडु में भी सूपड़ा साफ। पता नहीं सोनिया किस गलतफहमी में। पर सोनिया को अंदर ही अंदर डर तो सता रहा होगा। तभी तो 'राहुल' की तरह 'जय हो' से भी बिदकने लगी कांग्रेस। याद है अपन ने सात मार्च को लिखा था- 'वैसे 'स्लमडॉग मिलेनियर' पर कांग्रेस का पीठ ठोकना सौ फीसदी सही। आखिर देशभर में कांग्रेस ने ही तो बनवाई हैं झुग्गी-झोपड़ियां।' अब जब चुनावी प्रचार शुरू हो चुका। तो कांग्रेस को एक्सपर्ट राय मिली है- 'जिस 'जय हो' नारे की रायलटी पर लाखों रुपए खर्च किए। वह ले डूबेगा। नारा भले ही अच्छा लगे। पर फिल्म हिंदुस्तानी टेस्ट के मुताबिक नहीं। पार्टी को फायदे की बजाए नुकसान होगा। विरोधी दल कहेंगे- कांग्रेस ही तो देशभर में झुग्गी-झोपड़ियों के लिए जिम्मेदार।' सो ताजा राय है- 'न जय हो का ढोल पीटा जाए। न अजहर और रूबीना का प्रचार के लिए इस्तेमाल हो।'
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