सिरीफोर्ट की सैर करते अरुण जेटली से बात हुई। जेटली पोटा के सबसे बड़े पैरवीकार। जेटली की पैरवी पर ही आडवाणी ने सौ दिन में पोटा का वादा किया। जेटली ने माना- 'पोटा से आतंकवाद नहीं रुकेगा। पर पोटा से छानबीन में तेजी आएगी। जिससे कानूनी प्रक्रिया में तेजी आएगी।' गुरुवार को बुध्दिजीवी सख्त कानून की पैरवी में सामने आए। पोटा की पैरवी सोली सोराबजी, जी. पार्थसारथी ने भी की। अजीत डावोल, जनरल साहनी, चीफ मार्शल त्यागी और एमजे अकबर ने भी की। पर सबसे ज्यादा पोटा की पैरवी नरेंद्र मोदी ने की।
बेंगलुरु वर्किंग कमेटी में मोदी आतंकवाद के खिलाफ चेहरा बनकर उभरे। चेहरे से अपन को गोविंदाचार्या याद आ गए। ब्रिटिश डेलीगेशन गोविंदाचार्या से मिला था। तो उनने बीजेपी के सत्ता में आने का गणित समझाया। डेलीगेशन ने आडवाणी के 'हार्ड लाइनर' होने पर सवाल उठाया। पूछा- 'बीजेपी को लोग कैसे कबूल करेंगे?' तो गोविंदाचार्या ने कहा था- 'वाजपेयी इज अवर फेस।' अपन ने जितनी भी डिक्शनरियां देखी। उसमें अपन ने 'फेस' की हिंदी 'चेहरा' ही पाया। पर भानुप्रताप शुक्ल ने चेहरे की बजाए मुखौटा शब्द का इस्तेमाल किया। वाजपेयी इससे इतना चिढ़ गए। आखिर गोविंदाचार्या को बाहर का रास्ता दिखा दिया। पर अपन बात कर रहे थे बीजेपी के नए हार्ड लाइनर चेहरे की। जिसका जिक्र अपन ने पंद्रह सितंबर को किया ही था। अब आज जब करोलबाग में आतंकवाद के खिलाफ रैली होगी। तो नरेंद्र मोदी सरकार की सीटी-पीटी गुल करेंगे। बीजेपी ने विस्फोट वाली जगह ही रैली के लिए चुनी। ताकि आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का माद्दा दिखाई दे। कांग्रेस की तरह लुंज-पुंज नहीं। जो पोटा जैसे सख्त कानून की हिम्मत नहीं जुटा पा रही। रासुका को ही धो-पोंछकर थोड़ा-बहुता सख्त करने की कवायद। केबिनेट की ब्रीफिंग करते प्रियरंजन दासमुंशी बोले- 'पोटा वापस लाने का कोई इरादा नहीं।' दूसरी तरफ यह बात अब शीशे की तरह साफ होने लगी। आडवाणी पीएम हुए, तो नरेंद्र मोदी होम मिनिस्टर होंगे। मोदी ने कुछ दिनों में आतंकियों का सुराग लगाकर दिखा दिया। अपने शिवराज पाटिल तो जलेबी जैसा भाषण देने में ही माहिर। शिवराज पाटिल की बात चली। तो अपन पाटिल पर मोहन धारिया का ख्याल भी बता दें। उनने कहा है- 'पाटिल को होम मिनिस्टर बनाना ही नहीं चाहिए था। वह तो शिक्षा, विज्ञान, टेक्नोलॉजी जैसे मंत्रालय में रहते। तो ठीक रहता। उनमें प्रशासनिक क्वालिटी तो जरा भी नहीं।' ताकि सनद रहे सो बता दें- राजनीति में पाटिल की खोज मोहन धारिया ने ही की थी। बात है 1967 की। मोहन धारिया तब कांग्रेस में हुआ करते थे। अपन उसी 'यंग टर्क' मोहन धारिया की बात कर रहे हैं। जिनने चंद्रशेखर-कृष्णकांत के साथ मिलकर इंदिरा के खिलाफ बगावत की थी। कांग्रेस ने लातूर में नया उम्मीदवार चुनना तय किया। मोहन धारिया की डयूटी लगाई गई। पाटिल वकील थे, होमगार्ड में थे, कांग्रेस के चवन्नी छाप मेंबर थे। धारिया ने पाटिल से बात की। तो पाटिल ने कहा- 'राजनीति मेरे बस का रोग नहीं।' धारिया ने जोर दिया। तो पाटिल ने कहा- 'मेरे माता-पिता से बात कर लो।' माता-पिता ने सुना, तो फौरन इंकार कर दिया। कहा- 'हम ठहरे कर्नाटक के लिंगायत। मराठों में हमारी क्या बिसात।' पर धारिया अड़ गए, सो पाटिल चुनाव लड़ गए। जीत भी गए। फिर 1980 में सांसद हो गए। इंदिरा गांधी के परिवार में घुस गए। इस बार हार गए, फिर भी पारिवारिक वफादारी ने होम मिनिस्टर बना दिया। अब मोहन धारिया से ज्यादा तो पाटिल को कोई नहीं जानता होगा। वही पाटिल जब संसद के हमलावर अफजल की पैरवी करते दिखे। तो मोहन धारिया भी परेशान हुए। सिर्फ मोहन धारिया नहीं, ऐसे होम मिनिस्टर से पूरा देश परेशान। यह यूपीए सरकार की लुंज-पुंज नीतियों का ही नतीजा। जो देश आतंकवादियों की तुष्टिकरण को देख रहा है। मनमोहन को अपनी गलत नीतियों का अहसास। फिर भी पोटा वापस लाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही सरकार। डर है- कहीं बीजेपी को फायदा न हो जाए। वोट बैंक की राजनीति ने अपन को कहां ला पटका।
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