मायावती विश्वास मत के बाद खुद के प्रधानमंत्री बनने या कम से कम तीसरे मोर्चे की नेता के तौर पर स्थापित होने का ख्वाब देख रही थीं, लेकिन विश्वास मत में पिटने के बाद तीसरे मोर्चे का गठन ही खटाई में पड़ गया है।
हर बार की तरह इस बार भी तीसरे मोर्चे में पार्टियां और नेता ज्यादा हैं, जमीनी आधार और कार्यकर्ता कम हैं। मनमोहन सरकार विश्वास मत में हार जाती तो उसका श्रेय इसी तीसरे मोर्चे को मिलता जो लोकसभा में मात खाने के बाद फिलहाल बनते-बनते रुक गया है। तीसरे मोर्चे के नेताओं ने मनमोहन सरकार गिराने के लिए भारतीय जनता पार्टी की मदद लेने में कोई गुरेज नहीं किया, लेकिन अब सरकार नहीं गिरी तो उस पर गुर्राने में भी कोई वक्त नहीं लगाया।
मायावती यह समझ कर बैठी थी कि मनमोहन सरकार गिरते ही वह प्रधानमंत्री बन जाएंगी। जैसे ही लोकसभा स्पीकर ने मतविभाजन के नतीजे घोषित किए सबसे पहले बयान मायावती का आया, जिन्होंने कहा कि यूपीए और एनडीए नहीं चाहता था कि दलित की बेटी प्रधानमंत्री बने। सिर्फ यह बयान ही बचकाना नहीं है, अलबत्ता अगर वह यह सोचती थीं कि मनमोहन सरकार गिरते ही वह प्रधानमंत्री बन जाएंगी, तो राजनीति की अनाड़ी भी हैं। जातीय समीकरणों के साथ उत्तर प्रदेश में अपने बूते सत्ता में आ जाना अलग बात है, राष्ट्रीय परिदृश्य में राजनीति का गणित समझना अलग बात। मुलायम सिंह पिछले तीन दशक से उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण हस्ती बनने और इस दौरान तीसरे मोर्चे के महत्वपूर्ण नेता होने का श्रेय हासिल करने के बावजूद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नहीं पहुंच पाए। मायावती अगर यह समझने लगी थी कि वह एक ही हफ्ते में दिल्ली में जोड़-तोड़ करके प्रधानमंत्री बन जाएंगी, तो जरूर उन्हें राजनीति को नए सिरे समझना अभी बाकी है। मतविभाजन के बाद न तो वे सभी नेता तीसरा मोर्चा बनाने को तैयार हुए और न ही मायावती का नेतृत्व कबूल करने को तैयार हुए। ये सभी वही नेता थे जो विश्वासमत से पहले उन्हें भावी प्रधानमंत्री बताकर हवा भर रहे थे। पता नहीं मायावती ने यह कैसे समझ लिया कि दो दशक से राष्ट्रीय राजनीति करने वाले अजित सिंह, एचडी देवगौड़ा, चंद्रबाबू नायडू, ओम प्रकाश चौटाला जैसे नेता उन्हें कबूल कर लेंगे। इन चारों ने मुलायम सिंह को भी कभी अपना नेता कबूल नहीं किया था, जबकि मुलायम सिंह की हैसियत मायावती की मौजूदा हैसियत से कहीं ज्यादा रही है। पचास से साठ सीटों पर हमेशा काबिज रहने वाले वामपंथी दल भी मायावती को अपना नेता इतनी आसानी से नहीं मानेंगे। मायावती का इतिहास हमेशा उनके आड़े आएगा। इससे पहले वह तीन बार मुख्यमंत्री बनी थीं और तीनों ही बार भाजपा से गठजोड़ करके मुख्यमंत्री बनी। वामपंथी दलों ने भले ही यूपीए सरकार गिराने की मजबूरी में उनके साथ हाथ मिला लिया है, लेकिन यह दोस्ती ज्यादा दिन चलेगी, इसमें संदेह है।
विश्वासमत में मात खाने के बाद तीसरे मोर्चे का महुर्त टाल दिया गया है। फिलहाल वामपंथी दल यूएनपीए, बसपा, आरएलडी, जेडीएस, टीआरएस मिलकर सरकार के खिलाफ आंदोलन करेंगे। मुलायम सिंह के यूएनपीए छोड़कर कांग्रेस से जा मिलने के बाद अब इस तथाकथित तीसरे मोर्चे में तेलूगूदेशम, असमगण परिषद और ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी ही रह गई है। वामपंथी दलों में चार दल पहले से हैं, अब इनके साथ मायावती, अजित सिंह, देवगौड़ा और चंद्रशेखर राव की पार्टियां मिलकर काम करने को राजी हुई हैं। लेकिन विधिवत मोर्चा गठित करने और उसका नेता चुनने के मामले में भारी गतिरोध पैदा होने की आशंका पहले ही दिन पैदा हो गई है। बुधवार को इन सभी दलों की साझा रणनीति बैठक से पहले ही चंद्रशेखर राव खिसक गए थे। आंध्र प्रदेश की राजनीति में चंद्रबाबू नायडू और चंद्रशेखर राव एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते। चंद्रबाबू नायडू की सरकार में चंद्रशेखर राव प्रभावशाली मंत्री हुआ करते थे, लेकिन अपने तेलंगाना क्षेत्र के विकास के लिए कुछ नहीं करवा पाए तो तेलूगूदेशम छोड़कर अपनी तेलंगाना पार्टी बनाई थी। चंद्रशेखर राव की शुरूआती राजनीति चंद्रबाबू नायडू के खिलाफ ही थी, इसलिए उन्होंने 2004 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से गठबंधन किया था। बाद में कांग्रेस ने भी उन्हें तेलंगाना के मुद्दे पर धोखा दिया तो वह विश्वासमत में मनमोहन सरकार को हराना चाहते थे। चंद्रशेखर राव ही नहीं, अलबत्ता विश्वासमत के समय इकट्ठा हुआ भानुमति का कुनबा असल में अपने-अपने व्यक्तिगत स्वार्थ पर मजबूरी में बना था। चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू कितने दिन एक ही मोर्चे में इकट्ठे रह पाएंगे, यह पहले दिन ही दिखाई देना शुरू हो गया। तेलंगाना के मुद्दे पर वह भाजपा के ज्यादा नजदीक हो सकते हैं, जिसने तेलूगूदेशम से गठजोड़ करने के बाद अपना यह पुराना मुद्दा छोड़ दिया था, लेकिन अब अपने उस पुराने मुद्दे पर लौट आई हैं। तीसरे मोर्चे की रीढ़ की हड्डी वामपंथी दल भी तेलंगाना राज्य के खिलाफ हैं, इसलिए जिस तरह यूएनपीए बनने के पहले ही महीने में जयललिता मोर्चे से अलग हो गई थी, वैसे ही चंद्रशेखर राव भी जल्द ही अलग हो जाएंगे।
हरियाणा में अगर ओमप्रकाश चौटाला के इनलोद को चुनाव जीतना है तो उन्हें ऐसा मददगार चाहिए जो उन्हें अतिरिक्त वोट दिला सके। वह अकेले कांग्रेस का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए वह बार-बार तलाक के बाद भाजपा के साथ लिव-इन-रिलेशन बनाते रहते हैं। लेकिन इस बार भाजपा के पास भी भजनलाल की पार्टी का विकल्प खुल गया है, उनके बेटे कुलदीप विश्नोई ने मतविभाजन में भाजपा के साथ वोट करके हरियाणा की भावी राजनीति के संकेत दे दिए हैं। कुलदीप विश्नोई ने एनडीए के रात्रिभोज में शामिल होने के बाद लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व और व्यक्तित्व की तारीफ कोई यों ही नहीं की। तीसरे मोर्चे में जाने का इनलोद को तो नुकसान ही होगा क्योंकि इस बार हरियाणा में होने वाली तिकोनी लड़ाई में वह तीसरे नंबर की पार्टी बन जाएगी। मायावती के प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब टूटने पर भाजपा और यूपीए के खिलाफ आया उनका दलित की बेटी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देने वाला बयान उस समय प्रभावहीन हो गया, जब विश्वास मत के बाद उनके इर्द-गिर्द इकट्ठे हुए दलों ने ही उन्हें अपना नेता कबूल करने में आना-कानी शुरू कर दी। जहां तक तीसरे मोर्चे के नेतृत्व का सवाल है, उस पर सबसे वरिष्ठ एचडी देवगौड़ा भले ही दावा न करें लेकिन चंद्रबाबू नायडू और ओम प्रकाश चौटाला का दावा मायावती से कहीं ज्यादा है। चंद्रबाबू नायडू उस तीसरे संयुक्त मोर्चे के संयोजक रहे हैं जिसके तहत दो-दो प्रधानमंत्री देश में शासन कर चुके हैं। गठबंधन की राजनीति का जितना अनुभव उन्हें है, उतना बाकी तो किसी नेता कों नहीं है। नेतृत्व के मुद्दे पर तीसरा मोर्चा पहले भी बनता-बनता टूटा था जब जयललिता ने मुलायम सिंह का नेतृत्व मंजूर नहीं किया था। अब बिना किसी नेतृत्व के अध्यक्ष मंडल बनाकर तीसरा मोर्चा गठित हो तो शायद कुछ दिन चल पाए। इस बार तीसरा मोर्चा वामपंथियों की बड़ी मजबूरी बन गया है क्योंकि एनडीए का एक रास्ता तो बंद था ही, कांग्रेस का दूसरा रास्ता भी उन्होंने बंद कर लिया है। इसलिए वामपंथी किसी न किसी तरह अपनी कमजोर बैसाखियों पर आने वाले कुछ समय तक तीसरे मोर्चे को खड़ा रखने की कोशिश करते रहेंगे ताकि बंगाल, केरल के बाहर भी उनका कोई नामलेवा तो हो।
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