मध्यप्रदेश, दिल्ली, राजस्थान विधानसभा चुनावों से ठीक पहले हुई मुंबई की आतंकवादी वारदात ने कांग्रेसियों के माथे पर पसीने की बूंदें झलका दी। कांग्रेस पर आतंकवाद के प्रति नरम होने का आरोप लगा रही भाजपा को इन तीनों राज्यों में फायदा होगा।
छह विधानसभाओं के चुनावों का ऐलान होने से पहले भाजपा दिल्ली को लेकर सबसे ज्यादा आश्वस्त थी। भाजपा यह मानकर चल रही थी कि दिल्ली तो उसे मिलेगा ही, कम से कम छत्तीसगढ़ और मिल जाए, तो लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पार्टी की नाक बच जाएगी। मध्यप्रदेश को भाजपा हारा हुआ मानकर चल रही थी, राजस्थान को लेकर भी आश्वस्त नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे चुनावी शतरंज बिछनी शुरू हुई, भाजपा आलाकमान यह देखकर दंग रह गया कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान उम्मीद से ज्यादा नतीजा दिखा रहे थे, जबकि दिल्ली में विजय कुमार मल्होत्रा की उम्मीदवारी का ऐलान होते ही हालात ने नया मोड़ ले लिया।
भाजपा मध्यप्रदेश से ज्यादा राजस्थान पर आश्वस्त था, लेकिन चुनाव की घड़ी नजदीक आते-आते मध्यप्रदेश पार्टी की झोली में आता हुआ दिखाई देने लगा, तो राजस्थान उतना ही दूर जाता दिखाई देने लगा। दूसरी तरफ कांग्रेस चुनाव से पहले मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ को लेकर सबसे ज्यादा आश्वस्त थी, पार्टी आलाकमान का मत था कि ये दोनों राज्य तो कांग्रेस के खाते में आ ही रहे हैं, राजस्थान में भी अच्छी संभावना है। दिल्ली को लेकर जिस तरह भाजपा पूरी तरह आश्वस्त थी, उस तरह कांग्रेस भी हारा हुआ राज्य मानकर चल रही थी। लगातार दस साल तक दिल्ली पर राज करने के बाद कांग्रेस के कई नेताओं को लग रहा था कि इस बार एंटीइनकंबेंसी उसकी हार की वजह बनेगी। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के चुनाव हो चुके हैं, दिल्ली का चुनाव आज है और राजस्थान में चार दिसंबर को वोट पड़ेंगे।
चुनावी डुगडुगी बज जाने के बाद राजनीतिक हालात ने एकदम पलटी खाई और छत्तीसगढ़ में भाजपा पहले ही दिन से हावी दिखाई देने लगी। चुनाव हो जाने के बाद भाजपा आलाकमान कम से कम पहले जितना बहुमत लाने पर पूरी तरह आश्वस्त है, लेकिन कांग्रेस के नेता अब उतने उत्साही दिखाई नहीं देते, जितने चुनावों से पहले थे। कांग्रेस का एक वर्ग तो यह मानकर चल रहा है कि छत्तीसगढ़ उसके हाथ से निकल चुका है। अगर भाजपा छत्तीसगढ़ दुबारा जीत जाती है तो अजीत जोगी का कांग्रेस में कद घटेगा, जबकि उनके विरोधियों मोती लाल वोरा और विद्याचरण शुक्ल का कद बढ़ेगा। दूसरी तरफ भाजपा में भी रमण सिंह विरोधियों को और पांच साल का वनवास मिल जाएगा। मध्यप्रदेश में भाजपा अगर दूसरी बार सरकार बनाने में कामयाब हो गई, तो उसका श्रेय शिवराज चौहान को दिया जाएगा। एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने मध्यप्रदेश के चुनावी दौरे से लौटने के बाद निजी बातचीत में कहा कि वह तो शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में आए उभार को देखकर हतप्रभ रह गए। विधानसभा उपचुनावों में हार और डंपर कांड के बाद भाजपा आलाकमान मध्यप्रदेश को लेकर उदासीन हो गया था, लेकिन पिछले दो सालों में शिवराज सिंह चौहान ने न सिर्फ उपचुनाव जिताने शुरू किए, अलबत्ता डंपर कांड से जुड़े भ्रष्टाचार के आरोपों का भी डटकर मुकाबला किया। शिवराज सिंह चौहान चुनावों से पहले-पहले अपनी ईमानदार छवि बनाने में कामयाब रहे। इसलिए अगर मध्यप्रदेश में भाजपा जीती, तो उसका सेहरा शिवराज सिंह चौहान के सिर ही बंधेगा। दूसरी तरफ सबसे आसान राज्य होने के बावजूद कांग्रेस चुनाव हार गई तो उसका ठीकरा सुरेश पचौरी की बजाए कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के सिर फूटेगा। इन दोनों नेताओं ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से सलाह-मशविरा किए बिना मुख्यमंत्री पद के लिए कमलनाथ की दावेदारी ठोक दी। लेकिन अगर कांग्रेस जीतती है तो यह सोनिया गांधी तय करेंगी की उसका सेहरा किसके सिर बांधा जाए क्योंकि उन्होंने तो सूबे का सरदार सुरेश पचौरी को बनाकर भेजा था।
राजस्थान में चुनावी डुगडुगी बजने से पहले भाजपा उम्मीद से ज्यादा उत्साहित थी। भाजपा का कहना था कि कांग्रेस बिना दूल्हे की बारात है, जिसका फायदा भाजपा को मिलेगा। वसुंधरा राजे ने अपने पांच साल के शासन में महिलाओं में खास तौर पर अपनी छवि बनाई थी, भाजपा को उम्मीद थी कि उसी छवि के बूते महिलाओं का 75 फीसदी वोट बटोरा जा सकता है। इसी रणनीति के तहत भाजपा ने 31 महिलाओं को चुनाव मैदान में उताकर महिलाओं को सबसे ज्यादा टिकट देने का रिकार्ड बनाया। कांग्रेस भी वसुंधरा के मुकाबले पार्टी को काफी कमजोर मानती थी, आलाकमान पार्टी के नेताओं की जातीय आधारित महत्वाकांक्षाओं से भी काफी आशंकित थी। लेकिन टिकट बंटवारे के बाद दोनों ही राजनीतिक दलों की स्थिति अचानक बदल गई। भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही बड़े पैमाने पर बगावत का सामना करना पड़ा। भाजपा को कांग्रेस से कुछ ज्यादा बगावत का सामना करना पड़ा, इसकी वजह वसुंधरा राजे सिंधिया की ओर से टिकटों के बंटवारे में जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप बताया गया। ललित किशोर चतुर्वेदी, भैरोंसिंह शेखावत, हरिशंकर भाभड़ा जैसे दिग्गज नेता टिकटों के बंटवारे से नाखुश होकर घर बैठ गए। दिल्ली में स्थिति राजस्थान से एकदम विपरीत रही। मुख्यमंत्री पद की दौड़ से पहले भाजपा बल्ले-बल्ले थी। लेकिन जैसे ही विजय कुमार मल्होत्रा का नाम तय हुआ, पार्टी कैडर का उत्साह काफूर हो गया। भाजपा के पास तीन विकल्प थे- अरुण जेटली, डाक्टर हर्ष वर्धन और विजय कुमार मल्होत्रा। अरुण जेटली प्रदेश की राजनीति में कूदना नहीं चाहते थे, हालांकि वह राजी होते, तो भाजपा को चुनाव जीतने के लिए पापड़ नहीं बेलने पड़ते। डाक्टर हर्ष वर्धन के नाम पर सहमति नहीं बनी, हालांकि अरुण जेटली उन्हें ही उम्मीदवार बनाने के पक्ष में थे। तीसरी पसंद विजय कुमार मल्होत्रा के सिवा कोई चारा नहीं था, लेकिन वह शीला दीक्षित पर वैसे भारी नहीं पड़े जैसे बाकी दोनों पड़ते। वैसे भी पिछले बीस साल में दिल्ली का राजनीतिक चरित्र बदल चुका है, अब दिल्ली में पंजाबियों और बनियों का वर्चस्व नहीं रहा। अलबत्ता बिहार और उत्तर प्रदेश से आए प्रवासियों का वर्चस्व हो गया है, जिसे कांग्रेस ने दस साल पहले ही पहचान लिया था और उत्तर प्रदेश मूल की शीला दीक्षित को नेता बना दिया था जबकि भाजपा दस साल बाद भी हकीकत से वाकिफ नहीं।
मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली के चुनावों पर मुंबई की आतंकी वारदात का असर होने के आसार हैं। मध्यप्रदेश में ठीक उस दिन मतदान हुआ, जिस दिन अखबारों में आतंकी वारदात की सुर्खी छपी थी। इसलिए वोटरों के मस्तिष्क पर आतंकवाद के खिलाफ कांग्रेस की लुंज-पुंज नीति का गुस्सा मतदान केन्द्रों में प्रकट हुआ होगा। वैसे भी मतदान से पहले भाजपा की स्थिति मजबूत हो गई थी। दिल्ली में कमजोर कंधों पर नेतृत्व सौँपने और टिकटों के गलत बंटवारे का असर चुनाव नतीजे में दिखाई देने से पहले ही मुंबई में हुई आतंकवादी वारदात ने कांग्रेस पर वोटरों का गुस्सा बढ़ा दिया। कांग्रेस का मानना है कि मुंबई की आतंकवादी वारदात का तीनों राज्यों के चुनावों पर विपरीत असर पड़ेगा। दिल्ली में अगर भाजपा जीती, तो उसका कुछ कारण मुंबई में हुई आतंकी वारदात भी होगी। राजस्थान में जहां कांग्रेस खुद का पलड़ा भारी समझकर चल रही है, वहां कांग्रेस के नेताओं के माथे पर पसीने की बूंदें उभर आई हैं।
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