संसद की कारगुजारी से चुनावी आहट

Publsihed: 08.Dec.2007, 20:35

एटमी करार पर हुई बहस के बाद वामपंथी, तीसरे मोर्चे और राजग के सांसदों ने वाकआउट करके यूपीए सरकार को अल्पमत में दिखा दिया है। भले ही वामपंथी दलों ने मनमोहन सिंह सरकार को अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी से बातचीत करने की हरी झंडी दे दी है, लेकिन संसद में दिखाए गए तेवरों से चौदहवीं लोकसभा पर अभी भी तलवार लटकी हुई है। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम 2008-09 का बजट तैयार कर रहे हैं, संसद पर लटकी तलवार के कारण माना जा रहा है कि मौजूदा सरकार का यह बजट ही आखिरी हो सकता है। इसलिए तय है कि यह बजट लोकलुभावन होगा।

लोकसभा की अवधि उसके आखिरी सत्रों से आंकी जाती है, जब मध्यावधि चुनाव दिखाई दे रहे हों, तो संसद सत्र में सांसदों की दिलचस्पी कम दिखाई देने लगती है। सात दिसम्बर को समाप्त हुए शीत सत्र में ऐसे लक्षण दिखाई देने लग गए थे। वैसे तो सत्ताधारी दल की नेता सोनिया गांधी हर सत्र के बाद  अपने दल के सांसदों को जनता में जाने की गुहार लगाती है लेकिन इस बार उन्होंने सांसदों से जमीनी हकीकत की जानकारी लेकर आलाकमान को बताने का फरमान जारी किया है। इससे भी अनुमान लगाए जा रहे हैं कि फरवरी के तीसरे हफ्ते में शुरू होने वाला संसद का बजट सत्र चौदहवीं लोकसभा का आखिरी सत्र हो सकता है।

मनमोहन सिंह सरकार का गठन मई 2004 में हुआ था, अगले साल ही मनमोहन सिंह ने बिना अपनी पार्टी कांग्रेस और अपने सहयोगी दलों को विश्वास में लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के साथ एटमी करार कर लिया। जिस पर सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे वामपंथी दलों ने कड़ा एतराज किया और तब से ही सरकार तलवार की धार पर चल रही है। गठबंधन में दरार और टकराव के बावजूद मनमोहन सरकार ने ढाई साल और पूरे कर लिए हैं, लेकिन अब ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि सरकार का आगे चलना संभव दिखाई नहीं देता। जिसके लक्षण इस पूरे साल में संसद सत्रों के दौरान दिखाई देते रहे, खासकर सात दिसम्बर को खत्म हुए इस साल के आखिरी और शीत सत्र में ज्यादा दिखाई दिए। अगर हम पिछले आठ साल की समीक्षा करें तो चुनावी साल 2004 को छोड़कर बाकी के सभी सात सालों के मुकाबले मौजूदा साल संसद की कार्रवाई सबसे कम रिकार्ड की गई। चुनावी साल में एक सत्र कम हुआ था, इसलिए उस साल के रिकार्ड से तुल्नात्मक मुकाबला नहीं करना चाहिए। सन् 2000 में संसद 85 दिन बैठी, 2001 में 81 दिन बैठी, 2002 में 84 दिन बैठी, 2003 में 74 दिन बैठी, 2004 में 53 दिन बैठी, 2005 में 85 दिन बैठी। यह स्थिति एटमी करार होने से पहले के कामकाज के कारण मजबूत हुई। एटमी करार हो जाने पर यूपीए में आई दरार के कारण 2006 में सिर्फ 77 दिन काम हुआ, जबकि इस साल तो रिकार्ड ही टूट गया, जब लोकसभा सिर्फ 66 दिन चली और राज्यसभा उससे भी एक दिन कम 65 दिन। कामकाजी घंटों के आधार पर मुकाबला करें तो भी 2004 के साल को छोड़कर 2007 में संसद ने सबसे कम काम किया। यूपीए सरकार ने सर्वाधिक काम एटमी करार से पहले 2005 में ही किया, इसलिए उसी साल लोकसभा में सर्वाधिक 490 घंटे और राज्यसभा में 401 घंटे काम हुआ जबकि इस साल लोकसभा सिर्फ 281 घंटे चली जबकि राज्यसभा सिर्फ 217 घंटे। बिलों के हिसाब से भी मौजूदा साल की उपलब्धि बहुत कम रही है वाजपेयी के पूरे छह साल के शासनकाल और मनमोहन सिंह के साढ़े तीन साल के शासनकाल में से मौजूदा साल बिल पास करने के मामले में भी सबसे पीछे साबित हुआ। इस साल संसद में कुल 56 बिल पेश हुए और 46 पास हुए।

दर्जनभर से ज्यादा युवा सांसदों से लब्बालब चौदहवीं लोकसभा का गठन हुआ तो ऐसा माना जा रहा था कि आजादी के बाद दूसरी पीढ़ी लोकतंत्र संभालने के लिए तैयार हो रही है। लेकिन चौदहवीं लोकसभा के कार्यकाल में संसद के दोनों सदनों में उम्र के हिसाब से चर्चाओं में हिस्सा लेने का रिकार्ड बेहद निराश करने वाला है। लोकसभा में 25 साल से 40 साल के उम्र के सिर्फ 2.6 फीसदी सांसदों ने बहस में हिस्सा लिया। राज्यसभा में पहुंचने की न्यूनतम उम्र ही 30 साल है इसलिए 30 से 45 साल की उम्र के सांसदों का रिकार्ड तैयार किया गया तो पता चला कि इस आयुवर्ग के 2.8 फीसदी सांसदों ने बहस में हिस्सा लिया। लोकसभा में 41 से 55 साल आयुवर्ग के 4.3 फीसदी, 56 से 70 साल आयुवर्ग के 4.6 फीसदी और 71 साल से ज्यादा उम्र के 4 फीसदी सांसदों ने बहस में हिस्सा लिया। मजेदार बात यह है कि कुल सांसदों का पंद्रह-सोलह फीसदी सांसद ही बहस में हिस्सा लेते हैं, बाकी तो साल भर में एक-दो बार बोल जाएं तो काफी। यह आंकड़े दर्शाते हैं कि चुने जाने के बाद सांसदों के प्राथमिकता किस तरह बदल जाती है।

संसद का सात दिसम्बर को खत्म हुआ सत्र इसलिए भी अगले साल को चुनावी साल बताने का संकेत देता है, क्योंकि सरकार ने छोटा सत्र होने के बावजूद भी जरूरत से ज्यादा काम निपटा लिया। एटमी करार और नंदीग्राम जैसी बढ़ी घटनाओं के कारण संसद के हंगामापूर्ण रहने के बावजूद लोकसभा ने तय समय का नब्बे फीसदी समय काम किया, जबकि राज्यसभा ने करीब-करीब सौ फीसदी तय समय काम किया। नंदीग्राम पर शुरूआती दो दिन बर्बाद होने की भरपाई देर रात तक काम करके की गई। एटमी करार पर बहस के समय राज्यसभा रात साढ़े ग्यारह बजे तक चली और इस मुद्दे पर सरकार पर तलवार लटकी होने के कारण प्रधानमंत्री खुद रात ग्यारह बजे तक बैठे रहे। शीत सत्र में सरकार का इरादा 18 बिल पास करवाने का था, सात बिल लंबित होने और एक बिल वापस लिए जाने के बावजूद सरकार ने 15 बिल पास करवा लिए, यानी कि पांच बिल ऐसे पास हो गए, जो शीत सत्र के लिए सरकार के एजेंडे पर नहीं थे। इनमें एक राजीव गांधी इंस्टीटयूट ऑफ पेट्रोलियम टेक्नोलॉजी बिल भी है, जो युवा वोटरों को लुभाने के लिए लाया गया था। हालांकि अगर हम पिछले सात-आठ सालों की तुलना करें तो मौजूदा साल में सबसे कम बिल पास हुए हैं। मनमोहन सरकार पर संकट का अहसास इस बात से भी होता है कि इस साल सरकार संसद का मुकाबला करने से कतराती रही। बजट सत्र 42 दिन का तय हुआ था लेकिन सिर्फ 32 दिन चला। मानसून सत्र 23 दिन का तय हुआ था, लेकिन सिर्फ 17 दिन चला। गुजरात और हिमाचल के चुनावों के कारण शीत सत्र सिर्फ 17 दिन का ही तय किया गया था और पूरे 17 दिन काम चला, हालांकि आमतौर पर शीत सत्र 23 दिन का होता रहा है। कामकाजी घंटों का तुल्नात्मक अध्ययन करें तो पिछले आठ सालों में सबसे कम काम मौजूदा साल में हुआ। लोकसभा छह घंटे और राज्यसभा पांच घंटे काम करती है लेकिन इस साल लोकसभा ने सिर्फ औसत 4.30 घंटे और राज्यसभा ने सिर्फ औसत 3.30 घंटे काम किया। वैसे तो पूरा साल यूपीए में दरार दिखाई देती रही, लेकिन आखिरी सत्र में दरार ज्यादा उभरकर सामने आई इस कारण माना जा रहा है कि अब यह गठबंधन दरकने लगा है। दरार के दो बड़े उदाहरण  नजरअंदाज नहीं किए जा सकते। नंदीग्राम के मुद्दे पर वामपंथी एकदम अलग-थलग हो गए जबकि एटमी करार के मुद्दे पर कांग्रेस अलग-थलग हो गई। कम से कम दो मौकों पर राजग, तीसरा मोर्चा और वामपंथी दल एकजुट दिखाई दिए। एटमी करार पर सरकार का विरोध करते हुए तीनों मोर्चों ने इकट्ठे वाकआउट किया और पांडिचेरी में स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास की ओर से मनमाना बिल पास करवाने की कोशिश भी तीनों ने मिलकर नाकाम की।

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