2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इतना जोरदार झटका लगा था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने दस साल तक कोई पद नहीं लेने का एलान कर दिया था। यह अलग बात है कि सोनिया गांधी ने जब उन्हें महासचिव की जिम्मेदारी सौंपी तो वह ठुकरा नहीं सके। कांग्रेस आलाकमान ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उन्हें जिम्मेदारी दी तो वह भी उन्होंने मध्यप्रदेश की तरह बाखूबी निभाई। कांग्रेस आलाकमान ने शायद अभी तक 2003 की हार का सलीके से विश्लेषण नहीं किया।
कांग्रेस महाकौशल में बुरी तरह हार गई थी, जहां हमेशा उसका गढ़ रहा था। कांग्रेस महाकौशल की 57 में से सिर्फ 11 सीटें जीत पाई थी। भाजपा की मालवा में भी वापसी हो गई थी, जो पहले हमेशा उसका गढ़ रहा था लेकिन 1993 के बाद से कांग्रेस का गढ़ बनना शुरू हो गया था। कांग्रेस को अगर कहीं थोड़ी बहुत सफलता मिली थी तो वह सिर्फ चम्बल के क्षेत्र में। इसका श्रेय दिग्विजय सिंह को कम माधवराव सिंधिया की विरासत को ज्यादा दिया जा सकता है। चार जिलों को छोड़कर बाकी सारे प्रदेश में कांग्रेस का वोट बैंक खिसक गया था। नतीजा यह निकला कि जहां कांग्रेस और भाजपा में सिर्फ डेढ़-दो फीसदी वोटों का फर्क रहता था वह 2003 में बढ़कर दस फीसदी हो गया था। कांग्रेस ने 1998 के विधानसभा चुनावों में जिन वोटरों को अपने पक्ष में किया था उनमें से सिर्फ 59 फीसदी ही 2003 में कांग्रेस के पक्ष में रह गए थे। अपने 41 फीसदी वोटरों को खफा करके कोई भी राजनीतिक दल दुबारा जनादेश हासिल नहीं कर सकता। राजनीतिक दलों को एक बात का हमेशा ख्याल रखना चाहिए कि अस्सी-पिचासी फीसदी मतदाता उम्मीदवार, जातीय समीकरण और मौजूदा विधायक या सांसद का काम-व्यवहार देखकर अपने वोट का फैसला करता था। सिर्फ पंद्रह-बीस फीसदी वोटर ही पार्टी के प्रति प्रतिबध्द होता था। यानी एंटी इनकंबेंसी सिर्फ सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ नहीं होती बल्कि विधायक और सांसद के खिलाफ उससे कहीं ज्यादा होती है। मध्य प्रदेश में दस साल तक कांग्रेस का राज रहा था, 2003 में पूरे प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ हवा थी, लेकिन उसका मतलब यह नहीं था कि भाजपाई विधायकों के खिलाफ हवा नहीं थी। कांग्रेस के खिलाफ और भाजपा के पक्ष में हवा होने के बावजूद 1998 में भाजपा को वोट देने वाले 14 फीसदी वोटरों ने अपना मन बदल लिया था। यानी भाजपा 1998 के हासिल मतदाताओं में से 86 फीसदी अपना पक्ष में रख सकी थी। यह दर्शाता है कि पार्टी के पक्ष में हवा होने के बावजूद कई जगहों पर मतदाता अपने विधायकों से नाराज थे।
नरेंद्र मोदी ने गुजरात विधानसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर विधायकों के टिकट काटकर सरकार के खिलाफ बनी एंटी इनकंबेंसी की हवा का मुंह मोड़ने में सफलता हासिल करके नया रास्ता दिखाया है। इसलिए भाजपा की पिछली संसदीय बोर्ड बैठक में लालकृष्ण आडवाणी ने मध्यप्रदेश की एंटी इनकंबेंसी का जिक्र करते हुए सीटिंग-गेटिंग के फार्मूले को सहज मंजूर न करने की बात कही थी। भाजपा मध्य प्रदेश और राजस्थान में खासकर गुजरात फार्मूला अपनाना चाहती है। इसलिए इन दोनों राज्यों में पचास फीसदी तक मौजूदा विधायकों के टिकट काटकर एंटी इनकंबेंसी का मुकाबला किया जा सकता है लेकिन यह बात व्यवहारिक रूप से कितनी कामयाब होती है, यह देखना होगा। राजस्थान में तो 40 से 50 फीसदी तक टिकटें बदली जा सकती हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में यह इतना आसान नहीं होगा। मध्यप्रदेश में जीतने वाले उम्मीदवार का पैमाना बनाया गया तो बुधनी के वोटर मुख्यमंत्री शिवराज चौहान से कम खफा नहीं हैं। शिवराज सिंह के भाई और पत्नी के बिजनेस ने उनकी छवि को तो नुकसान पहुंचाया ही है, उनके वोट बैंक को भी खफा किया है। हालांकि भाजपा आलाकमान में अरुण जेटली जैसे नेता भी हैं, जिनका मानना है कि शुरू में ही उमा भारती की जगह शिवराज चौहान को मुख्यमंत्री बनाया जाता तो मध्यप्रदेश आदर्श राज्य बन सकता था। बाबू लाल गौड़ के प्रयोग को भाजपा अपनी ऐसी मजबूरी बताती है जिसे उमा भारती की जिद्द के चलते टालना मुश्किल हो गया था। उमा भारती आज भी भाजपा का बड़ा संकट है, व्यक्तिगत एंटी इनकंबेंसी के बावजूद भाजपा के विधायक टिकट बचाने में कामयाब हो जाएंगे तो उसकी वजह भी उमा भारती होंगी क्योंकि भाजपा आलाकमान को डर है कि टिकट कटने वाले उमा भारती के पाले में जाकर भाजपा को नुकसान पहुंचाएंगे।
पिछले विधानसभा चुनावो में उमा भारती को प्रोजेक्ट करने का भाजपा को फायदा हुआ था। उमा भारती ओबीसी से ताल्लुक रखती हैं और अपनी जाति का मुख्यमंत्री बनाने की लालसा में मूल रूप से कांग्रेस का वोट बैंक खिसक कर भाजपा की झोली में चला गया था। चुनावी विश्लेषण यह था कि करीब 50 फीसदी ओबीसी वोट भाजपा के पाले में चला गया था और कांग्रेस को सिर्फ 26 फीसदी ओबीसी वोट ही मिले थे। उमा भारती इस समय भाजपा के खिलाफ हैं, लेकिन वह ओबीसी वोट बैंक पर दावा नहीं कर सकती क्योंकि भाजपा का मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी ओबीसी है और भाजपा इस बार भी ओबीसी मुख्यमंत्री को प्रोजेक्ट करके चुनाव मैदान में उतर रही है। इस बार उमा भारती का मुख्य लक्ष्य भाजपा को हराकर कांग्रेस को सत्ता सौंपना है ताकि वह भाजपा से बदला ले सके। भाजपा से बदला लेने के लिए वह मायावती से हाथ मिलाने को तैयार हो गई है। पिछले दिनों उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी के बजाए मायावती को प्रधानमंत्री बनवाने का बीड़ा उठाने का बयान दिया है। जहां तक मायावती की बसपा का सवाल है तो वह दिल्ली और राजस्थान में भले ही कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगी, लेकिन मध्य प्रदेश में उसका वोट बैंक बढ़ने से भाजपा को ही नुकसान होगा। उमा भारती और मायावती दोनों ही भाजपा को नुकसान पहुंचाने और कांग्रेस को फायदा पहुंचाने का काम कर सकती हैं। उमा भारती का पिछड़े वोट बैंक पर आज भी प्रभाव है तो मायावती अनुसूचित जाति के साथ-साथ मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजाति में पैठ बना रही है। मध्य प्रदेश का आदिवासी बसपा की तरफ मुंह कर रहा है। यहां महत्वपूर्ण यह है कि मध्यप्रदेश की 39 आदिवासी और 16-17 दलित सीटें भाजपा के पास हैं। मायावती की दलितों के साथ-साथ आदिवासियों में घुसपैठ कामयाब हो गई तो सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा का ही होगा। चुनाव आते-आते मायावती को बसपा के प्रभाव से कांग्रेस की लाटरी खुलने का आभास हो गया और उसने अंदरखाने कुछ सीटों पर भाजपा से तालमेल कर लिया तो स्थिति एकदम बदल जाएगी, लेकिन फिलहाल तो ऐसी कहीं कोई बात नहीं है।
भाजपा ने अपने दो चुनावी सर्वेक्षणों में पाया है कि उसकी सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी उतनी नहीं है जितनी उसके विधायकों और कुछ मंत्रियों के खिलाफ है। भाजपा को अपने विधायकों-मंत्रियों की एंटी इनकंबेंसी के साथ-साथ अपने दलित-आदिवासी वोट बैंक की एंटी इनकंबेंसी का संतुलन भी बनाना पड़ेगा जबकि कांग्रेस के नेता एंटी इनकंबेंसी का मतलब समझने में अभी राजनीतिक तौर पर काफी पिछड़े हुए हैं। कांग्रेस ने गोपाल सिंह चौहान, श्रीमती सुनीता बेले और उम्मेद सिंह बना को छोड़कर बाकी सभी विधायकों को टिकट देने का मोटे तौर पर फैसला कर लिया है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के अपने 1998 के वोट बैंक में 14 फीसदी की गिरावट इस बात का सबूत है कि एंटी इनकंबेंसी सिर्फ सत्ताधारी विधायकों के खिलाफ ही नहीं अलबत्ता विपक्षी दलों के खिलाफ भी काम करती है। मौजूदा विधायकों को टिकट दिलाने में दिग्विजय सिंह की अहम भूमिका रही है, अब उनके विरोधी इस पर सवाल उठा रहे हैं। असल में कांग्रेस के मौजूदा 40 विधायकों में से 22 ठाकुर हैं, दिग्विजय सिंह के एक तीर से 22 ठाकुरों को तो टिकट मिल ही गया है, अब नेताओं के कोटे में 10-12 ठाकुर और टिकट लेने में कामयाब रहे तो ठाकुर मुख्यमंत्री बनाने में आसानी रहेगी। लेकिन विधायकों के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी का इतिहास देखा जाए तो कांग्रेस के मौजूदा विधायकों में से आधे ही मुश्किल से जीत पाएंगे। कांग्रेस को अपने विधायकों की एंटी इनकंबेंसी के साथ-साथ केंद्र सरकार की एंटी इनकंबेंसी का सामना भी करना पड़ेगा। आतंकवाद पर कांग्रेस पार्टी के नेताओं के रुख से भी जनता उससे बेहद खफा है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले बाटला हाऊस मुठभेड़ की जांच की मांग करने से मध्यप्रदेश के कांग्रेसी नेता हतप्रद हैं। मध्यप्रदेश में उन्हीं के कार्यकाल में सिमी ने अपने सलीपिंग सेल बना लिए थे, जिसका भंडाफोड़ शिवराज चौहान सरकार में हुआ है। आतंकवाद पर कांग्रेस के रुख की एंटी इनकंबेंसी का खामियाजा विधानसभा चुनावों में कांग्रेसी उम्मीदवारों को भुगतना पड़ेगा। साथ में महंगाई का ठीकरा भी कांग्रेसी उम्मीदवारों के सिर पर फूटेगा।
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