तो मुशर्रफ जुगाड़ नहीं कर पाए एबस्टेन का

Publsihed: 19.Aug.2008, 07:10

परवेज मुशर्रफ को जाना पड़ा। जाना नहीं चाहते थे। भले ही उनने राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा- 'महाभियोग में मैं हारूं, या जीतूं। हार देश की होती। तो मैं इस्तीफा दे रहा हूं।' परवेज मुशर्रफ भले ही अब कुछ कहें। कितना ही जम्हूरियत प्रेमी होने का दावा करें। पर असलियत किसी से छिपी नहीं। मुशर्रफ की नीयत में शुरू से खोट था। नीयत में खोट न होता। तो भंग हो रही असेंबलियों से खुद को न चुनवाते।

पहले नेशनल असेंबली का चुनाव हो जाने देते। चारों स्टेट असेंबलियों का चुनाव भी हो जाने देते। मुशर्रफ को पता था- आवाम उसके हक में नहीं। इसीलिए उनने जम्हूरियत से धोखाधड़ी की। वह राष्ट्रपति पद पर चिपके रहना चाहते थे। ऐसा न होता, तो चुनाव नतीजों के फौरन बाद इस्तीफा दे देते। उनने तो सुप्रीम कोर्ट में वादा भी किया था- 'नई नेशनल असेंबली से अपने चुने जाने पर मोहर लगवाऊंगा।' पर चुनाव नतीजों के बाद मुकर गए। चारों स्टेट असेंबलियों ने प्रस्ताव पास करके कहा- 'इस्तीफा दो, या नेशनल असेंबली से विश्वास मत लो।' तब भी पद पर चिपके रहे। जुगाड़ भिड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उम्मीद लगाए बैठे थे- जैसे मनमोहन सिंह ने विपक्ष के सांसदों में सेंध लगा ली। वैसे ही वह भी पीपीपी-पीएमएल-नेशनल आवामी लीग में सेंध लगा लेंगे। पर हुआ उलटा। पीएमएल में फूट डालकर जो पार्टी बनाई थी। आखिरी वक्त पर वह भी साथ छोड़ गई। जिस फौज में चालीस साल बिताए। जिस जनरल कियानी को अपनी जगह पर फौज का रहनुमा बनाया। वह भी हाथ खड़े कर गया। अपन को तारीफ करनी पड़ेगी जनरल कियानी की। जिनने पाकिस्तान में पहली बार जम्हूरियत का परचम लहराया। वरना अब तक फौजी जम्हूरियत को कुचलते रहे। पाकिस्तान के चार फौजी शासकों का जिक्र तो अपन ने शुक्रवार को किया ही था। जनरल जिया उल हक विमान हादसे में मारे गए। बाकी दो ने गुमनामी का बुढ़ापा बिताया। अब उसी गुमनामी के रास्ते पर जाएंगे जनरल मुशर्रफ। मुशर्रफ टर्की जाएंगे। या सउदी अरब जाएंगे। जब तक उड़ न जाएं तब तक कयास। यों टर्की में पहले ही घर बना रखा था। आखिरी वक्त पर अमरीका भी कितना साथ देता। अमरीका पहले भी किसी का कहां हुआ। जो अब होता। सो अमरीका से बयान आ गया- 'परवेज मुशर्रफ को शरण देने का अभी तक कोई विचार नहीं।' पर एक बात तो जाहिर हो गई। अमरीका जम्हूरियत विरोधी काम कर रहा था। मुशर्रफ का मददगार होना जम्हूरियत के खिलाफ था। पाकिस्तान का आवाम मुशर्रफ के कितना खिलाफ था। यह अंदाज तो शेयर मार्केट देखकर लगा लो। जैसे मुशर्रफ के इस्तीफे की खबर आई। शेयर मार्केट उछल गई। अब कयास लग रहे हैं- अगला राष्ट्रपति कौन होगा। क्या जरदारी होंगे। या जरदारी की बहन होगी। या कहीं नवाज शरीफ ही न हो जाएं। आखिर नवाज शरीफ ने मुशर्रफ से बदला तो ले ही लिया। जैसे मुशर्रफ ने बेआबरू करके नवाज शरीफ को निकाला था। अब वैसे ही बेआबरू होकर खुद निकल रहे हैं मुशर्रफ। क्या पता मुशर्रफ भी उसी सउदी अरब में जाएं। जहां नौ साल पहले नवाज शरीफ को भेजा था। यूं जनरल कियानी ने कहा है- 'मुशर्रफ की पूरी हिफाजत की जाएगी।' पर पाकिस्तान का एक तबका मुशर्रफ के खून का प्यासा। इस बात से मुशर्रफ भी पूरी तरह वाकिफ। अमरीका ने भी पाकिस्तान छोड़ने की सलाह तो दी ही होगी। अपन को बहादुरशाह जफर का वह शे'र याद आ गया। -'दो गज जमीं न मिली कूचे यार में।' मुशर्रफ की पाकिस्तान में करोड़ों अरबों की जायदाद। पर पाकिस्तान छोड़कर जाना पड़ेगा। शायद यही पाकिस्तानी शासकों की नियति। बेनजीर भुट्टो हो या नवाज शरीफ। और अब परवेज मुशर्रफ। बेनजीर लौटीं, तो मार दी गई। नवाज शरीफ पाकिस्तान के पहले नेता हो गए। जिनकी देश में वापसी भी हुई। राजनीति में वापसी भी। पर परवेज मुशर्रफ यह उम्मीद लगाकर न बैठें। आने वाला समय जरदारी परिवार खुद न सही, बेनजीर का बेटा बिलावल सिंह। जो इस मौके पर पाक लौट आया।

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