अपन ने अभी ब्लागरों पर गौर करना शुरू नहीं किया। पर अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ब्लागरों का अहम रोल रहा। सो एलकेआडवाणी डाटकाम का आइडिया आया। वेबसाइट के जरिए आडवाणी पूरे साउथ एशिया में हिट। अपन ने पाकिस्तान का 'डॉन' अखबार खोला। तो आडवाणी की वेबसाइट का 'लोगो' दिखा। अमेरिका का 'डेलीन्यूज' देखा। तो आडवाणी को 'लोगो' दिखा। यों तो यूपीए सरकार भी वेबसाइटों के मामले में कमजोर नहीं। कांग्रेस पार्टी भी फिसड्डी नहीं। पर ब्लागरों की राय कितने पढ़ते होंगे। नवीन चावला को चीफ इलेक्शन कमिश्नर बनाने का फरमान ही लो। अपन ने ब्लागरों के ब्लाग झांके। बड़े अखबारों की वेबसाइटें देखी। इधर चावला को अगला सीईसी बनाने का ऐलान हुआ। उधर कुछ घंटों में सैकड़ों रिएक्शन दिखाई दिए। देश के एक बड़े अखबार की वेबसाइट पर रिएक्शन था- 'सीईसी गोपालस्वामी की सिफारिश असल में आरोप पत्र था। उन आरोपों की जांच होनी चाहिए थी। मौजूदा हालत अपने देश के लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं।' बात आरोपों की चली। तो बताते जाएं- अपन ने चार फरवरी को लिखा था- 'सरकार भले अपनी जिद में चावला को सीईसी बना दे। पर गोपालस्वामी की सिफारिश का मजमून कब तक छुपाएगी। बीजेपी पटीशन तो सत्रह पेज की थी। पर गोपालस्वामी की सिफारिश नब्बे पेज की।' उसमें अपन ने कुछ बातों का जिक्र भी किया। जो गोपालस्वामी ने अपने अनुभवों पर लिखी थी। जैसे मीटिंगों की बातें कांग्रेस को लीक होने वाली बात। हिमाचल, कर्नाटक का चुनाव टालने की कांग्रेसी लाईन। पंजाब के चुनाव की तारीखें लीक होने का मामला। सोनिया का मौत के सौदागर वाले बयान का मामला। सोनिया को बेल्जियम का सम्मान मिलने वाला मामला। करुणाकरण की पार्टी के रजिस्ट्रेशन वाला विवाद। के.जे. राव की फर्जी टिप्पणी पर बिहार का एक चुनाव टालने की कोशिश। आखिर वही हुआ। जो अपन ने चार फरवरी को लिखा था। सिफारिश का मजमून सामने आ चुका। अपनी लिखे सारे आरोप गोपालस्वामी की सिफारिश में। जिद करके कांग्रेस ने नवीन चावला को सीईसी बनाने का ऐलान तो कर दिया। पर यह बात हमेशा कांग्रेस के खिलाफ लिखी जाया करेगी। जैसे इंदिरा गांधी ने तीन जजों की सीनियोरिटी को दरकिनार कर ए.एन. रे को चीफ जस्टिस बनाया। तो इतिहास अब तक नहीं भूल पाया। ताकि सनद रहे, सो बता दें- इंदिरा ने पच्चीस अप्रेल 1973 को तानाशाही की नींव रखी थी। जब उनने के.एस. हेगड़े, ए.एन. ग्रोवर और जे.एम. शैलट की सीनियोरिटी को दरकिनार किया। दो साल दो महीने बाद वह आशंका देश के सामने सही साबित हुई। जब इंदिरा गांधी ने पच्चीस जून 1975 को इमरजेंसी लगा दी। चावला का चुनाव आयुक्त बनाया जाना शुरू से विवाद के घेरे में था। पिछले ढ़ाई साल चावला विवादों में घिरे रहे। सवा दो सौ सांसदों की राष्ट्रपति को अर्जी का कम महत्व नहीं होता। लोकतंत्र में सवा दो सौ सांसदों को नजरअंदाज करने का मतलब समझिए। सुप्रीम कोर्ट ने भी चावला को हटाने की अर्जी नामंजूर नहीं की थी। याचिका भी कोई मामूली आदमी की नहीं। राज्यसभा में विपक्ष के नेता की थी। वकील भी कोई मामूली नहीं। देश के भूतपूर्व विधि मंत्री अरुण जेतली थे। अब जब राष्ट्रपति ने सरकारी फैसले पर घुग्गी मार दी। तो अपन को फखर्रुद्दीन अली अहमद की याद आई। जिनने बिना पूछे इमरजेंसी के कागज पर घुग्गी मार दी थी। जैसा अपन ने कल लिखा। भले ही आडवाणी ने प्रणव दा को चुप्पी पर सहमति दे दी थी। पर अरुण जेतली बुधवार को चुप नहीं रहे। बोले- 'नवीन चावला का भेदभावपूर्ण तौर तरीका साबित हो चुका। हम लगातार चावला के कदमों पर निगाह रखेंगे।' सोचो, देश की बड़ी पार्टी को जिस सीईसी पर भरोसा न हो। क्या उससे लोकतंत्र मजबूत होगा। ताकि सनद रहे, सो याद रखें- न्यायपालिका को स्वतंत्र करने में लंबा वक्त लगा था। अब चुनाव आयोग की स्वतंत्रता पर आशंकाओं के बादल।
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