अमेरिकी सीनेट ने एटमी करार को हरी झंडी क्या दी। यूपीए सरकार और कांग्रेस फूली नहीं समाई। खुशी के मारे झूठ के फव्वारे फूट गए। सिर्फ अभिषेक मनु सिंघवी झूठ बोलते। तो अपन को पच भी जाता। नेताओं का तो काम ही झूठ बोलना। पर अपने सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन भी झूठ बोले। ऐसा झूठ नहीं बोलना चाहिए, जो फौरन पकड़ा जाए। सिंघवी बोले- 'यह त्यौहार मनाने का मौका। एनपीटी-सीटीबीटी पर दस्तखत भी नहीं किए। न्यूक्लियर क्लब में शामिल भी हो गए।'
हू-ब-हू वैसा ही नारायणन बोले। कहा- 'दुनिया ने अब भारत को परमाणु शक्ति की मान्यता दे दी।' ना तो दुनिया ने अपन को परमाणु शक्ति की मान्यता दी। न उस क्लब का मेंबर बनाया। अलबत्ता हमेशा के लिए दरवाजे बंद कर दिए। सिंघवी के नॉलेज को अपन चुनौती नहीं देते। पर अपन तीन ही संस्थाओं के वाकिफ। पहली- 'आईएईए- इंटरनेशनल एटोमिक एनर्जी एजेंसी।' तो अपन पहले से इसके मेंबर। दूसरी- 'एनएसजी- न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रप।' अपन खरीददार हैं, सप्लायर नहीं। सो मेंबर बनेंगे कैसे। बने भी नहीं। सिंघवी शायद उस क्लब की बात कर रहे होंगे। जिसमें अमेरिका, फ्रांस, रूस, चीन, ब्रिटेन मेंबर। यही है तीसरी और असली शक्तिशाली संस्था। जिसे कहते हैं- संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद। देश को परमाणु शक्ति बनाकर इसी की मेंबरी पर वाजपेयी अड़े थे। तभी तो जसवंत-टालबोट बात सिरे नहीं चढ़ी। बुश ने मनमोहन को दो टूक शब्दों में कह दिया- 'जो पहली जनवरी 1967 से पहले एटम बम बना चुका हो। उसे ही मिल सकती है इस क्लब की मेंबरी।' नारायणन और सिंघवी ने झूठ क्यों बोला। अपन नहीं जानते। पर इस सवाल का जवाब मनमोहन राज्यसभा में दे चुके। उनने साफ-साफ कहा था- 'करार में भारत को परमाणु शक्ति का दर्जा नहीं मिलेगा।' सो सिंघवी और नारायणन को नाचने-कूदने की कोई जरूरत नहीं। निकोलस बर्न ने अमेरिकी कांग्रेस में साफ-साफ कहा था- 'करार से भारत एनपीटी-सीटीबीटी के दायरे में आ जाएगा।' बुश ने मनमोहन से कोई छलावा नहीं किया। छलावा सिर्फ मनमोहन ने भारत के साथ किया। तीन अगस्त 2007 को वन-टू-थ्री का ड्राफ्ट जारी हुआ। ड्राफ्ट की दूसरी धारा में ही साफ लिखा है- 'हर पक्ष इस समझौते को अपने देश के कानूनों और नियमों के मुताबिक लागू करेगा।' इसी से साफ था- अमेरिका करार को हाईड एक्ट और 1954 के अपने परमाणु ऊर्जा एक्ट के मुताबिक लागू करेगा। पर मनमोहन-प्रणव दा संसद को यह कहकर गुमराह करते रहे- हाईड एक्ट लागू नहीं होगा। यों निकोलस बर्न ने उसी समय कहा था- 'भारत या कोई और देश परमाणु विस्फोट करेगा। तो 1954 के परमाणु ऊर्जा कानून के तहत कार्रवाई करेंगे। जिसमें ईंधन-तकनीक वापस लेने का हक।' फिर भी मनमोहन ने तेरह अगस्त 2007 को संसद में कहा था- 'न्यूक्लियर फ्यूल सप्लाई की पूरी गारंटी होगी। हम रिएक्टरों के लिए फ्यूल भंडारण कर सकेंगे। भारत की स्वायत्तता गिरवी नहीं रखी। हमें न्यूक टेस्ट का हक बरकरार रहेगा।' अमेरिकी प्रवक्ता सीन मैककार्मेक ने तभी मनमोहन के दावे की धज्जियां उड़ा दी थीं। अब मनमोहन की सभी बातें गलत साबित हुई। भारत को फ्यूल सप्लाई की गारंटी नहीं मिली। जिंदगीभर के फ्यूल भंडारण का वादा नहीं मिला। बुश प्रशासन ने सीनेट और कांग्रेस को लिखकर दिया- 'भारत ने न्यूक टेस्ट किया। तो कार्रवाई होगी। सप्लाई फौरन रुकेगी। एनएसजी देशों से भी कहा जाएगा- सप्लाई रोको।' कोंडालीसा राइस ने तो बुधवार को भी कहा- 'न्यूक टेस्ट करने पर भारत को गंभीर नतीजे भुगतने पड़ेंगे।' वही कोंडालीसा कल आ रही हैं करार पर दस्तखत करने। बुश के दोनों हाथों में लड्डू। लड़खड़ाती अमेरिकी अर्थव्यवस्था अपने पैसों से सुधरेगी। मनमोहन के दोनों हाथ खाली। अपनी स्वायत्तता गिरवी, अपनी सुरक्षा दांव पर, अपनी जेब पर अमेरिकी हक।
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