अपनी बातें रह-रहकर सही साबित हुई। अपने पुराने पाठक जानते होंगे। अपन ने हाईड एक्ट को भारत विरोधी बताया था। मनमोहन-प्रणव ने भी इसे माना। पर संसद में भरोसा दिया- 'हाईड एक्ट हम पर लागू नहीं होगा। वन-टू-थ्री ड्राफ्ट का इंतजार करिए।' पर तीन अगस्त 2007 की रात वन-टू-थ्री का ड्राफ्ट आने वाला था। तो नारायणन और मेनन अटल-आडवाणी से मिले। ड्राफ्ट भारत के माकूल नहीं था।
उसमें भी साफ था- 'अपनी सुरक्षा और ऊर्जा अमेरिका की मोहताज।' करार के ड्राफ्ट की परतें उधड़ी। तो संसद में जमकर हंगामा हुआ। प्रणव दा ने सोलह अगस्त 2007 को लोकसभा में कहा- 'हाईड एक्ट में जो कुछ कहा गया। वह हम पर बाध्यकारी नहीं। अमेरिकी प्रशासन एक्ट से कैसे निपटेगा यह उनकी सिरदर्दी, हमारी नहीं।' यह हाईड एक्ट ही है- जिसके तहत बुश सरकार को अपन से करार की इजाजत मिली। अपन जरा करार पर रोशनी डाल दें। अमेरिका का एटमी ऊर्जा ईंधन कानून 1954 में बना। तब सीटीबीटी-एनपीटी नहीं थी। बाद में बने। तो कानून और कड़ा हुआ। इसी की धारा वन-टू-थ्री के तहत होता है एटमी करार। पर करार सिर्फ उसी देश से होगा- जिसने सीटीबीटी-एनपीटी पर दस्तखत किए हाें। अपन ने दस्तखत नहीं किए। सो बुश को हाईड एक्ट बनाकर करार की इजाजत लेनी पड़ी। हाईड एक्ट की धारा-103 में कहा गया- 'भारत को ईरान के एटमी प्रोग्राम रोकने में मदद देनी होगी। भारत फिजाइल मेटीरियल का उत्पादन बंद करेगा। अमेरिका एटमी हथियारों के विकास पर रोक लगाएगा।' पर अगले ही दिन 17 अगस्त को अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सीन मेककार्मक बोले- 'आपको वन-टू-थ्री एक्ट का तो पता ही है। उसमें अमेरिकी राष्ट्रपति को हक है- अगर कोई न्यूक टेस्ट करे। तो वह कार्रवाई कर सकता है।' मनमोहन-प्रणव संसद में जो चाहे बयान दें। मुलायम सिंह को सच्चा-झूठा भरोसा देकर बरगला लें। पर सच छुप नहीं सकता। अपन याद दिला दें- हाईड एक्ट अमेरिकी कांग्रेस में पेश हुआ। तो अमेरिकी कांग्रेस तैयार नहीं थी। अमेरिकी कांग्रेस में बुश को बहुमत भी नहीं था। तब विदेश उपमंत्री निकोलस बर्न पेश हुए। उनने अमेरिकी कांग्रेस में कहा- 'भारत से एटमी करार एनपीटी पर दस्तखत करने जैसा ही।' हाईड एक्ट तो बन गया। अपने यहां उठे बवाल को भी मनमोहन-प्रणव ने संभाल लिया। तब लेफ्ट एनडीए को धोखा न देता। तो करार पर संसद की ब्रेक लग जाती। पर जब मनमोहन ने सबको निपटा दिया। तो अमेरिकी कांग्रेस से आखिरी मुहर लगवाने के लिए बुश ने चिट्ठी लिखी। चिट्ठी बुश लिखें, या बुश प्रशासन। बात एक ही। वही सोलह जनवरी 2008 की चिट्ठी अब सामने आई। यों चिट्ठी में नया कुछ नहीं। ऐसा कुछ नहीं, जो बुश के सेक्रेट्रियों ने पहले न कहा हो। अपन ने निकोलस बर्न का बयान याद दिलाया। सीन मैककार्मक का बयान याद दिलाया। अपन 31 जुलाई 2008 का बर्न का बयान भी याद दिला दें। पहली अगस्त को आईएईए करार से ठीक एक दिन पहले। उनने दोहराया- 'भारत ने न्यूक्लियर टेस्ट किया। तो हाईड एक्ट के तहत करार खत्म होगा। दुबारा सारे प्रतिबंध लगेंगे।' सो बुश प्रशासन की ताजा चिट्ठी में कुछ नया नहीं। नया है तो सिर्फ इतना- 'बार-बार सबूत आ रहे हैं- मनमोहन, प्रणव ने दर्जनों बार संसद में झूठ बोला। देश को झूठ बोलकर गुमराह किया।' नए खुलासे से मुलायम बेबस, लाचार, हताश और ठगे से दिखे। लेफ्ट-बीजेपी फिर भड़के। मनमोहन से इस्तीफा मांगा। मनमोहन पहले घबराए। नारायणन-काकोड़कर-मेनन-प्रणव को बुलाया। काकोड़कर से बयान दिलाया- 'हमारे एटमी प्रोग्राम पर कोई असर नहीं होगा।' क्या सौ बार बोला गया झूठ सच हो जाता है? सच तो सामने आ गया। जब काकोड़कर बोले- 'चिट्ठी का मुझे पता था। पर चिट्ठी क्लासीफाइड थी। नहीं पता था, ऐसे मौके पर जारी कर दी जाएगी। जब एनएसजी फैसला कर रही होगी।' पर मनमोहन इस झटके से भी नहीं संभले। फिर वही करार को हर हालत में सिरे चढ़ाने का फैसला। इंदिरा देश को एटमी ताकत बनाना चाहती थीं। वाजपेयी देश को सुरक्षा परिषद की सीट तक ले गए। मनमोहन ने सारा गुड़ गोबर कर दिया। अमेरिका का मोहताज बनाकर रहेंगे देश को।
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