एक बार जो सत्ता का स्वाद चख ले

Publsihed: 06.Nov.2008, 20:47

दल-बदल की बीमारी ऐसे लोगों में ज्यादा पाई जाती है, जो सत्ता का स्वाद एक बार चख चुके होते हैं। चुनाव के मौके पर दल-बदल की बीमारी का मौसम आ जाता है। भाजपा ने टिकटों का ऐलान करने से पहले पार्टी के लिए काम करने की शपथ दिलाने का रास्ता ईजाद किया है। यह कितना कारगर होगा?

जिन छह राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं, उनमें टिकट बंटवारे का काम अब करीब-करीब खत्म हो गया है। टिकट बंटवारे के बाद पार्टियों के दफ्तरों में तोड़फोड़ और बगावतों का सिलसिला भी थमने लगा है। चुनाव लड़ने की टिकट न मिलने के बाद अपनी ही पार्टी  के खिलाफ नारे लगाने, जिन नेताओं के पांव छूकर टिकट मांग रहे थे, उन्हीं के पुतले फूंकने और आखिर में अपनी ही पार्टी को हराने के लिए दूसरी पार्टी में छलांग लगाने या बगावती होकर चुनाव लड़ने की बात अब आम हो गई है। भारतीय जनता पार्टी हो या कांग्रेस, इस मामले में एक उन्नीस है तो दूसरी इक्कीस। सत्ता हासिल करने की लालसा सत्ता मिलने के बाद होने वाले फायदों के साथ जुड़ी हुई है। एक बार एमएलए या एमपी बनने वाले नेताओं में यह बीमारी ज्यादा पाई जाती है। इसकी वजह यह है कि वे सत्ता का स्वाद चख चुके होते हैं और बागी होकर चुनाव लड़ने की हैसियत बना चुके होते हैं। दिल्ली में भाजपा के एक टिकटार्थी ने अपने आवेदन में लिखा कि अगर उसे टिकट दिया जाता है, तो वह पार्टी से चुनाव लड़ने के लिए फंड नहीं मांगेगा, अलबत्ता अगल-बगल की सीटों में भी मदद करेगा। विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए अब कम से कम एक करोड़ रुपया खर्च होता है, कोई व्यक्ति इतना पैसा चुनाव लड़ने के लिए खर्च करेगा, तो वह चुनाव जीतने पर अपने स्वार्थों की पूर्ति भी करेगा। राजनीतिक दल के टिकट पर चुनाव लड़ने का फायदा यह होता है कि पार्टियां खुद अपने उम्मीदवारों को फंड मुहैया करवाती हैं और पार्टियों की ओर से खर्च किया गया पैसा उम्मीदवार के खर्चे में शामिल नहीं होता। इसलिए हर कोई राजनीतिक दल का टिकट पाने की कोशिशों में जुट जाता है।

एमएलए-एमपी रहे नेता की सत्ता की भूख इतनी ज्यादा हो जाती है कि फिर उसके सामने देशहित, राज्यहित, सिध्दांत, विचारधारा का कोई मतलब नहीं रहता। कांग्रेस में रहकर भाजपा को सांप्रदायिक कहने वाले अचानक भाजपा की डयोढ़ी पर पहुंच जाते हैं, भाजपा में रहकर कांग्रेस को एक परिवार की पार्टी बताने वाले दस जनपथ जाकर नाक रगड़ना शुरू कर देते हैं। चुनावों के मौके पर दल-बदल का मौसम शुरू हो जाता है। उसी दौरान अनुशासन का डंडा भी चलने लगता है। मध्यप्रदेश में चुनाव के मौके पर दल-बदल की एक अजीब घटना देखने को मिली। पूर्व सांसद दिलीप सिंह भूरिया कांग्रेस की टिकट पाने में विफल रहने के बाद अचानक भाजपा मुख्यालय पहुंच गए। दिलीप सिंह भूरिया झाबुआ के अविवादित लोकप्रिय नेता थे। चार बार लगातार लोकसभा चुनाव जीतने वाले भूरिया धनबल की राजनीति से कोसों दूर रहे। लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति का शिकार हो गए। अर्जुन सिंह और विद्याचरण शुक्ल दोनों खेमों को नाराज कर लिया। नतीजा यह निकला कि दोनों ने मिलकर भूरिया का पत्ता काटकर कांतिलाल भूरिया को लोकसभा टिकट दिला दिया। इससे खफा होकर दिलीप सिंह तीस साल का कांग्रेस का साथ छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। भाजपा ने उन्हें टिकट तो दिया लेकिन वह जीत नहीं पाए। इसके बावजूद भाजपा ने उन्हें अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग का अध्यक्ष बनाकर केबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया, जो कांग्रेस ने तीस साल तक उन्हें नहीं दिया था। दिलीप सिंह भूरिया की बेटी कांग्रेस की विधायक हुआ करती थी, भाजपा ने उन्हें भी विधानसभा का टिकट देने के बाद मध्यप्रदेश में मंत्री  बना दिया, जो कांग्रेस ने कभी नहीं बनाया था। लेकिन भाजपा ने दिलीप सिंह भूरिया को 2004 के लोकसभा चुनाव में टिकट नहीं दिया, तो वह खफा होकर गोंडवाना पार्टी में शामिल हो गए। थोड़े दिनों बाद ही उन्हें राष्ट्रीय पार्टी और क्षेत्रीय पार्टी में फर्क समझ आने लगा, तो कांग्रेस में लौटने की फिराक में जुट गए। आखिर विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले उन्हें कांग्रेस में प्रवेश मिल गया। कांग्रेस में आते ही उन्होंने खुद विधानसभा का चुनाव लड़ने और अपनी बेटी को भी कांग्रेस का टिकट दिलाने की कोशिशें शुरू कर दी। लेकिन भूरिया के पुराने विरोधी फिर से सक्रिय हो गए और उन्होंने टिकट नहीं मिलने दिया, अब भूरिया फिर से भाजपा में शामिल हो गए हैं और उनकी बेटी पहले से भाजपा में है। यह तो है सत्ता का स्वाद चख लेने के बाद टिकट की मारामारी का उदाहरण। जिसे एक बार भी टिकट न मिला हो, वह हर चुनाव में अपनी पार्टी की डयोढ़ी पर टिकटार्थी बनकर पहुंचता है और टिकट नहीं मिलने पर ज्यादा निराश हो तो अपने घर बैठ जाता है। निराशा पर काबू पा ले तो जिसे टिकट मिले उसी के लिए काम करने में जुट जाता है। मध्यप्रदेश भाजपा के एक ऐसे ही कार्यकर्ता ने टिकट के लिए अपने आवेदन में लिखा कि अगर उसे टिकट नहीं दिया गया तो वह उसी के लिए काम करेगा जिसे टिकट दिया जाएगा।

टिकट नहीं मिलने पर बगावती हो जाने और चुनाव के मौके पर पार्टी बदलने की इस बीमारी से वाकिफ भारतीय जनता पार्टी ने अब एक नया नुस्खा निकाला है। भाजपा के अध्यक्ष कार्यकर्ताओं की बैठकों में शपथ दिलाते हैं कि अगर उन्हें टिकट न मिले तो भी वे जी-जान से पार्टी के लिए काम करेंगे। राजस्थान में इस बार टिकटों का ऐलान होने के बाद ज्यादा बगावत की आशंका है, इसलिए पार्टी ने ज्यादातर सीटों पर फैसला कर लेने के बावजूद छह नवंबर को जयपुर में हुई बूथ प्रबंधकों के सम्मेलन से पहले टिकटों का ऐलान नहीं किया। करीब तीन घंटे चले सम्मेलन की समाप्ति पर जब राजनाथ सिंह अचानक अपने हाथ में कागज लेकर दुबारा मंच पर आए और अनाउंस  किया गया कि वह कुछ घोषणा करेंगे, तो मीडिया को ऐसा लगा कि भाजपा अपनी टिकटों का ऐलान करने का नया तरीका अख्तियार कर रही है। जबकि राजनाथ सिंह ने माइक पर पहुंचते ही सम्मेलन में मौजूद हजारों कार्यकर्ताओं को एक हाथ खड़ा करके शपथ दिलानी शुरू कर दी। संभवत: भाजपा दिल्ली प्रदेश के दफ्तर और पार्टी मुख्यालय में हुई नारेबाजी और तोड़फोड़ से भयभीत है। पति-पत्नी कीर्ति आजाद और पूनम आजाद दोनों ही एक-एक बार दिल्ली विधानसभा का चुनाव हार चुके हैं। इस बार पूनम आजाद नई दिल्ली की सीट पर शीला दीक्षित के सामने चुनाव लड़ने के बजाए पूर्वी दिल्ली से टिकट की इच्छुक थी। भाजपा अपने पुराने उम्मीदवार का टिकट काटकर पूनम आजाद को टिकट नहीं दे पाई, तो पूनम आजाद ने बगावत का बिगुल बजा दिया। चुनावों के मौके पर टिकट नहीं मिलने पर दल-बदल की बीमारी से जम्मू कश्मीर भी अछूता नहीं। जम्मू कश्मीर में हालांकि कांग्रेस की हालत काफी खस्ता है, इसके बावजूद कम से कम आधा दर्जन सीटों पर बगावती उम्मीदवारों का सामना करना पड़ रहा है।

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