बाराक ओबामा की शपथ ग्रहण हो गई। लालकृष्ण आडवाणी का चुनाव अभियान भी ओबामा की तर्ज पर। पर यहां तो सिर मुंडाने से पहले ही ओले बरसने लगे। श्रीगंगानगर में ओलों की खबर से अपन चौंके थे। ओले भी ठीक उस दिन पड़े। जब भैरोंसिंह शेखावत श्रीगंगानगर पहुंचे। राजनीतिक बिसात बिछाकर शेखावत राजस्थान लौट गए। पर बीजेपी में बगावत छुआछूत की बीमारी जैसी फैल गई। आडवाणी के लिए खबर अच्छी नहीं। कांग्रेस अपनी ताकत बढ़ाने में जुट चुकी। मैच फिक्सिंग का दागी मोहम्मद अजहर ही सही। कुनबा तो बढ़ने लगा। कांग्रेस को वैसे भी दागियों से कोई परहेज नहीं। पर बीजेपी से अपना ही कुनबा नहीं संभल रहा। बढ़ाना तो दूर की बात। बीजेपी की हालत देख अपन को बायोलॉजी लैब की याद आ गई।
जब टीचर फ्राग डाइसेक्सन सिखाता था। तो मेढक फुदक-फुदक कर बाहर निकलते थे। दो मेढकों को पकड़कर बास्केट में डालते। तो चार फुदककर बाहर। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले यही हालत बीजेपी की। कभी भैरोंसिंह शेखावत नाराज। तो कभी कल्याण सिंह। घुटने टेककर वापस लौटे खुराना भी फुदकने लगे। शेखावत तो खैर बीजेपी में हैं ही नहीं। राष्ट्रपति का चुनाव हारने के बाद न उनने पहल की। न बीजेपी ने न्योता दिया। बीजेपी शेखावत की भूमिका जयप्रकाश नारायण जैसी समझती रही। जो सक्रिय राजनीति से दूर होकर राष्ट्र नेता हो गए थे। पर बात कल्याण सिंह की। मंगलवार को रामभक्त कल्याण बीजेपी को राम-राम कर गए। यों कल्याण सिंह ने पहली बार बीजेपी नहीं छोड़ी। पहले भी 2001 में छोड़ी थी। तब अपनी राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई। विधानसभा चुनाव मुलायम से तालमेल कर लड़ा। सौ लड़ी, पर जीती चार। मुलायम को उन चारों की भी जरूरत पड़ी। सो मुलायम से फरियाद कर कुसमलता को एमएलसी बनाया। कुसम को लेकर ही कल्याण ने बीजेपी छोड़ी थी। कल्याण लौटे तो कुसम भी लौट आई। अब जब कल्याण ने फिर बीजेपी छोड़ दी। तो कुसमलता समझदार हो गई। वही कुसमलता अब बीजेपी छोड़ेगी। तो राज्यसभा की मेंबरी गंवाएगी। सो शनिवार को खुद कल्याण सिंह को समझाती रही। अरुण जेटली भी समझाने पहुंचे थे। वैसे बात जेटली की चली। तो बताते जाएं- उनने सबसे ज्यादा राहत की सांस ली होगी। कल्याण सिंह चुनावी रणनीति में रोड़ा बन गए थे। उनने पार्टी पर शर्तें लादनी शुरू कर दी थी। पहली शर्त थी- अजित सिंह से गठजोड़ न किया जाए। दूसरी शर्त थी- अशोक प्रधान को बुलंदशहर से टिकट न दिया जाए। बताते जाएं- अशोक प्रधान 1996 से नोएडा-खुर्जा रिजर्व सीट से एमपी। बुलंदशहर से कल्याण सिंह एमपी। अब बुलंदशहर रिजर्व सीट हो गई। सो वह अशोक प्रधान को दी गई। खुर्जा, नोएडा अब अलग-अलग सीटें। कल्याण न खुर्जा में लड़ने की हालत में। वहां लोध वोट है ही नहीं। वही हालत नोएडा की। सो बीजेपी ने कल्याण को एटा भेजा। एटा जीतना भी कल्याण के बूते में नहीं। वह तो बुलंदशहर भी मुलायम की मदद से जीते थे। सो दुविधा में थे कल्याण सिंह। करें तो क्या करें। जाएं तो कहां जाएं। कल्याण सिंह खुर्जा में भी नहीं लड़ सकते। सो बीजेपी को राम-राम कर बाहर हो गए। कल्याण पर 1991 की जीत का नशा अभी भी बरकरार। जब उनकी रहनुमाई में बीजेपी ने यूपी में स्पष्ट बहुमत पाया। तब रामभक्तों पर पड़ी मुलायम की लाठियों की जीत थी। वह राम के हनुमान बनकर उभरे थे। स्वर्णो-दलितों-पिछड़ों के नेता बनकर उभरे थे। किसी एक जाति के नहीं। पर बाद में कल्याण पिछड़ों के नेता हो गए। तो बीजेपी से निकलकर अपना हश्र देख चुके। सिर्फ कल्याण सिंह क्यों। खुराना-उमा और बाबूलाल मरांडी भी अपनी औकात देख चुके। ये चारों जब बीजेपी में थे। तो इन चारों की तूती बोलती थी। चारों पार्टी से निकले, तो ढक्कन हो गए। वैसे बीजेपी को पिछड़ों का नेता खोने का खामियाजा तो भुगतना पड़ेगा। पर कल्याण के जाने पर बीजेपी में कईयों ने राहत की सांस ली।
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