प्रणव दा ने जब सब विकल्प खुले रखने की बात कही। तो अपन को लगा था- पाक को सबक सिखाने के लिए जंग न सही। आतंकी शिविरों पर सर्जिकल स्ट्राइक जरूर होगा। पर अपने प्रणव दा ने अब साफ-साफ कह दिया- 'हम इस्राइल की तरह सर्जिकल स्ट्राइक नहीं करेंगे।' असल में यूपीए सरकार की नजर का फर्क। वह आतंकियों और मुसलिमों में फर्क नहीं कर पा रही। फर्क समझती। तो आतंकी शिविरों पर हमले को मुसलिमों पर हमला न समझती। प्रणव दा की नजर में इस्राइल हमलावर। फिलिस्तीनी आतंकी संगठन हमास बेकसूर। हर फैसला वोट बैंक देखकर होगा। तो आतंकवाद पर भी नक्सलवाद जैसा नजरिया होगा। नक्सलवाद पर अपने शिवराज पाटिल कहते ही थे- 'समस्या की जड़ में जाकर समझना होगा। नक्सलवाद की समस्या सामाजिक-आर्थिक कारणों से।' परवेज मुशर्रफ को वाजपेयी ने इसीलिए आगरा से वापस भेजा था। जब उनने कहा- 'कश्मीर में आतंकवाद नहीं। अलबत्ता आजादी की जंग चल रही है।' अपन को डर। किसी दिन अपना कोई मंत्री भी आतंकवाद की जड़ में जाने की दुहाई न दे दे।
खैर बात मुंबई पर आतंकी हमले के बाद की। मंगलवार को पचास दिन पूरे हुए। अपन पाक से दो टूक बात नहीं कर पाए। जंग का विकल्प अब नहीं रहा। सर्जिकल स्ट्राइक का विकल्प भी नहीं रहा। तो मंगलवार को पी चिदंबरम का नया शिगूफा। बोले- 'पाक ने मांगें न मानी। तो आवागमन-आर्थिक संबंध तोड़ने का विकल्प खुला।' पांच जनवरी को भारत ने कूटनीतिक जंग शुरू की। तो अपन को लगा था अब पाक अलग-थलग होगा। तब अपन ने लिखा भी था- 'अब पाकिस्तान के गले में कूटनीतिक फंदा।' पर अपन को अब यह जंग भी जीतती नहीं दिखती। जरा हिसाब-किताब कर लें। अपन ने एक हफ्ते की कूटनीतिक जंग में क्या पाया, क्या खोया। कूटनीतिक जंग के शुरू में ही अपन ने दुनिया को छह सबूत दिखाए। दो दिन बाद पाकिस्तान ने कसाब को अपना बाशिंदा मान लिया। पर वह उन सबूतों के आधार पर नहीं माना। अलबत्ता अमेरिकी दबाव में माना। अब नौंवे दिन पाक के पीएम गिलानी अपनी नेशनल एसेंबली में बोले- 'भारत ने दिए, वे सबूत नहीं। सिर्फ जानकारियां। इन जानकारियों पर जांच जारी।' अपन को जुबानी जंग से ज्यादा कुछ नहीं लगता। अपने पीएम मनमोहन कहते हैं- 'आतंकियों को पाक की खुफिया एजेंसियों का समर्थन था।' पर कोई सबूत है अपने पास। है, तो दुनिया को दिखाते क्यों नहीं। जुबानी गोलाबारी ने अब अपनी कूटनीतिक जंग भी कमजोर कर दी। अमेरिका के बाद अब ब्रिटेन भी आतंकियों को भारत के हवाले करने की मांग से असहमत। कूटनीतिक जंग में हार का अंदाज आप इन दो बातों से लगा लें। मंगलवार को ब्रिटिश विदेशमंत्री डेविड मिलिबेंड दिल्ली में थे। प्रणव दा के साथ घंटों लंबी बात हुई। साझा प्रेस कांफ्रेंस हुई। तो अपन को उम्मीद थी- बड़ी सफलता हाथ लगी होगी। पर खोदा पहाड़, निकली चूहिया वाली बात हुई। वह भी मरी हुई। मनमोहन के दावे पर ही बात करें। सवाल था- 'क्या ब्रिटेन पाक के हाथ संबंधी दावे से सहमत?' वह बोले- 'आतंकी हमला पाक के इशारे पर हुआ होगा, हम नहीं मानते।' यह है बिना सबूत बड़बोलेपन का नतीजा। सिर्फ इतना नहीं। आतंकियों को भारत के हवाले करने का सवाल हुआ, तो बोले- 'पाक की जिम्मेदारी है, वह लश्कर पर अपने कानून के तहत कार्रवाई करे।' ब्रिटिश विदेशमंत्री पाक के खिलाफ खूब बोले। उनने यह भी कहा- 'पाक का इतिहास रहा। वहां आतंकी पकड़े जाते हैं, छूट जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र की रोक लगे। तो संगठन अपना नाम बदल लेते हैं। आतंकवाद से लड़ने का पाक का रिकार्ड अच्छा नहीं। मुंबई पर हमला पाक से ही हुआ। पाक लश्कर पर कार्रवाई करे।' पर अपनी दोनों बातों से असहमत। कूटनीतिक जंग में भी शिकस्त दिखने लगी अपन को तो।
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