वोट-नोट की सियासत में मीडिया के भी जले हाथ

Publsihed: 01.Aug.2008, 06:18

पहले खुद स्टिंग आपरेशन में शामिल होकर पीछे हटने से सीएनएन-आईबीएन चैनल की विश्वसनीयता को भाजपा ने कटघरे में खड़ा कर दिया है। चैनल का बायकाट मीडिया को सियासत से दूर रखने पर सोचने के लिए बाध्य करे, तो मीडिया का ही भला होगा।

कांग्रेस ने लोकसभा में वोट की सियासत भले ही जीत ली हो, नोट की सियासत में अभी बुरी तरह उलझी हुई है। जिस तरह नोटों का बंडल दराज में रखते बंगारू लक्ष्मण भाजपा का पीछा नहीं छोड़ रहे, वैसे ही लोकसभा के टेबल पर रखी गई नोटों की गड्डियां कभी भी कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ेंगी।

कांग्रेस 1996 में सत्ता से बाहर हुई तो दो बातें छोड़कर गई थी। पहली बात थी- बोफोर्स घोटाले के मुख्य अभियुक्त ओतोवियो क्वात्रोची को रात के अंधेरे में भारत से भगा देना और दूसरी बात थी- 1993 में सांसदों की खरीद-फरोख्त करके सरकार को बचाना। कांग्रेस आठ साल बाद सत्ता में लौटी तो उसकी सियासत में कोई फर्क नहीं पड़ा। कांग्रेस ने अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं सीखा। सत्ता में आने के बाद फिर वही दोनों गलतियां दोहराई गई हैं। पहली- ओतोवियो क्वात्रोची के सील खातों को खुलवाकर उसकी मदद करना और दूसरी- सांसदों की खरीद-फरोख्त करके मनमोहन सिंह की सरकार बचाना। कांग्रेस ने वोटों और नोटों की सियासत को गङ्ढमङ्ढ कर दिया है।

कांग्रेस आजादी के बाद से ही अल्पसंख्यकों को लुभाने वाले नारे लगाकर और गरीबों का वोट हासिल करने वाले ठेकेदारों को सरकारी खजाना लुटाकर सत्ता में बनी रही थी। लेकिन नरसिंह राव के शासनकाल में सत्ता में बने रहने के इन दोनों आधारों को कड़ा झटका लगा, क्योंकि नरसिंह राव भारत को सही मायनों में विकास की पटरी पर लाना चाहते थे। खास वर्ग के वोटरों को लुभाने वाली पैंतरेबाजी और सरकारी खजाना ठेकेदारों को लुटाने वाली रणनीति को नरसिंह राव के शासनकाल में पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया था। भले ही नरसिंह राव ने अपनी सरकार सांसदों की खरीद-फरोख्त से बचाई थी, लेकिन उन्होंने हवाला कांड में फंसे अपने आधा दर्जन मंत्रियों को पार्टी का टिकट देने से इंकार कर दिया था। कांग्रेस के रणनीतिकार ऐसा मानते रहे हैं कि 1992 में बाबरी ढांचा बचाने में नाकामी की वजह से मुसलमान उससे दूर चले गए हैं और नरसिंह राव के शासनकाल में मानवीय चेहराविहीन उदारवाद ने गरीबों को उससे दूर कर दिया है। इसलिए कांग्रेस ने सत्ता में आते ही अपने इन दोनों वोट बैंकों को लुभाने के लिए इनफ्रास्टक्चर और विकास की गाड़ी को पटरी से उतार दिया। सत्ता में दुबारा लौटते ही कांग्रेस ने भारत निर्माण और ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसी दो बड़ी योजनाएं शुरू की, जिनसे केंद्र सरकार का करोड़ों-अरबों रुपया गरीबों के नाम पर वोट दिलाने वाले ठेकेदारों की तिजोरी में भरना शुरू हो गया। अब खुद केंद्र सरकार की एजेंसियां इन दोनों कार्यक्रमों को फ्लाप और खजाने का दुरुपयोग बता रही हैं। कांग्रेस ने सरकार संभालते ही दूसरा काम अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए सरकारी तिजोरी खोलने का किया, जो अब तक जारी है। कुल मिलाकर कांग्रेस सरकार की योजनाएं अपने वोट बैंक को मजबूत करने पर आधारित रही हैं और पिछले हफ्ते लोकसभा में विश्वासमत के दौरान वोट की राजनीति के अलावा नोट की राजनीति का भंडाफोड़ भी हुआ।

वोट और नोट की राजनीति में महारत के अलावा कांग्रेस मीडिया मैनेजमेंट में भी अपनी प्रमुख प्रतिद्वंदी भाजपा पर भारी पड़ती रही है। एनडीए सरकार के समय हुए तहलका को भाजपा शुरू से ही कांग्रेस प्रायोजित साजिश बताती रही है। तहलका के माध्यम से एनडीए सरकार के मंत्रियों को भ्रष्टाचार में फंसाने वाली टीम का एक सदस्य कांग्रेस मुख्यालय का पूर्व कर्मचारी था। लेकिन कांग्रेस की महारत सिर्फ एनडीए राज के समय ही नहीं, अलबत्ता यूपीए राज में भी साबित हुई। उसी तहलका टीम के माध्यम से संसद में सवाल पूछने के बदले रिश्वत देने का स्टिंग आपरेशन करके भाजपा के आठ सांसदों को संसद से बाहर करवाने में भी कांग्रेस की मीडिया मैनेजमेंट की महारत साबित हुई। जबकि भाजपा मीडिया मैनेजमेंट के मामले में एकदम फिसड्डी साबित हुई है। भाजपा के महासचिव अरुण जेटली ने पहली बार सांसद खरीद-फरोख्त का भंडाफोड़ करवाने के लिए स्टिंग आपरेशन करवाया था। सीएनएन के संपादक राजदीप सरदेसाई ने आपरेशन का सारा जिम्मा अपने पत्रकार सिध्दार्थ गौतम को सौंपा था। लेकिन सब कुछ हो जाने के बाद सीएनएन-आईबीएन चैनल स्टिंग आपरेशन अपने चैनल पर दिखाने से मुकर गया। सीएनएन-आईबीएन के संपादक राजदीप सरदेसाई ने गुजरात में दंगों के वक्त नरेंद्र मोदी के खिलाफ अहम भूमिका निभाई थी। कांग्रेस ने उनकी भूमिका से खुश होकर उनको पद्मश्री की उपाधि से सम्मानित करवाया। सांसद खरीद-फरोख्त का भंडाफोड़ने के लिए हुए स्टिंग आपरेशन को चैनल पर दिखाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। चैनल ने तीनों सांसदों का इंटरव्यू भी कर लिया था, योजना यह थी कि जैसे ही सांसद लोकसभा में जाकर भंडाफोड़ करेंगे, चैनल स्टिंग आपरेशन को भी साथ-साथ प्रसारित करना शुरू कर देगा। लेकिन जब सारा देश लोकसभा टीवी का सीधा प्रसारण देख रहा था, जिसमें भाजपा के तीनों सांसद एक करोड़ रुपया सदन पटल पर रख रहे थे, तब राजदीप सरदेसाई ने अपने चैनल पर आकर कहा कि यह स्टिंग आपरेशन उनके चैनल ने किया था, लेकिन वह अभी अधूरा ही था इसलिए चैनल ने उसे नहीं दिखाने का फैसला किया है। उन्होंने यह भी कहा कि जितना भी स्टिंग आपरेशन हुआ है, उसकी टेप पांच मिनट बाद वह लोकसभा स्पीकर को सौंप देंगे। लेकिन राजदीप सरदेसाई ने उस दिन संसद भवन में मौजूदगी के बावजूद वह टेप स्पीकर को नहीं सौंपी। स्पीकर को वह टेप लालकृष्ण आडवाणी की प्रेस कांफ्रेंस के बाद दी गई। खुद पर कीचड़ उछाले जाने से आहत होकर राजदीप सरदेसाई ने स्टिंग आपरेशन न दिखाने की वजहें बताते हुए लंबा-चौड़ा बयान जारी किया। जिसमें प्रसिध्द वकील हरीश साल्वे को ढाल की तरह इस्तेमाल किया गया है। सीएनएन-आईबीएन के बयान में साल्वे ने सलाह दी है कि चैनल संसदीय कमेटी की जांच रपट का इंतजार करे। बयान में सीएनएन ने यह भी कहा है कि उसका स्टिंग आपरेशन अभी अधूरा था। लेकिन सच यह नहीं है, अलबत्ता स्टिंग आपरेशन प्रसारित करने के लिए तीनों सांसदों का इंटरव्यू भी कर लिया गया था। भाजपा पहली बार इस चैनल के खिलाफ हमलावर हुई है। भाजपा के पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू ने चैनल पर सियासत में शामिल होने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा है कि स्टिंग आपरेशन को प्रसारित नहीं करके चैनल ने पत्रकारिता की सारी मर्यादाओं को ताक पर रख दिया है। उनकी दलील यह है कि मीडिया का काम सूचनाएं हासिल करके जनता के सामने रखना होता है न कि जांच करके उसका फैसला सुनाना। यह काम जांच एजेंसियों और न्यायिक प्रक्रिया पर छोड़ देना चाहिए। सिर्फ भाजपा ही नहीं बल्कि देश में अब यह आम धारणा बन गई है कि चैनल ने यूपीए सरकार के दबाव में आकर स्टिंग आपरेशन को प्रसारित नहीं किया।

सवाल पैदा होता है कि क्या कांग्रेस ने वोट और राजनीति के अलावा मीडिया को भी अपना राजनीतिक हथियार बनाने में सफलता हासिल कर ली है। छोटे स्तर पर राजनीतिक दल मीडिया का अपने हितों के लिए उपयोग करते रहे हैं, लेकिन तहलका के बाद यह पहली बार हुआ है कि मीडिया सियासत में उलझा हुआ दिखाई दे रहा है। संभवत: यह भी पहली बार हो रहा है कि भारत के प्रमुख राजनीतिक दल ने सीएनएन-आईबीएन के बायकाट जैसा बड़ा कदम उठाकर मीडिया की निष्पक्षता को कटघरे में खड़ा कर दिया है। गुजरात के दंगों से पहले मीडिया की प्रमुख हस्तियों ने मोटे तौर पर अपनी निष्पक्ष छवि बनाई हुई थी, लेकिन गुजरात के बाद कई बड़ी मीडिया हस्तियों की सियासत स्पष्ट हो चुकी है। लोकसभा में बहुमत साबित करने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त के इस ताजा प्रकरण ने मीडिया की सियासत को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है। भ्रष्टाचार के मामलों में बार-बार भाजपा के सांसद फंसने पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि समाज में जो गिरावट आई है, उसका असर भाजपा सांसदों पर भी पड़ा है। पिछले साठ सालों में भारत की सियासत का स्तर तो गिरा ही है, मीडिया भी सियासतदानों की जमात में शामिल होने से बच नहीं सका है। वोट और नोट की सियासत में मीडिया ने भी अपने हाथ जला लिए हैं। मीडिया को इस घटनाक्रम से सबक लेकर सियासतदानों की सियासत से दूर रहने का मौका दिया है।

आपकी प्रतिक्रिया