करार से जुड़ा है वोट बैक, चौराहे पर खड़े मुलायम

Publsihed: 02.Jul.2008, 06:20

राजनीति में न परमानेंट दोस्ती। न परमानेंट दुश्मनी। मुलायम के बदले तेवरों से यह कहावत फिर सच साबित हुई। अपन फिलहाल अमर सिंह के बयानों को बाजू रखें। सिर्फ मुलायम सिंह का बयान पढ़ें। तो हर शब्द से दो मतलब निकलेंगे। उनने कहा- 'हमारी किसी राजनीतिक दल से दुश्मनी नहीं। सैध्दांतिक मतभेद हो सकते हैं।' यह बात कांग्रेस के लिए लागू। तो बीजेपी के लिए भी लागू। मुलायम भाजपाईयों की मदद से दो बार सीएम रह चुके। पहली बार 1978 के जनता राज में। दूसरी बार जब बिना बहुमत के वाजपेयी ने सीएम बनवाया। दोनों ने मिलकर वीपी सिंह को पीएम भी बनवाया था।

मुलायम ने कुछ और भी कहा। जरा वह भी सुनिए। बोले- 'बीजेपी बीएसपी से तीन बार धोखा खा चुकी। वह फिर भी उसके साथ जाने को तैयार।' मुलायम की भाषा अपन को उलाहना भर लगी। जैसे बीजेपी को कह रहे हों- 'एक नजर हमारी तरफ भी देख लें। आखिर हम भी पुराने कांग्रेस विरोधी।' अपन नए-नए सोशलिस्टों अमरसिंहों की बात नहीं करते। मुलायम के गुरु राममनोहर लोहिया थे, अमरसिंह नहीं। लोहिया-दीनदयाल उपाध्याय की जोड़ी ने कांग्रेस विरोध को धारदार बनाया। तब जाकर 1967 में पहली बार संविद सरकारें बनीं। वैसे ऐसा नहीं, जो छह दिसंबर 1992 के बाद ऐसा तलाक हो। जो फिर मेल न करा सके। आखिर राजनीति में कुछ परमानेंट नहीं होता। छह दिसंबर 1992 के बाद सरयू से बहुत पानी बह चुका। एक वोट से जब वाजपेयी की सरकार गिरी। तो सोनिया पीएम बनती-बनती रही थी। मुलायम ने तब भी कांग्रेस विरोध दिखाया था। 'माई कंट्री माई लाइफ' में आडवाणी का खुलासा ही याद करो। आडवाणी ने लिखा- 'जया जेटली के घर मेरी मुलायम से मुलाकात हुई। मुलायम ने मुझे कहा- मैं सोनिया को समर्थन नहीं दूंगा। पर शर्त एक है- एनडीए दुबारा राष्ट्रपति भवन जाकर दावा नहीं जताएगा।' पुराने जनसंघियों-सोशलिस्टों का यह गुप्त समझौता सिरे चढ़ा। सोनिया पीएम नहीं बन पाई। यों अपन को अब आडवाणी-मुलायम में तार जुड़ने की उम्मीद नहीं। अब मुलायम पर अमरसिंहों का कब्जा। मंगलवार को अमर सिंह बिना वजह बीजेपी पर गुर्राए। बोले- 'हमारे लिए बीजेपी-बीएसपी एक ही ताकत। फिलहाल सबसे ज्यादा खतरा सांप्रदायिकता से।' यह सेक्युलिरिज्म की राजनीति अपने पल्ले नहीं पड़ती। मायावती कब सेक्युलर हो जाए। कब सांप्रदायिक। जयललिता कब सांप्रदायिक हो जाए। कब सेक्युलर। राम विलास पासवान कब सेक्युलर हो जाएं। कब सांप्रदायिक। यह सिर्फ करात-येचुरी ही तय करते हैं। पर असल बात मौजूदा एटमी करार पर सपा की अहमियत की। पिछले चुनाव में मुलायम कहते थे- 'केंद्र में मेरी मदद के बिना कोई सरकार नहीं बनेगी।' सोनिया को मुलायम की जरूरत नहीं पड़ी। तो घर आए मेहमान को बेइज्जत करके निकाला। अब अमर सिंह भले ही अपनी बेइज्जती भूल गए हों। अपन नहीं भूले। पर राजनीति में कोई परमानेंट दुश्मन नहीं होता। सो अमर सिंह अब फिर कांग्रेस की झोली में बैठने को तैयार। सोमवार को प्रणव दा से मिले। तो बोले- 'हरकिशन सिंह सुरजीत चाहते थे- हम कांग्रेस के नजदीक आएं।' पर अब सीपीएम में सुरजीत की तूती नहीं बोलती। सीपीएम में अब उस प्रकाश करात की डुगडुगी बजती है। जो एटमी करार वाली कांग्रेस के खिलाफ। अमर सिंह मंगलवार को प्रकाश करात से मिले। तो तेवर बदले हुए थे। अमर सिंह बोले- 'बिना लेफ्ट के यूपीए सरकार बनती ही नहीं। लेफ्ट तो यूपीए सरकार का विश्वकर्मा।' गंगा गए सो गंगाराम। यमुना गए सो यमुनादास। बोले- 'अभी तो लेफ्ट-कांग्रेस साथ-साथ हैं। दोनों अलग होंगे। तब हम स्टेंड लेंगे।' मुलायम का संकट तो तब शुरू होगा। जब लेफ्ट समर्थन वापस लेगा। दुनिया लाख अटकल लगाए। प्रणव दा के बाद बुधवार को नारायणन भी कोशिश कर लें। अपन को नहीं लगता मुलायम अमेरिकी करार का साथ देंगे। यूपी में मुसलमानों को क्या मुंह दिखाएंगे। मुलायम तो ऐसे चौराहे पर आकर खड़े हो गए। जहां से कोई रास्ता नहीं सूझ रहा।

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