अपने मित्र अब्दुल कयूम की ई मेल से अपन गुस्से में थे। इस्लामाबाद से अब्दुल ने कई बेतुके सवाल किए। जैसे- करकरे समेत एटीएस के तीन अफसर मौके पर कैसे पहुंचे? उन्हें किसने फोन किया था? अजमल की दांई कलाई पर लाल धागा। सो वह मुस्लिम नहीं, हिंदू। वगैरह-वगैरह। अपन ने इन बेतुकी बातों को एक कान से सुन दूसरे से निकाल दिया। अब अपना सिर शर्म से झुक गया। जब बुधवार को अब्दुल कयूम की जगह अब्दुल रहमान अंतुले बोले- 'कई बार जो दिखता है, वह होता नहीं। करकरे ऐसे केसों की जांच कर रहे थे। जिनमें गैर मुस्लिम शामिल थे। करकरे की हत्या पर अलग से जांच होनी चाहिए।' अपन नहीं जानते। मनमोहन अपने मंत्री के इस बयान पर क्या रुख अपनाएंगे। राजीव प्रताप रूढ़ी ने मनमोहन से पूछा तो है। अब बात कलाई पर लाल धागे की। अजमल से हैदराबाद के अरुणोदय डिग्रीकालेज का पहचान पत्र मिला। तो अपन को वह बात भी समझ आ गई।
हैदराबाद का नाम सुनकर अपन चौंके। सत्ताईस नवंबर को जब आतंकी होटल में ही थे। तब डेक्कन मुजाहिद्दीन ने हमले की जिम्मेदारी ली थी। इंडिया टीवी पर कोई शाहतुल्ला बोल रहा था- 'मैं भारत के हैदराबाद से बोल रहा हूं, पाकिस्तानी हैदराबाद से नहीं।' अपन ने तब लिखा था- 'शाहतुल्ला की जुबान लाहौर जैसी।' बाद में खुलासा हुआ- 'सभी दस फिदायिन पाकिस्तानी पंजाब के मुल्तान और ओकाड़ा जिलों से थे।' पर बात ओकाड़ा जिले के अजमल की। जो जन्नत में जाता-जाता रह गया। अपनी मां से कहकर आया था- 'जिहाद को जा रहा हूं।' तो अजमल से कालेज का जो आईडी कार्ड मिला। उसमें उसका नाम नरेश वर्मा। कालेज के प्रिंसिपल राधाकृष्ण कहते हैं- 'पिछले पांच साल से इस नाम का कोई स्टूडेंट नहीं था। आईडी कार्ड फर्जी।' अपन को सारी साजिश और कलाई के लाल धागे की समझ आ गई। पर अपने यहां अजमल के मानवाधिकारवादी ठेकेदार निकल आए। छब्बीस से उनतीस नवंबर तक बिलों में घुसे थे। अजमल को बेगुनाही साबित करने का हक दिलाने को बेताब। सोचो, अपनी कितनी हंसी उड़ेगी। जब कोई अपना ही भारतीय वकील अदालत में कहेगा- 'मेरा मुवक्किल अजमल बेगुनाह है।' मानवाधिकारवादी बाल ठाकरे पर पिल पड़े हैं। जिनने अजमल की वकालत करने के खिलाफ मोर्चा खोला। हां, अजमल को वकील मिलना चाहिए। पर भारतीय नहीं। अजमल ठहरा पाकिस्तानी। अपन क्यों दें वकील। पाकिस्तान को चाहिए- वह अपने नागरिक को कानूनी मदद दे। जरूरत पड़े, तो विदेशी कानूनी फर्मो के लिए दरवाजे खोल दो। पर पाकिस्तानी आतंकवादी को अपन बेगुनाह कैसे कहें? क्यों कहें? सारी दुनिया ने उसका नाच नंगी आंखों से देखा। चलो इसी नंगे नाच ने यूपीए सरकार की आंख तो खोली। पी. चिदंबरम ने आतंकवाद विरोधी और फेडरल एजेंसी का बिल रखा। तो आडवाणी ने स्वागत करते कहा- 'चलो, दस साल बाद कुंभकर्णी नींद से जागी तो कांग्रेस। सुबह का भूला, शाम को घर आ जाए, तो उसे भूला नहीं कहते। पर सुबह से शाम के बीच बहुत देर हो चुकी।' यूपीए सरकार ने पोटा आते ही रद्द किया। एनडीए रूल में आडवाणी ने बनवाया था। आडवाणी ने फेडरल एजेंसी बनवाने की भी बहुत कोशिश की। पर कांग्रेसी-कम्युनिस्ट सीएम राजी नहीं हुए। अब दोनों बातें हुई। तो आडवाणी खुश थे। पर उनने लोकसभा में भिगो-भिगोकर मारी। तो कपिल सिब्बल का सारा जोर बचाव में लगा। वह यही दलीलें देते रहे- 'आप फेडरल एजेंसी नहीं बनवा पाए। हमारा बिल पोटा जैसा नहीं।' यह नहीं बताया- तब फेडरल एजेंसी किसने नहीं बनने दी। हां, बिल 'पोटा' जैसा कड़ा नहीं। पर गैर कानूनी गतिविधियां निरोधक संशोधन बिल में पोटा जैसी कुछ बातें। झेंपकर सही। सिब्बल ने माना- 'हमने अनुभव से सबक सीखा।' पर बिल में ऐसी-ऐसी बातें। जिन्हें कांग्रेस दस साल से मुस्लिम विरोधी बता रही थी। सो सिब्बल मुद्दे से हटकर खुन्नस निकालते रहे।
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