एटमी करार पर यूपीए-लेफ्ट चख-चख अब आखिरी दौर में। अपने मनमोहन तो उम्मीद छोड़ चुके। भले ही अमेरिका ने अभी भी उम्मीद नहीं छोड़ी। मंगलवार को व्हाइट हाऊस के प्रवक्ता टोनी फ्रेटो बोले- 'अभी से निराशा जाहिर करना जल्दबाजी होगा।' अब अपन को नहीं पता। मनमोहन ने पंद्रह अक्टूबर को बुश से क्या कहा। पृथ्वीराज चव्हाण बता रहे थे- 'एटमी करार पर बात नहीं हुई।' तो नाइजीरिया में संजय बारू ने जो बताया था। वह क्या था? चव्हाण ने मुंह फेर लिया। हू-ब-हू यही बात अमेरिका में भी हुई। टोनी फ्रेटो बोले- 'बुश-मनमोहन बात की सही-सही जानकारी मुझे नहीं।' पर बात मनमोहन के निराश होने की।
जो उनने सोमवार को यूपीए मीटिंग में जाहिर की। भले ही अभिषेक मनु सिंघवी ने खंडन किया। पर मंगलवार को वीरप्पा मोईली ने यह कहकर पुष्टि कर दी- 'पीएम ने दु:ख जाहिर किया। तो गलत नहीं। जो विकास चाहेगा। उसे दु:ख तो होगा ही।' यानी मोईली ने माना- 'आग थी, तभी धुआं हुआ।' वैसे अपन बता दें। मनमोहन के दु:खी-शर्मिंदा होने की बात सोलह आने सही। न सिर्फ उनने अपनी शर्मिंदगी का इजहार किया। अलबत्ता डीएमके, एनसीपी, आरजेडी को जिम्मेदार भी ठहराया। कहा- 'मुझे यूपीए दलों ने शर्मसार किया। जिन दलों ने केबिनेट में करार कबूल किया। वे भी अब करार पर रुख बदल गए। बेहतर हो, आप किसी और को पीएम चुन लें।' सुनते ही यह सुन सब सन्न रह गए। सोनिया गांधी भी। पर मनमोहन की यह तलवार की धार काम कर गई। कम से कम लालू-बालू-पालू तो पिघल गए। यूपीए मीटिंग में मौजूद पृथ्वीराज चव्हाण ने बताया- 'यूपीए मीटिंग में तीनों सहयोगियों के साथ खुलकर चर्चा हुई। एक बात बहुत अच्छी हुई। जिसे अभी बताएंगे नहीं।' अब जैसे चव्हाण बोले। उसे समझना कोई मुश्किल नहीं। चुनाव की नौबत में तीनों ने कांग्रेस का साथ देने का वादा किया। यह बात यूपीए-लेफ्ट मीटिंग में भी नजर आई। जब प्रणव मुखर्जी ने कहा- 'नवंबर में आईएईए से बात करने दीजिए। करार का ऑप्रेशनलाइजेशन नहीं करेंगे।' तब लालू-बालू-पालू ने भी प्रणव दा का साथ दिया। पर चारों लेफ्टिए नहीं माने। मनमोहन ने यूपीए-लेफ्ट मीटिंग से पहले तीनों को बुलाकर जो घुट्टी पिलाई। वह काम कर गई। इन तीनों ने ही मनमोहन-सोनिया को चुनाव से डराया था। तीनों के साथ तीन कांग्रेसी भी मिल गए। तो मनमोहन-सोनिया एचटी सम्मेलन में नरम पड़े। मनमोहन बोले- 'करार लागू नहीं होता। तो मुझे निराशा होगी। जीवन में कुछ निराशाएं भी होती हैं। इसके बावजूद जीवन चलता है।' अपने अरुण जेटली ने देर से सही। पर मंगलवार को चुटकी ली- 'पीएम का यह बयान परंपरागत भारतीय शोक संदेश जैसा।' अपन को कोई दस साल पहले छपा एक हैंडिंग याद आ गया। जिसमें लिखा था- 'मरने वालों के साथ कोई मर तो नहीं जाता।' यानी जीवन मरने वालों के बिना भी चलता है। करीब-करीब ऐसा ही बयान मनमोहन का था। पर अब अमेरिका से करार को लेकर इतने बेकरार। इतने इमोशनल, पूछो मत। बात मनमोहन की ताजा निराशा की। जो उनने मंगलवार को भी जाहिर की। मैककिंसे सम्मेलन में बोले- 'मौजूदा राजनीति और अधूरे जनादेश से सरकारें लाचार। विकास का एजेंडा लागू करना मुश्किल।' यानी चुनाव का एजेंडा तय। करार पर किरकिरी बनेगा पूर्ण जनादेश मांगने का एजेंडा। मनमोहन कहेंगे- 'जनादेश नहीं दिया, तो विकास विरोधी ताकतों ने काम नहीं करने दिया।' हू-ब-हू वही बात। जो सोनिया ने हरियाणा में कही थी- 'एटमी करार के विरोधी, विकास के दुश्मन।' यानी एचटी सम्मेलन में हुआ युध्दविराम अब खत्म होने के कगार पर। तो क्या बाईस अक्टूबर को मिड-टर्म पोल की भूमिका बन गई। चौबीस घंटे में लेफ्ट-थर्ड फ्रंट की धुआंधार मीटिंग से तो यही इशारा। अपन को तो डर। पंद्रह नवंबर से शुरू संसद सत्र आखिरी ही न हो। वैसे कांग्रेसियों को अभी भी बजट सत्र की उम्मीद।
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