बीजेपी में शांति लौटने लगी। येदुरप्पा- अनंत का झगड़ा निपट ही चुका। अम्बरीश की भाजपा में आमद हो जाएगी। केबिनेट नहीं, तो केबिनेट रेंक पर बात बन जाएगी। अम्बरीश के आते ही अनंत की जीत आसान। राजनाथ-जेतली का विवाद भी हल ही समझो। राजनाथ के घर यों ही नहीं गए जेतली। पर पवार-संगमा का झगड़ा कांग्रेस-एनसीपी को महंगा पड़ेगा। पवार मेघालय सरकार बचा नहीं पाए। उस केबिनेट मीटिंग में मौजूद थे। जिसमें राष्ट्रपति राज का फैसला किया। यों पवार ने संगमा को बताया- 'मेरी केबिनेट में नहीं चली।' पर संगमा के गले नहीं उतरी। पवार सच्चे होते, तो संगमा के साथ बात करते। पर वह तो गुरुवार को संगमा के दिल्ली पहुंचते ही खिसक लिए। अब सोचो, ऐसे वक्त पर पूर्वोत्तर में सुधांशु मित्तल किस काम के।
सो लालकृष्ण आडवाणी ने खुद संगमा से संपर्क साधा। यों संगमा ने अपने पत्ते नहीं खोले। फिलहाल तो उनने पवार से कहा- 'ऐसी कांग्रेस से गठजोड़ तोड़ दो।' वैसे महाराष्ट्र में कांग्रेस गठजोड़ टूटे। तो शिवसेना-बीजेपी की बल्ले-बल्ले। पर पवार ऐसा करते नहीं दिखते। अपन को अब संगमा की अगली चाल का इंतजार। तब तक उमा भारती के रंग-ढंग देखिए। उमा को बीजेपी का प्रचार करने की हरी झंडी मिली। तो वह आडवाणी की बेटी बन आशीर्वाद लेने पहुंच गई। बात आडवाणी की चली। तो बताते जाएं- आडवाणी ने पूर्व सैनिकों की एक पद-एक पेंशन मांग पर सहमति दे दी। वह खुद पूर्व सैनिकों के धरना स्थल पर पहुंचे। उधर सोनियावादियों-मायावादियों से घिरे वरुण ने आडवाणी से मुलाकात की। वरुण गांधी में जरा घबराहट नहीं। हालत से जूझने का ज़ज्बा देखा। तो अपन को संजय गांधी की याद आ गई। खून तो आखिर खून ही होता है। बीजेपी घबरा गई। वरुण ने हिम्मत नहीं हारी। उनने जवाबी जंग शुरू कर दी। दो हाईकोर्टों में अलख जगा दी। इलाहाबाद हाईकोर्ट में एफआईआर रद्द करने की। तो दिल्ली हाईकोर्ट में अर्जी अग्रीम जमानत की। आयोग का इरादा वरुण को अयोग्य ठहराने का नहीं। वरुण के सभी प्रोग्रामों की वीडियोग्राफी का हुक्म इसका इशारा। अब फैसला अदालतों में होगा। वरुण घबराकर माफी मांगने लगते। तो रुतबे और तेवरों दोनों मोर्चों पर पिटते। सो उनने दोनों को बनाए रखा। इंदिरा गांधी में ही हालात से लड़ने का ऐसा ज़ज्बा था। दस जनपथ को उतना डर पूरी बीजेपी से नहीं। जितना इंदिरा गांधी के नाती वरुण से। दिल्ली के गलियारों में सोनिया-माया में साठगांठ तक की गपशप। वैसे अपन को गपशप से ज्यादा कुछ नहीं लगता। माया को भी राहुल से उतना खतरा नहीं। जितना वरुण से। पर बात वरुण और राहुल की। राहुल को फिक्र कलावती की। तो वरुण को फिक्र कलामुद्दीन की। कलावती और कलामुद्दीन दो नाम नहीं। कलावती गरीबी की प्रतीक। कलामुद्दीन आतंकवाद का प्रतीक। दोनों ने अपने-अपने एजेंडे दोनों नाम लेकर जनता के सामने रखे। राहुल का एजेंडा इंदिरा, राजीव, सोनिया वाला ही। तीनों ने गरीबों और आम आदमियों को वोट का मोहरा बनाया। सो राहुल कलावती की गरीबी को भुनाने में जुटे। पर वरुण को गरीबी से ज्यादा फिक्र आतंकवाद की। कलामुद्दीन एक मुस्लिम नहीं। तालिबानी आतंकवाद का प्रतीक। वह मुसलमानों की बात कर भी नहीं रहे थे। वह आतंकवाद की बात कर रहे थे। वह तो वोट की राजनीति ने चकरी घुमा दी। पर यह अब अदालत तय करेगी। पर वरुण के विवाद से राजनाथ-जेतली को राहत मिली। वरना सुर्खियों में उन दोनों का झगड़ा था। आडवाणी मौके का फायदा उठाने में नहीं चूके। अपन ने कल फार्मूला बताया ही था। आडवाणी देर रात तक लगे थे। राजनाथ-जेतली दोनों को समझाया- 'पार्टी का मजाक मत बनाओ।' सो दोनों मान गए। राजनाथ ने जेतली को फोन किया। जेतली राजनाथ के घर चले गए। तो दिल्ली-बिहार की सीटें हाथों हाथ तय हो गई। दिल्ली में दो वैश्य, एक ब्राह्मण, एक ठाकुर, एक पंजाबी, एक गुर्जर, एक दलित। कीर्ति आजाद दिल्ली में नहीं। बिहार में एडजस्ट हुए। दिल्ली में अबकी बारी चेतन चौहान।
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