अपन ने पहली फरवरी को ही लिखा था- 'देरी का कारण बता दें। नवीन चावला नोटिस का जवाब टालते रहे। चावला सरकार से सलाह ले रहे थे। इसलिए देरी हुई।' इतवार-सोम को विधिमंत्री हंसराज भारद्वाज जैसे भड़के। अपना कहा अक्षर-अक्षर सही साबित हुआ। राष्ट्रपति ने पीएम को गोपालस्वामी की सिफारिश भेजी है। सिफारिश के साथ चावला-कांग्रेस सांठगांठ के दस्तावेजी सबूत। पीएम उस पर केबिनेट में विचार करेंगे। खुद विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज बोले- 'विधि सचिव टीके विश्वनाथ सिफारिश स्टडी कर रहे हैं। चिट्ठी के साथ कुछ दस्तावेज भी हैं।' पर सोनिया गांधी के वफादार मंत्रियों के बयान आने शुरू। पहले पी. चिदंबरम ने चावला की पैरवी की। अब खुद विधिमंत्री हंसराज भारद्वाज। पीएम और केबिनेट की हैसियत सबके सामने।
अब बात देरी से आए फैसले की। हंसराज भारद्वाज कहते हैं- 'अपने आखिरी दिनों में इस बार की कार्रवाई करना दुर्भाग्यपूर्ण।' अपन पहले ही बता चुके। इस देरी का कारण खुद हंसराज भारद्वाज थे। चावला को जब बीजेपी की पटीशन पर नोटिस मिला। तो उनने हंसराज भारद्वाज की राय ली। भारद्वाज ने जवाब देने में देरी करवाई। चावला ने अपना जवाब दस दिसंबर को भेजा। तो सोलह जनवरी को सिफारिश भेजकर गोपालस्वामी ने क्या देरी की? हां, गोपालस्वामी ने कर्नाटक की वजह से हाय तौबा नहीं मचाई। कर्नाटक चुनाव के वक्त तो चावला बेनकाब हो चुके थे। अपन इसी कालम में तब भी लिख रहे थे। चावला लगातार कांग्रेस लाईन अपना रहे हैं। कांग्रेस मई-जून 2008 में चुनाव नहीं चाहती थी। पर गोपालस्वामी ने चावला की नहीं चलने दी। कांग्रेस और सरकार जिस तरह चावला के बचाव में उतरी। उसने सांठगांठ का आरोप और पुख्ता किया। चावला आयोग में कांग्रेस पैरवीकार। तो कांग्रेस अब उसके बचाव में। कांग्रेस चावला को सीईसी बनाने का अपना मकसद पूरा करने पर आमादा। ताकि लोकसभा चुनाव में मनमाना इस्तेमाल करे। अब बीजेपी तय करे, वह क्या करेगी। उसके सामने तीन रास्ते। पहला- फिर अदालत जाए। दूसरा- चावला सीईसी बने, चुनाव का बायकाट करे। तीसरा- चुनाव आयोग को कांग्रेस दफ्तर बनाए जाने को चुनावी मुद्दा बनाए। भारद्वाज ने तो साफ कर दिया- 'विधि मंत्रालय सिफारिश को निपटा लेगा। सीईसी सीनियर ईसी ही बनेगा।' चावला के पक्ष में विधिमंत्री की दूसरी दलील देखिए। बोले- 'आयोग में कोई छोटा-बढ़ा नहीं। फिर गोपालस्वामी अपने सहयोगी के खिलाफ सिफारिश कैसे कर सकते हैं?' अपन को भारद्वाज की काबिलियत पर जरा शक नहीं। पर संविधान का आर्टिकल 324 पढ़ लेते। जहां दो बातें एकदम साफ। पहली- सीईसी और ईसी बराबर नहीं। दोनों को हटाने का तरीका अलग-अलग। दूसरी- आर्टिकल में ही लिखा है- ईसी बिना सीईसी के सिफारिश के नहीं हटाया जा सकता। तो सीईसी का अधिकार ज्यादा हुआ कि नहीं। सवाल सिर्फ यह- सीईसी को सिफारिश का हक किस सूरत में होगा। क्या किसी राजनीतिक दल की शिकायत पर होगा? या सिर्फ राष्ट्रपति राय ले, तभी सिफारिश का हक होगा? पूर्व विधिमंत्री अरुण जेटली कहते हैं- 'हमने पहले राष्ट्रपति को पटीशन दी थी। जिसे पीएम ने दबा दिया। पीएम ने दबाना ही था, आरोप तो कांग्रेस-चावला मिलीभगत का ही था। हम अदालत में इसीलिए गए। तब अदालत ने कहा- चुनाव आयोग के पास सीधे जाओ।' तो क्या भारद्वाज सुप्रीम कोर्ट की अवमानना कर रहे हैं। अदालत सात अगस्त 2008 को ही कह देती- 'सीईसी को राजनीतिक दल की शिकायत पर सिफारिश का हक नहीं।' पर अदालत ने तब कहा था- 'आप सीईसी को याचिका क्यों नहीं देते।' पर भारद्वाज कहते हैं- 'सीईसी को कोई हक नहीं। राष्ट्रपति राय ले, तभी हक।' पर राष्ट्रपति को तो राय लेने नहीं देगी मनमोहन सरकार। तो क्या चुनाव आयोग को निष्पक्ष बनाए रखने का कोई रास्ता नहीं। सरकार और कांग्रेस की खुन्नस साफ दिखी। जब भारद्वाज बोले- 'गोपालस्वामी राजनीतिक आका की तरह पेश न आएं।' पर आयोग का राजनीतिक आका बनते रंगे हाथों पकड़ी गई है कांगेस। सवाल चुनाव आयोग की निष्पक्षता का। मीडिया इसे आयोग का घमासान बताकर लोकतंत्र का नुकसान न करे।
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