कहीं मनमोहन भी गुलाम नबी की तरह इस्तीफा न दें

Publsihed: 09.Jul.2008, 06:25

तो हू-ब-हू वही हुआ। गुलाम नबी के बाद अब मनमोहन तलवार की धार पर। बिल्कुल वैसे ही, जैसे जयललिता ने समर्थन वापस लिया था। तो वाजपेयी सरकार तलवार की धार पर थी। तब एक वोट से गिरी थी सरकार। अब भी एक-एक वोट की मारामारी। पर अब ऐसा कोई सीएम नहीं, जो कांग्रेस का सांसद भी हो। याद है, गिरधर गोमांग ने सीएम होकर लोकसभा में वोट दिया। बात करते हैं नैतिकता की। कल अपन ने एक बात और लिखी थी- 'ऐलान तो मंगलवार को होगा। समर्थन वापसी की चिट्ठी बुधवार को देंगे।' ताकि सनद रहे सो बता दें- लेफ्ट ने फैसला मंगलवार को किया। पर राष्ट्रपति भवन से वक्त सोमवार को ही मांग लिया था। जो बुधवार तय हुआ था।

खैर अब मनमोहन  को पहले बहुमत साबित करना होगा। आईएईए के सेफगार्ड बाद में तय होंगे। मनमोहन ने बेवक्त बयान नहीं दिया था। लेफ्ट का फच्चर निकलेगा, तभी तो करार पर आगे बढ़ेंगे। जितनी देर करते, उतना वक्त कम बचता। सो अपन लोग भले मनमोहन के बयान को बेवक्त कहें। पर उनने सही वक्त पर सही बयान दिया। ताकि वक्त रहते ही आर-पार हो जाए। वरना आज बुश को क्या जवाब देते। लेफ्ट ने जब समर्थन वापसी का ऐलान किया। तो मनमोहन चीन, मैक्सिको, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीकी नेताओं के साथ ब्रेकफास्ट कर रहे थे। मनमोहन को पहले से पता था। सो माथे पर कोई शिकन नहीं आई। उनने जापान में बेफिक्री भी दिखाई। असल में सारी फिक्र तो दिल्ली में थी। फिक्र सोनिया करें, या प्रणव दा। मनमोहन सिंह को क्या। उनने तो बुश से वादा निभाने में कसर नहीं छोड़ी। अब प्रतिभा ताई बहुमत साबित करने की मोहलत देंगी। तो दो दिन का सत्र होगा। यह बात सलाह-मशविरे के बाद प्रणव दा ने बताई। जब तक बहुमत साबित नहीं होगा। तब तक सेफगार्ड की भैंस गई पानी में। यानी विशेष सत्र आठ-दस दिन में ही। ताकि सरकार बची तो 28 जुलाई को सेफगार्ड तय हों। अब आज मनमोहन ब्रेकफास्ट पर बुश से मिलेंगे। तो कुछ कहने लायक तो होगा। बात मनमोहन की चली। तो बताएं- मनमोहन के साथ दौरे में एक भी राजनीतिज्ञ नहीं। अगल-बगल सारे नौकरशाह। अपन ने भी वाजपेयी के साथ बहुतेरे दौरे किए। वाजपेयी कभी बिना विदेश मंत्री विदेश नहीं गए। पर जबसे प्रणव दा विदेश मंत्री बने। तब से कभी पीएम के साथ विदेश दौरे पर नहीं गए। कोई राज्यमंत्री ही बगलगीर हो। तो अलग बात। पर अबके तो कोई राज्यमंत्री भी साथ नहीं गया। खबरचियों को खबर देने वाले संजय बारू भी नहीं गए। अपन ने तो कई महीने पहले ही लिख दिया था- 'बारू इस्तीफा दें, विदेश की नौकरी पर जाएंगे।' पर, हां, एक सांसद साथ था। मुलायमवादी शाहिद सिद्दिकी। जो सांसद के नाते नहीं, संपादक के नाते था। अपन ने तीन जुलाई को इसी सिद्दिकी के बारे में लिखा। तब उनने कहा था- 'जो भी करार का समर्थन करेगा। मुसलमान उससे दूर चले जाएंगे।' पर जापान में बदले-बदले दिखे। बोले- 'मैं यहां पर हूं, इससे स्पष्ट है कि सरकार सुरक्षित है।' पर सरकार सुरक्षित नहीं। अमर सिंह दस जनपथ पहुंचे। तो रहे-सहे बाल उड़े हुए थे। सपा संसदीय दल की मीटिंग में सात एमपी नहीं आए। मायावती का फंडा अपन ने कल ही बताया था। पांच टूटेंगे, या सात टूटेंगे। यह चर्चा भी दिनभर राजनीतिक गलियारों में रही। सोनिया दस जनपथ में जमा-घटाओ सुनती रही। वायलार रवि -अहमद पटेल अपनी-अपनी पेलते रहे। प्रणव दा साउथ ब्लाक में बैठे लिखते-मिटाते रहे। कभी देवगौड़ा अपनी लिस्ट में। कभी देवगौड़ा की पार्टी का विरेंद्र कुमार बसपा की लिस्ट में। कभी मुलायम के बागी घटाते। तो कभी बाल ठाकरों-बादलों को अपनी लिस्ट में डालकर मिटाते। कभी महबूबा मुफ्ती पर सोचते। तो  कभी अजित सिंह पर। कभी ओवैसी को जोड़ते, तो कभी काटते। दिनभर जमा-घटाओ 270 से 275 के बीच झूलता रहा। एक-एक सांसद की बात चली। तो बात चली सोमनाथ दादा की। वह इस्तीफा देंगे। तो पहले स्पीकर का चुनाव करवाएं। या पहले बहुमत साबित करें। आखिर उस वक्त अपने स्पीकर की अहमियत। सो आंध्र के किशोर चंद्र देव का नाम चला। दस जनपथ में तो कांग्रेसी एक-एक पर बहस करते दिखे। अभिषेक मनु सिंघवी बोले- 'संसद में ऐसे बहुत सांसद। जो लेफ्ट-बीजेपी की तरह नहीं सोचते।'

आपकी प्रतिक्रिया