एटीएस जांच को लोकसभा चुनाव तक खींचने की सियासत

Publsihed: 20.Nov.2008, 20:44

श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड ने पलटी खाकर कांग्रेस का समर्थन शुरू कर दिया है, लेकिन कांग्रेस की निगाह मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान पर ज्यादा टिकी है, जहां 65 में से 56 लोकसभा सीटें भाजपा के पास हैं।

जिन छह राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें से दो जम्मू कश्मीर और मिजोरम अत्यंत संवेदनशील राज्य हैं, लेकिन देशवासियों की निगाह इन दोनों राज्यों पर कम, बाकी चार राज्यों पर ज्यादा टिकी है। मिजोरम में सत्ता परिवर्तन के कोई आसार नहीं दिखते, लेकिन जम्मू कश्मीर में नए गठबंधन पैदा होने के आसार दिखाई देने लगे हैं। हालांकि नेशनल कांफ्रेंस का पलड़ा भारी है, लेकिन ऐसा नहीं दिखता कि वह अपने बूते पर सरकार बना पाएगी। पिछले विधानसभा चुनाव में भी नेशनल कांफ्रेंस की सीटें सबसे ज्यादा आई थी, लेकिन कांग्रेस और पीडीपी ने मिलकर सरकार बना ली थी।

पीडीपी को सिर्फ 17 सीटें मिली थी, इसके बावजूद पहले तीन साल तक पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हो गए थे। हालांकि पीडीपी नें बाकी के तीन साल कांग्रेस को समर्थन नहीं दिया, और वक्त से पहले विधानसभा भंग हो गई। विधानसभा भंग होने की वजह श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को यात्रा के लिए जमीन अलाट करना बना। वैसे जमीन अलाट करने में पीडीपी के जंगलात विभाग के मंत्री की अहम भूमिका थी, लेकिन पीडीपी ने ही समर्थन वापस ले लिया। इसलिए अब पीडीपी की हालत खस्ता है। पीडीपी के दबाव में आकर कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने जमीन के अलाटमेंट रद्द कर दी थी, इसके खिलाफ चले आंदोलन ने कांग्रेस की हालत इतनी पतली कर दी थी, कि भाजपा फूली नहीं समा रही थी। ऐसा लग रहा था कि जम्मू की कम से कम पंद्रह सीटों पर भाजपा का कब्जा हो जाएगा, लेकिन चुनाव में स्थिति बदल गई है। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के नेता अंदर ही अंदर कांग्रेसी उम्मीदवारों को समर्थन दे रहे हैं, इसकी वजह यह है कि भाजपा जम्मू कश्मीर में सरकार बना नहीं सकती, जबकि कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस में आधे-आधे समय सरकार बनाने का समझौता हो सकता है। जम्मू कश्मीर के हिंदुओं को लगने लगा है कि उनका फायदा कांग्रेस को जिताने से है, भाजपा को जिताने से नहीं। जहां तक कश्मीरी पंडितों का सवाल है, वह अपने अधिकार के लिए शोर भले जितना मचाएं, लेकिन चुनावों में हिस्सा लेने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। हालांकि इस बार चुनावों में 33 कश्मीरी पंडित खड़े हुए हैं, लेकिन विस्थापित कश्मीरी पंडितों की मतदान करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। पहले दौर में दस सीटों के चुनाव हुए हैं, दिल्ली में रह रहे कश्मीरी पंडितों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। जबकि गुरेज, बांदीपुर और सोनवारी तीन ऐसी विधानसभा सीटें हैं, जहां से विस्थापित कश्मीरी पंडित बड़ी तादाद में दिल्ली में रहते हैं, और उन्हें यहां मतदान करने का अधिकार है।

मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भले ही भाजपा का पलड़ा भारी हो, लेकिन कांटे की लड़ाई बनाने में कांग्रेस कोई कसर नहीं छोड़ रही है। चुनाव भले ही छह राज्यों में हो रहे हैं, लेकिन सबकी निगाह इन तीनों राज्यों पर टिकी हुई है। इसकी वजह यह है कि इन तीनों राज्यों में लोकसभा की 65 सीटें हैं, जिनमें से 56 इस समय भाजपा के पास हैं। इन तीनों विधानसभाओं के चुनाव अगली लोकसभा की ओर इशारा कर देंगे। भाजपा नाक का सवाल बनाकर इन तीनों राज्यों में अपनी सरकारें बनाए रखने की कोशिश में जुटी है। अगर भाजपा इसमें कामयाब हो जाती है, तो केंद्र में अगली सरकार बनाने का कांग्रेसी ख्वाब टूटना शुरू हो जाएगा। कांग्रेस की निगाह इन तीनों राज्यों में भाजपा की लोकसभा सीटें घटने पर टिकी हुई है। केंद्र की मौजूदा यूपीए सरकार सिर्फ आंध्र प्रदेश की बदौलत बनी थी, जहां कांग्रेस को 42 में से 29 सीटें मिल गई थी। अगर आंध्र प्रदेश में भाजपा-तेलुगूदेशम का बंटाधार न होता, तो केंद्र में यूपीए सरकार कतई नहीं बन सकती थी। यूपीए सरकार बनने की दूसरी वजह बिहार थी, जहां कांग्रेस के समर्थक दल आरजेडी को 22 सीटें मिल गई थी। यूपीए सरकार बनने की तीसरी वजह तमिलनाडु थी, जहां कांग्रेस के सहयोगी डीएमके को 16 और खुद कांग्रेस को 10 सीटें मिली थी। अब इन तीनों ही राज्यों में पासां पलट चुका है। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और बिहार में यूपीए की स्थिति बेहद खराब हो चुकी है और कांग्रेस की निगाह इन तीनों राज्यों की भरपाई भाजपा प्रभाव वाले मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ पर टिकी है। अगर विधानसभा चुनावों में भाजपा इन तीनों राज्यों में अपनी सरकार बचाने में कामयाब हो गई, तो अगली लोकसभा की इबारत लिख दी जाएगी।

कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों के समय मध्यप्रदेश से जुड़ी साध्वी प्रज्ञा को मालेगांव बम धमाकों में फंसाकर बड़ा दांव चला है। हालांकि कांग्रेस बिहार विधानसभा चुनावों से ठीक पहले गोधरा ट्रेन पर हुए हमले की जस्टिस बनर्जी से न्यायिक जांच करवाकर हू-ब-हू ऐसा ही खेल पहले भी खेल चुकी है। जस्टिस बनर्जी ने कहा था कि ट्रेन पर पेट्रोल छिड़ककर आग नहीं लगाई गई थी, अलबत्ता ट्रेन के अंदर से ही आग लगी थी। लब्बोलुबाब यह था कि गोधरा में ट्रेन के डिब्बे में आग खुद संघ परिवार से जुड़े संगठनों ने लगाई थी। लालू प्रसाद यादव और मनमोहन सिंह का यह दांव भी कांग्रेस और राजद को हार से नहीं बचा पाया था। हिंदुओं को मालेगांव बम धमाकों में एटीएस की भूमिका भी जस्टिस बनर्जी जैसी दिखाई दी, तो इन तीनों राज्यों में भी चुनाव नतीजे बिहार जैसे ही आएंगे। कांग्रेस संभवत: हिंदू वोट बैंक के लिए उतनी चिंतित नहीं है, जितनी मुस्लिम वोट बैंक के लिए चिंतित है। मुस्लिम समाज ने बाटला हाऊस मुठभेड़ पर सवाल उठाकर अल्पसंख्यकों में यूपीए की स्थिति बेहद खराब कर दी थी। मालेगांव बम धमाकों में साध्वी प्रज्ञा और लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित के अलावा अभिनव भारत से जुड़े लोगों की गिरफ्तारी से बाटला हाऊस मुठभेड़ की जांच की मांग खत्म हो गई है। पहले ऐसा लगता था कि कांग्रेस तीनों विधानसभा चुनावों के नतीजे देखकर एटीएस की जांच का रुख तय करेगी, लेकिन  अब ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों का सकारात्मक रुख  बनाए रखने के लिए एटीएस की जांच के मौजूदा रुख को लोकसभा चुनाव तक बनाए रखने का मन बना चुकी है। एटीएस के सभी आठ आरोपियों को मकोका में गिरफ्तार करना इसी रणनीति की ओर इशारा करता है। साध्वी प्रज्ञा के हल्फिया बयान और लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित के अदालत में दिए गए बयान से एटीएस की सारी रणनीति बर्बाद होती देखकर मकोका लगाने का फैसला किया गया है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख 19 नवम्बर को दिल्ली से मकोका लगाने का आदेश लेकर लौटे थे।

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