सोनिया का आशीर्वाद फिर जोगी को

Publsihed: 16.Oct.2008, 20:43

विरोधियों को पछाड़ने के बाद खुद की रमण सिंह के मुकाबले चुनाव लड़ने की तैयारी। पत्नी और बेटे को भी टिकट दिलाने में जुटे। पहली ही नजर में कांग्रेस का पलड़ा भारी।

पूर्वोत्तर के मिजोरम और देश की राजधानी दिल्ली समेत पांच  हिन्दी भाषी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव की घोषणा हो चुकी है। इनमें से सबसे पहले छत्तीसगढ़ विधानसभा का चुनाव होगा। छत्तीसगढ़ का गठन पहली नवंबर 2000 को एनडीए शासनकाल के समय हुआ, हालांकि छत्तीसगढ़ अलग राज्य के लिए संघर्ष दो दशकों से चल रहा था। कांग्रेस ने हमेशा अलग छत्तीसगढ़ राज्य का विरोध किया, लेकिन जब राज्य का गठन हुआ, तो पहली सरकार उसी की बनी।

इसकी वजह यह थी कि उस समय मध्यप्रदेश की नब्बे विधानसभा सीटों वाली इस क्षेत्र में कांग्रेस के 48 विधायक थे, जबकि भाजपा के 36 विधायक थे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के लिए कांग्रेस में एक महीने तक घमासान हुआ। ज्यादातर विधायक विद्याचरण शुक्ल के पक्ष में थे, लेकिन तब के कांग्रेस के प्रवक्ता अजीत जोगी ने बाजी मार ली। उस समय अजीत जोगी के पक्ष में सिर्फ एक विधायक ही था। अजीत जोगी को सोनिया गांधी के नजदीक होने और इसाई होने का फायदा मिला। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए मुश्किल यह थी कि राज्य के विधायक उन्हें कबूल करने को तैयार नहीं थे। सोनिया गांधी ने यह जिम्मा दिग्विजय सिंह को सौंपा, जो उस समय मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। वैसे तो दिग्विजय सिंह और अजीत जोगी दोनों ही अर्जुन सिंह खेमे के माने जाते थे, लेकिन दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में दोनों का छत्तीस का आंकड़ा बन चुका था। एक बार तो भोपाल में हुई प्रदेश कांग्रेस की बैठक में जूतमपैजार के बाद बम फोड़ने की नौबत भी आ चुकी थी। इसके बावजूद दिग्विजय सिंह को सोनिया गांधी के निर्देश का पालन करना पड़ा। असल में कांग्रेस के 48 विधायकों में से ज्यादातर विधायक दिग्विजय सिंह के करीबी थे। हालांकि विद्याचरण शुक्ल और श्यामाचरण शुक्ल हमेशा अर्जुन सिंह विरोधी खेमे का नेतृत्व करते रहे थे, लेकिन छत्तीसगढ़ के विधायक अर्जुन सिंह के ही चेले अजीत जोगी को पसंद नहीं करते थे, इसलिए उनके पास विद्याचरण शुक्ल के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। सोनिया गांधी ने जब अजीत जोगी के सिर पर हाथ रख दिया, तो उनके सारे विरोधियों को शांत होना पडा। विद्याचरण शुक्ल को लगा कि अब उनका कांग्रेस में कोई भविष्य नहीं है, इसलिए उन्होंने पहले एनसीपी, फिर भाजपा, फिर एनसीपी की राह पकड़ ली। सब जगह से होकर विद्याचरण शुक्ल अब फिर इस उम्मीद से कांग्रेस में आए थे कि अजीत जोगी का सितारा डूब रहा है, इसलिए छत्तीसगढ़ की राजनीति में उनका दबदबा हो जाएगा। लेकिन ऐसा लगता है कि अजीत जोगी को एक बार फिर सोनिया का आशीर्वाद हासिल हो गया है और वही मुख्यमंत्री पद के दावेदार होकर उभर रहे हैं। टिकटों का बंटवारा एक-दो दिनों में होने वाला है, स्क्रीनिंग कमेटी अपना काम निपटा चुकी है, जिसमें अजीत जोगी अपने समर्थकों को टिकट दिलाने में कामयाब होते दिखाई दे रहे हैं। अजीत जोगी इस बार अपनी विधायक पत्नी, बेटे अमित के साथ-साथ खुद भी चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं। देखना यह है कि क्या सोनिया गांधी एक ही परिवार के तीन सदस्यों को टिकट देने की हरी झंडी देंगी।

अजीत जोगी के मुख्यमंत्रित्व काल में छत्तीसगढ़ के पहले चुनाव 2003 में हुए, तो विद्याचरण शुक्ल एनसीपी की तरफ से नेता थे। विधानसभा चुनावों में भाजपा को 50 और कांग्रेस को 37 सीटें मिली, बहुजन समाजपार्टी को दो और एनसीपी को सिर्फ एक सीट मिली। विद्याचरण शुक्ल इस बीच भाजपा और एनसीपी के चक्कर काटते हुए कांग्रेस में लौट चुके हैं और राज्य की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यों में से एक थे। स्क्रीनिंग कमेटी में अजीत जोगी विरोधियों की भरमार होने के बावजूद बीच-बीच में दस जनपथ के दखल के कारण वे जोगी का कुछ नहीं बिगाड़ पाए। सोनिया गांधी ने अजीत जोगी को छत्तीसगढ़ की चुनाव अभियान समिति के साथ-साथ चंदा इकट्ठा करने की जिम्मेदारी भी सौंप दी है। इससे सोनिया गांधी का अजीत जोगी के प्रति रुख साफ हो गया है और उनके विरोधी स्क्रीनिंग कमेटी की बैठकों के दौरान ही पस्त हो गए हैं। टिकटों के लिए शुरू में जो पैनल बना था उसमें जोगी खेमे के सभी विधायकों की सीटों पर दो या तीन टिकटार्थियों का नाम था। सीधे सोनिया गांधी से मुलाकात कर जोगी ने अपने समर्थक विधायकों के पैनल ठीक करवा लिए। स्क्रीनिंग कमेटी को मजबूर होकर जोगी खेमे के सभी विधायकों की सीटों पर सिर्फ उन्हीं के नाम की सिफारिश की है। अब सवाल यह है कि क्या सोनिया गांधी उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ने की इजाजत दे रही हैं। जोगी खेमे का कहना है कि सोनिया गांधी इजाजत दे चुकी हैं। इतना ही नहीं बिना कांग्रेस हाईकमान से पूछे जोगी मुख्यमंत्री रमण सिंह के मुकाबले चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके हैं। हालांकि अजीत जोगी का अपना निर्वाचन क्षेत्र मरवाही है और कांग्रेस की प्रदेश स्क्रीनिंग कमेटी ने वहीं से उनके नाम की सिफारिश की है। मरवाही से सिर्फ अजीत जोगी का नाम होने से लगता है कि सोनिया गांधी उन्हें चुनाव लड़ने की इजाजत दे चुकी हैं जिसकी जानकारी स्क्रीनिंग कमेटी को भी होगी। तो क्या अजीत जोगी की पत्नी और बेटे के साथ-साथ उन्हें खुद को दो सीटों पर चुनाव लड़ने की इजाजत मिलेगी। उनकी पत्नी तो अभी भी विधायक हैं, वह अपने बेटे अमित को राजनीति में स्थापित करने के लिए ज्यादा उतावले हैं, इसलिए अगर केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में ऐतराज हुआ, तो वह अपने बेटे के लिए खुद चुनाव मैदान से बाहर भी हो सकते हैं। अर्जुन सिंह के चेले अजीत जोगी को पता है कि बहुमत मिलने पर सोनिया गांधी उन्हीं को नेतृत्व सौँपेंगी और ऐसा होने पर वह किसी भी सीट से उपचुनाव लड़ लेंगे। मौजूदा स्थितियों के मुताबिक कांग्रेस का पलड़ा भारी दिखाई देता है, इसकी वजह यह है कि 2003 के विधानसभा चुनावों में सभी 90 सीटों पर भाजपा को राज्य में सिर्फ ढाई लाख वोट ज्यादा मिले थे। जबकि 2008 के विधानसभा चुनावों में साढ़े सोलह लाख नए वोटर हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस को भी सात फीसदी वोट मिले थे, जो अब कांग्रेस को मिलेंगे, इसके अलावा पांच साल के शासनकाल के बाद भाजपा के खिलाफ एंटीइनकंबेंसी का असर भी होगा।

हालांकि राजनीतिक पंडितों का अनुमान यह है कि पार्टी अजीत जोगी, उनकी पत्नी और बेटे तीनों को चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं देगी, इसके बावजूद अजीत जोगी दो जगहों से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। उनकी नजर मरवाही के अलावा रमण सिंह की सीट पर भी है। हालांकि रमण सिंह ने अभी ऐलान नहीं किया है, कि वह कहां से चुनाव लड़ेंगे। माना यह जा रहा है कि वह राजनंदगांव से चुनाव लड़ेंगे। बुधवार को अपने जन्मदिन पर रमण सिंह ने राजनंदगांव में रोड शो करके वहां से चुनाव लड़ने के संकेत दे दिए हैं। मजेदार बात यह है कि 2003 के विधानसभा चुनावों में भाजपा यह सीट 40 वोटों से हार गई थी। लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि प्रदीप गांधी की बर्खास्तगी के बाद लोकसभा का उपचुनाव होने पर जीते कांग्रेस के देवव्रत सिंह राजनंदगांव विधानसभा हल्के में बुरी तरह हारे। वैसे रमण सिंह फिलहाल  डोंगरगांव से विधायक हैं, जहां से प्रदीप गांधी ने अपनी सीट खाली करके सौंपी थी। रमण सिंह 1993 में अपनी कर्मस्थली कवर्धा से जीते थे, लेकिन 1998 में वहां हार गए, 2003 में भी वहां कांग्रेस जीती। इसलिए रमण सिंह वहां जाने की हिम्मत नहीं कर सकते। जहां तक उनके जन्मस्थल पंडरिया विधानसभा सीट का सवाल है तो पिछले तीन-चार बार से वहां कांग्रेस ही जीत रही है।

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