बड़ा ख्वाब देखने में कोई हर्ज नहीं। ख्वाब देखों, तो बड़ा देखो। सो, कांग्रेस फिर बड़े-बड़े ख्वाब देखने लगी। पहले 1998 में पचमढ़ी में ख्वाब देखा था। तब तय किया था- 'कांग्रेस गठजोड़ की राजनीति नहीं करेगी।' असल में तब कांशीराम ने ताजा-ताजा झटका दिया था। सीताराम केसरी से चुनावी गठजोड़ किया। जीतकर बीजेपी की गोदी में जा बैठे। पर 1999 में सरकार बनाने का ख्वाब टूटा। तो सोनिया ने पांच साल बाद शिमला में पचमढ़ी का फैसला पलट दिया।
तीर निशाने पर लगा। मई 2004 में सत्ता आ गई। घमंड फिर सिर चढ़कर बोलने लगी। हैदराबाद का जनवरी 2006 अधिवेशन अपन को याद। जब राहुल बाबा को प्रोजेक्ट किया गया। राहुल लाओ, देश बचाओ के नारे लगे। तब कहा गया- 'जहां कांग्रेस का गठबंधन है, वहां कांग्रेस को अपनी ताकत बढ़ाने का हक।' यह कोशिश कांग्रेस ने बिहार और यूपी में करके देखी। यूपी में मुलायम को भाव नहीं दिया। बिहार में लालू यादव को। यूपी-बिहार दोनों में यूपीए कुनबा डूब गया। अब यूपी में बीएसपी सरकार, बिहार में एनडीए। वैसे कांग्रेस का घमंड तो पंजाब, हिमाचल, उतराखंड, कर्नाटक में भी टूटा। सो अब कांग्रेस फिर जमीन पर। यूपी में मुलायम से गठजोड की कोशिशें। पर ख्वाब फिर वही बड़ा, घमंड फिर वही। सोमवार को कांग्रेस-सपा गोलमेज हुई। तो अपने दिग्गी राजा ने मुंह खोल लिया। लोकसभा की पैंतीस सीटें मांग ली। अमर सिंह ने भी महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, कर्नाटक में पैंतीस सीटें मांग ली। दिग्गी राजा को काटो तो खून नहीं। मीटिंग खत्म हुई। तो खबरचियों के सामने बोले- 'कांग्रेस ने अपनी औकात से ज्यादा मुंह खोल लिया। तो मैंने भी इन राज्यों में दावा ठोक दिया।' कांग्रेस की खिल्ली औकात बताकर उड़ाई। तो दिग्गी राजा को निजी तौर पर भी नहीं बख्शा। बोले- 'दिग्विजय को तो बाकी राज्यों में सीटों के फैसले का हक नहीं। पर राहुल गांधी बैठे थे, सो मैंने दांव चल दिया।' यों बाद में दिग्गी राजा ने दावा किया- 'ज्यादातर सीटों पर सहमति हो गई।' पर अपन को सहमति नहीं दिखी। सहमति हुई होती। तो अमर सिंह यह न कहते- 'गठजोड़ नहीं हुआ। तो हम सोनिया-राहुल की सीटों पर विरोध नहीं करेंगे।' खैर अगली बात आठ को होगी। तब तक एटमी करार पर एनएसजी फैसला कर चुकी होगी। करार की बात चली तो बताते जाएं। एनएसजी देशों को जो नया ड्राफ्ट भेजा गया। देश के सामने तो वह पूरी तरह गुप्त। पर सोनिया को दिखाकर भेजा। आईएईए का ड्राफ्ट सरकार ने यह कहकर लेफ्ट से छुपाया था- 'गोपनीय दस्तावेज नहीं दिखा सकते।' यों बताते जाएं- अमेरीकी धमकी के बावजूद मुखालफत खत्म नहीं हुई। बाकी तो चार-पांच को पता चलेगा। वैसे अपने सुरक्षा सलाहकार नारायणन ने इशारा कर दिया- 'एनएसजी ने हद पार की, तो करार नहीं होगा।' पर अपन बात कर रहे थे कांग्रेस-सपा गठजोड़ की। यों उससे भी बड़ा सवाल यह- 'क्या इस बार चुनाव में सेक्युलरिज्म काम आएगा?' यूपीए के सेक्युलरिज्म का घिनौना रूप सामने आने लगा। लालू-पासवान ने सिमी की खुली वकालत की। अब पासवान ने बांग्लादेशी घुसपैठियों को नागरिकता की वकालत कर दी। क्या कोई मंत्री संविधान-सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ जा सकता है? ऐसा करके भी क्या कोई मंत्री रह सकता है? पर मनमोहन सरकार में सब कुछ संभव। शायद कांग्रेस देश की नब्ज समझ नहीं पा रही। गुजरात से सबक नहीं लिया, सो नहीं लिया। कम से कम आगे तो सुध ले। गुजरात के बाद जम्मू और उड़ीसा में जैसे लोग खड़े हुए। उससे साफ दिखा- लोगों के सब्र का प्याला अब भर चुका। दोनों जगह कांग्रेस की सेक्युलरिज्म से हिंदू विरोध झलका था। कांग्रेस समझदार होती, तो जम्मू से नब्ज टटोल लेती। मनमोहन सिंह ने सोमवार को उड़ीसा में नया दांव चला। ईसाईयों के लिए राहत पैकेज का ऐलान कर दिया। ईसाई इमारतें अब प्रधानमंत्री कोष से बनेंगी। जम्मू कश्मीर में मुस्लिम तुष्टिकरण का स्वाद चख चुके। अब उड़ीसा में ईसाई तुष्टिकरण का स्वाद चखेंगे।
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