आतंरिक लोकतंत्र के अभाव में तबाह होती कांग्रेस

Publsihed: 04.Jul.2008, 06:02

सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उम्मीदवारों के चयन और पदाधिकारियों की नियुक्ति के मामले में एक दिशा निर्देश जारी किया था कि फैसले आलाकमान पर नहीं छोड़े जाएं। संभवत: सोनिया गांधी कांग्रेस को अपने पैरों पर खड़ा करना चाहती थी, चाहती थी कि जमीनी स्तर पर फैसले होंगे तो धीरे-धीरे कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्र मजबूत होगा और पार्टी की जड़ें जमेंगी। लेकिन कुछ दिनों के अंदर ही सोनिया गांधी को समझ आ गया कि पार्टी का अपने पैरों पर खड़े होने का कोई इरादा नहीं। इसलिए शुरूआती ना-नुक्कर के बाद आलाकमान को अधिकृत करने के फैसले कबूल करने लगी।

 जब सारे फैसले आलाकमान पर छोड़ दिए जाएं, तो किसी भी पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र की गुंजाइश नहीं बचती। पार्टी की पकड़ आलाकमान के इर्द-गिर्द मंडराने वाले चंद नेताओं के हाथ में रह जाती है। कांग्रेस में अब यही हो रहा है, दिल्ली से ऐसे-ऐसे नेता अहम पदों पर नियुक्त हो जाते हैं, जिनका कोई जमीनी आधार नहीं होता।

नरसिंह राव पर आरोप लगता था कि वह फैसले टालते रहते थे, जिस कारण पार्टी मजबूत नहीं हो पा रही थी। उन पर यह भी आरोप था कि वह दिल्ली में मंडराने वाले हवाई नेताओं को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर देते थे। सोनिया गांधी के निजाम में भी कोई फर्क नहीं पड़ा है। जब से सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनी हैं तब से अखिल भारतीय स्तर पर चुनाव सिर्फ इसलिए हो रहे हैं क्योंकि पार्टी की मान्यता कायम रखने के लिए चुनाव आयोग को जवाब देना पड़ता है। निचले स्तर पर कहीं कोई चुनाव नहीं होता, दिल्ली से अध्यक्ष नियुक्त कर दिए जाते हैं, दिल्ली से ही कार्यकारिणियां बनती हैं। ठीक समय पर यह सब भी हो जाए, तो पार्टी में जीवंतता बनी रह सकती है, लेकिन ऐसा भी नहीं हो रहा है। विभिन्न कांग्रेस इकाईयों के उदाहरण हमारे सामने हैं, जहां गुटबाजी हावी हो गई है और दिल्ली के दरबार में जिसका दांव चलता है, पार्टी उसके कब्जे में आ जाती है। नई नियुक्ति के साथ ही दूसरा गुट उसके खिलाफ मुहिम छेड़ देता है, इस तरह कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस के दफ्तर में आपस में ही झगड़ते रह जाते हैं और जमीन पर जाकर पार्टी को मजबूत करने का वक्त ही नहीं मिलता।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी प्रदेश कांग्रेस के नेताओं के झगड़े निपटाने में पूरी तरह विफल रही हैं। कुछ प्रदेशों के उदाहरण दिए जा सकते हैं, सोनिया गांधी हाल ही में महाराष्ट्र गईं तो मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और कुछ साल पहले शिवसेना छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए नारायण सिंह राणे के समर्थक उनके सामने ही आपस में भिड़ गए। भिड़ंत इतनी गंभीर थी कि पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा। यह सोनिया गांधी के सही समय पर फैसला नहीं करने का नतीजा है, नारायण सिंह राणे जब कांग्रेस में आए थे, तो उनसे वादा किया गया था कि कुछ वक्त बाद उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा। नारायण सिंह राणे ने अपने समर्थकों को कांग्रेस में लाकर विधानसभा में कांग्रेस का पलड़ा शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पर भारी कर दिया, फिर भी सोनिया गांधी ने अपना वादा नहीं निभाया। इधर मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और प्रदेश अध्यक्ष प्रभा राव का झगड़ा अलग से चल रहा है। प्रदेश की प्रभारी मार्गेट अल्वा चाहती हैं कि विलासराव को हटाकर प्रभा राव को मुख्यमंत्री बना दिया जाए, लेकिन सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल उनकी एक नहीं चलने दे रहे हैं। नतीजा यह है कि महाराष्ट्र कांग्रेस तीन गुटों में बंटी हुई है। करीब-करीब यही हाल पंजाब प्रदेश कांग्रेस का है, जहां पार्टी और विधायक, अमरेंद्र सिंह और राजेंद्र कौर भट्टल के गुटों में बंटे हुए हैं। सोनिया गांधी ने कई बार बीच बचाव करके दोनों को करीब लाने की कोशिश की, लेकिन सोनिया गांधी का प्रभाव काम नहीं कर रहा है। उड़ीसा में विधायक दल के नेता जानकी वल्लभ पटनायक के रहते पार्टी राज्य में जड़ें नहीं जमा पा रही है। लेकिन कांग्रेस आलाकमान में हिम्मत नहीं है कि वह जानकी वल्लभ को हटाकर नया नेता बना सके। महाराष्ट्र में राज्यपाल का पद खाली होने के बाद जानकी वल्लभ पटनायक को भेजने की पेशकश की गई थी, लेकिन उन्होंने साफ इंकार कर दिया। अब पार्टी का मानना है कि जानकी वल्लभ के रहते उड़ीसा में पार्टी सत्ता में लौटकर नहीं आ सकती, लेकिन उन्हें हटाया भी नहीं जा सकता। बिहार में सोनिया गांधी ने सदानंद सिंह से प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा ले लिया था, लेकिन उनकी जगह पर किसी को नियुक्त नहीं किया गया। गुजरात में भरत सिंह सोलंकी को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने का फैसला हो चुका है, लेकिन विकल्प का फैसला नहीं हो रहा है। सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल जो कि खुद गुजरात के हैं, उनकी मर्जी का अध्यक्ष बनेगा, तभी फैसला होगा। उत्तर प्रदेश में रीता बहुगुणा प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष तो हैं, लेकिन बाकी नेता उनको सहयोग नहीं दे रहे, नतीजा यह है कि राहुल गांधी के दौरों का भी कांग्रेस कार्यकर्ता जमीन पर फायदा नहीं उठा पा रहे। कर्नाटक में कांग्रेस इस बीच दो बार विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है, दो प्रदेश अध्यक्ष भी बदले गए, लेकिन कार्यकारिणी सात साल पहले जनार्दन पुजारी के समय की चल रही है।

करीब-करीब यही हालत मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की भी है, मध्यप्रदेश में सोनिया गांधी ने सुभाष यादव को उस समय प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया जब वह खरगोन से अपने बेटे अरुण यादव को लोकसभा का चुनाव जिताकर ले आए। सुभाष यादव अपने कार्यकाल में अपनी कार्यकारिणी नहीं बनवा पाए। सोनिया गांधी ने दिल्ली दरबार में प्रभावशाली हो चुके सुरेश पचौरी को मध्यप्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर भेजा, उनकी कार्यकारिणी भी हाथों हाथ बना दी गई। पार्टी में गुटबाजी न बढ़े, इसलिए अर्जुन सिंह के बेटे राहुल सिंह को प्रचार समिति का अध्यक्ष बना दिया गया, लेकिन विधानसभा चुनाव सिर पर हैं और यह नई जोड़ी जड़ें नहीं जमा पा रही। इसकी वजह यह है कि नरसिंह राव और सीताराम केसरी के जमाने के बाद से संगठनात्मक चुनाव नहीं हुए, पार्टी दिल्ली से नियुक्तियों के आधार पर ही चल रही है। दिल्ली में जिसका पव्वा भारी होता है, वह अपनी नियुक्ति करवाकर ले आता है। छत्तीसगढ़ की हालत और भी खराब है। चरणदास महंत को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था, लेकिन सोनिया गांधी के दरबार में मजबूत पव्वे वाले अजीत जोगी ने उनकी अध्यक्षता में काम करने से इंकार कर दिया। आखिर तय हुआ कि प्रदेश में नया अध्यक्ष बना दिया जाए और चरणदास महंत को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया जाए। लेकिन गुटबाजी से बचने के लिए फार्मूला निकाला गया कि नया अध्यक्ष अजीत जोगी की मर्जी का न बनाया जाए। इसलिए सोनिया गांधी ने मोती लाल वोरा से नाम सुझाने को कहा, मोती लाल वोरा छत्तीसगढ़ की राजनीति तो करते हैं, लेकिन राज्य में उनका अपना कोई गुट नहीं। हालांकि वह खुद जरूर अजीत जोगी के खिलाफ हैं। इसलिए उन्होंने जोगी की मुखालफत के बावजूद कांग्रेस में लौटकर आए विद्याचरण शुक्ल से नाम सुझाने को कहा। नतीजतन धनेंद्र साहू छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए और चरणदास महंत को कार्यकारिणी अध्यक्ष बना दिया गया। अब जब पता चला कि दोनों ही पिछड़ी जातियों से हैं, तो जातीय समीकरण के लिए सत्यनारायण शर्मा को भी कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया। सोनिया गांधी के करीब होने के बावजूद अजीत जोगी पार्टी में अपनी नहीं चला पा रहे, क्योंकि सोनिया गांधी के उतने ही करीब मोती लाल वोरा भी हैं, इसलिए जोगी ने अब मोती लाल वोरा से युध्दविराम करने का फार्मूला निकाला है। जिसके तहत उन्होंने मोती लाल वोरा के बेटे अरुण वोरा को अपना दत्तक पुत्र घोषित करते हुए विधानसभा चुनाव में जिताने का जिम्मा लिया है। कुल मिलाकर निचले स्तर पर कांग्रेस की सारी राजनीति दिल्ली में समीकरणों के सहारे चल रही है, आतंरिक लोकतंत्र दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। यह बात सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी भी मानते हैं कि पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र की कमी है, लेकिन दोनों अपने इर्द-गिर्द मंडराने वाली चौकड़ी के हाथों मजबूर हैं।

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