देश की सियासत में इस हफ्ते की दो बड़ी घटनाएं रही झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का विधानसभा उप चुनाव हारना और पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत का सक्रिय राजनीति में लौटने का ऐलान। इन दोनों घटनाओं को हाल ही के विधानसभा चुनाव नतीजों की दूसरी कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। जम्मू कश्मीर और मिजोरम विधानसभाओं के चुनाव नतीजे उम्मीद के मुताबिक ही रहे थे। असल में महत्वपूर्ण रहे चार हिंदी भाषी राज्यों के नतीजे। इनमें से दो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा का फिर से जीतना कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है, तो राजस्थान में हारना और दिल्ली नहीं जीत पाना भाजपा के लिए बड़ा झटका है। भाजपा चार में से तीन राज्य जीत जाती तो इसे लोकसभा चुनाव नतीजों का संकेत बताकर फूली नहीं समाती। इसी तरह कांग्रेस चार में से तीन राज्य जीत जाती तो अगली लोकसभा का स्वरूप उसके पक्ष में स्पष्ट दिखाई देता। सो जैसी स्थिति विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद दोनों राजनीतिक दलों के लिए बनी थी।
उसी की दूसरी कड़ी पिछले हफ्ते की दोनों बड़ी राजनीतिक घटनाएं हुई हैं। शिबू सोरेन की विधानसभा चुनाव में हार से यूपीए की नींद उड़ गई है तो भैरोंसिंह शेखावत के तेवरों ने भाजपा और एनडीए की नींद उड़ा दी है। लगातार ऐसी घटनाएं हो रही हैं जिससे किसी एक का पलड़ा भारी दिखाई नहीं पड़ रहा।
यूपीए का पलड़ा इस हिसाब से भारी कहा जा सकता है कि साढे चार साल का शासन करने के बावजूद उसकी लोकप्रियता में वैसी गिरावट नहीं दिख रही, जो भाजपा की खुशी का कारण बने। टीआरएस जैसे छिटपुट दलों को छोड़ दें तो यूपीए कुनबे में किसी तरह का बिखराव दिखाई नहीं दे रहा, जो उसके लिए अच्छा लक्षण है जबकि 2004 के लोकसभा से पहले वाजपेयी जैसी शख्सियत के बावजूद राजग में बिखराव शुरू हो गया था। यूपीए इस समय 2004 से भी ज्यादा ताकतवर है क्योंकि उसमें कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाले मुलायम सिंह और फारुख अब्दुल्ला के दलों का प्रवेश हुआ है। दूसरी तरफ अटल बिहारी वाजपेयी के बिना राजग खुद को काफी कमजोर पा रहा है। लालकृष्ण आडवाणी को भावी प्रधानमंत्री घोषित किए अब एक साल पूरा हो चुका है। इस एक साल में राजग परिवार में कोई उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। ओम प्रकाश चौटाला के पास राजग में लौटने के सिवा कोई चारा भी नहीं था। वह बाकायदा अपने पक्ष में लॉबिंग करवाकर राजग में लौटे हैं। इसी तरह असमगण परिषद के पास भी राजग में लौटने के सिवा कोई चारा नहीं था। उसके लिए लालकृष्ण आडवाणी को कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी। लालकृष्ण आडवाणी को पिछले एक साल में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में कोई सफलता नहीं मिली है। मौजूदा हालात में इन दोनों राज्यों में जहां लोकसभा की 81 सीटें हैं, भाजपा या राजग का कोई नाम लेवा ही नहीं है। यही हालत 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश में है, जहां उसका अपना आधार काफी घट चुका है और अजित सिंह के सिवा कोई सहयोगी नहीं। अजित सिंह का आधार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बहुत छोटे क्षेत्र में सीमित है, जिसमें दस सीटें ही प्रभावित होती हैं।
कांग्रेस ने राजग के 82 वर्षीय प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी को मात देने के लिए 80 वर्षीय मनमोहन सिंह को आगे करने की रणनीति छोड़ दी है। सोनिया गांधी के नए विश्वासपात्र प्रणव मुखर्जी पर भरोसा किया जाए तो राहुल गांधी को जल्दी लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट किया जाएगा। प्रणव मुखर्जी ने आठ जनवरी को यह कहकर बहुतेरे लोगों को चौंकाया होगा कि राहुल गांधी जल्द ही प्रधानमंत्री बन सकते हैं। ठीक एक महीना पहले 8 दिसंबर को जब विधानसभा के चुनाव नतीजे आ रहे थे और मैं न्यूज 24 पर प्रभाष जोशी के साथ चुनाव नतीजों की समीक्षा कर रहा था तो यही संभावना मैंने भी जताई थी। पिछले साल जुलाई में सहारा टीवी पर एक परिचर्चा में जब मैंने यह बात कही थी कि 2009 के लोकसभा चुनाव में ही राहुल को प्रोजेक्ट किया जाएगा, तो इंटरव्यू करने वाला चौंक गया था। राहुल गांधी को प्रोजेक्ट किए जाने के आसार पिछले एक साल से दिखने शुरू हो गए थे। हालांकि अर्जुन सिंह ने यह बात कहकर जरा जल्दबाजी कर दी थी, जिस कारण उन्हें सोनिया गांधी की फटकार सहनी पड़ी थी। सियासत में हर बात कहने का समय और सलीका होता है। अर्जुन सिंह स्वामिभक्ति में यह दोनों ही बातें भूल गए थे। उनके ऐलान को परिवार भक्ति के अलावा मनमोहन विरोध भी देखा गया। अब इसमें कोई संदेह नहीं रहा कि 2009 के लोकसभा चुनाव में बिना ऐलान किए ही राहुल गांधी को प्रोजेक्ट कर दिया जाएगा। कांग्रेस के सभी विज्ञापनों और कार्यक्रमों में सोनिया-मनमोहन के साथ राहुल गांधी के फोटो दिखाई देने शुरू हो चुके हैं। अलबत्ता कई जगह पर मनमोहन सिंह के फोटो गायब हैं। पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव इस लिहाज से बहुत अहम होगा कि इस बार 50 फीसदी वोट 35 साल से कम उम्र के होंगे और उनका मतदान 80 फीसदी होने का अनुमान है, चुनावी गणित के हिसाब से तीन मुद्दे लालकृष्ण के पक्ष में नहीं जा रहे और कांग्रेस उन्हीं को भुनाने की रणनीति अपना रही है। पहला आडवाणी की उम्र, दूसरा क्षेत्रीय दलों में उनकी अस्वीकार्यता और तीसरा पार्टी में सबको साथ लेकर चलने की विफलता। ये तीनों ही मुद्दे राहुल गांधी के पक्ष में भुनाए जाएंगे। राहुल की उम्र, पार्टी में उनकी स्वीकार्यता और सहयोगी दलों का भी उनके प्रति आकर्षण।
राजस्थान और दिल्ली में चुनाव हारने के बाद भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने हार की वजह हिट विकेट कहा था। वह यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इन दोनों राज्यों में भाजपा को कांग्रेस ने हराया। अगर लालकृष्ण आडवाणी का विश्लेषण ही मान लिया जाए तो दिल्ली में हार की वजह युवा मतदाताओं के सामने 80 साल के विजय कुमार मल्होत्रा को पेश करना था। दिल्ली की जनता को दो बूढ़ों शीला दीक्षित और विजय कुमार मल्होत्रा में से एक चुनना था और उन्होंने सोम्य दीक्षित और घमंडी मल्होत्रा में से सोम्य दीक्षित को चुना। भाजपा का प्रोजैक्शन गलत था, इसी को आडवाणी ने हिट विकेट कहा। राजस्थान में भाजपाई बागियों और मुख्यमंत्री-प्रदेश अध्यक्ष की लड़ाई ने पार्टी को हरवाया। भाजपा का अपना विश्लेषण कहता है कि राजस्थान में भाजपा वसुंधरा के घमंड के कारण हारी। जिसे आडवाणी खुद पहले हवा दे रहे थे और अब हिट विकेट बता रहे हैं। अपनी गलती को सुधारने को बजाए आडवाणी अब लोकसभा चुनाव में हिट विकेट की तैयारी कर रहे हैं। भैरोंसिंह शेखावत ने भाजपा के हिट विकेट होने की जमीन तैयार कर दी है। वह भले ही औपचारिक तौर पर भाजपा के सदस्य नहीं हैं, लेकिन भाजपा के मौजूदा जीवित नेताओं में सबसे पुराने नेता हैं, अटल बिहारी वाजपेयी से दो साल और लालकृष्ण आडवाणी से चार साल बड़े तो हैं ही, राजनीति में इन दोनों से कहीं ज्यादा अनुभवी हैं। राष्ट्रपति पद का चुनाव हारने के बाद भाजपा ने उन्हें जिस तरह अलग-थलग कर दिया था, उससे वह कम आहत थे। लेकिन उन्हीं के गृहराज्य में वसुंधरा राजे ने जिस तरह उनके समर्थकों को चुन-चुनकर राजनीति से अलग किया उससे वह ज्यादा आहत हैं। उन्होंने अपनी ताकत दिखाने का ऐसा वक्त चुना है जब भाजपा लालकृष्ण आडवाणी को आगे करके सत्ता का तानाबाना बुन रही है।
राहुल गांधी के मुकाबले में लालकृष्ण आडवाणी पहले ही कमजोर पड़ रहे हैं, इस बात का अहसास उनके समर्थकों को भी हो गया है। इसी हफ्ते देशभर के भाजपा प्रवक्ताओं के एक दिवसीय प्रशिक्षण शिविर में आडवाणी के सिपाहसलार सुधींद्र कुलकर्णी ने चुनावों में उठने वाले इस सवाल से निपटने की तैयारी करने को कहा है। कांग्रेस अगर युवा मतदाताओं को लुभाने के लिए अमेरिकी तर्ज पर राहुल गांधी को आगे करती है तो आडवाणी के विकल्प नरेन्द्र मोदी हो सकते हैं। लेकिन क्या भाजपा, राजग और संघ परिवार अपने फैसले पर पुनर्विचार कर उन्हें स्वीकर करेगा। आज के हालात में भाजपा और राजग की तुलना अमेरिकी रिब्लिकन पार्टी से की जा सकती है, जिसने युवा नेतृत्व देने की बजाए 72 वर्ष के मैककेन को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर चुनाव हारा। कांग्रेस की तुलना अमेरिकी डेमोक्रेट पार्टी से की जा सकती है, जो 47 वर्षीय बाराक ओबामा को आगे करके चुनाव जीत गई। अब 82 साल के आडवाणी का विकल्प 86 साल के भैरोंसिंह शेखावत नहीं हो सकते। आडवाणी को संघ, भाजपा और राजग का समर्थन हासिल हो चुका है। मोदी को भाजपा पूरी तरह स्वीकार करेगी, लेकिन संघ और राजग पूरी तरह स्वीकार नहीं करेगा। भैरोंसिंह शेखावत को भाजपा और राजग पूरी तरह स्वीकार करेगा लेकिन संघ स्वीकार नहीं करेगा। इसलिए अब प्रधानमंत्री की दावेदारी पर पुनर्विचार करने का जोखिम भी नहीं उठा सकता भाजपा-राजग। हां चुनावों के बाद हालात बने तो शेखावत की स्वीकार्यता आडवाणी से ज्यादा हो सकती है, इसलिए शेखावत को चुनाव नतीजों का इंतजार करना चाहिए।
आपकी प्रतिक्रिया