अपन कुत्ते-बिल्ली का खेल कहें। तो कोई बुरा मान लेगा। सो अपन इसे कछुए और खरगोश की दौड़ कहेंगे। कभी कछुआ आगे, कभी खरगोश। कभी मनमोहन आगे, कभी प्रकाश करात। कौन कछुआ, कौन खरगोश। अपन यह भी नहीं जानते। पर यह चिख-चिख अब बहुत बेढंगी हो गई। कानों को नहीं सुहाती। कभी करात की धमकी। कभी एबी वर्धन की। तो कभी मोहलत बढ़ाना। कभी मनमोहन का चुनौती देना। तो कभी वापस लेना। पता नहीं यह नौटंकी कब तक चलेगी। पहले कहा था- 'पांच अक्टूबर को आर या पार होगा।' फिर कहा- 'नौ अक्टूबर को इधर या उधर होगा।' फिर कहा- 'दुर्गा पूजा-दशहरे के बाद।' रावण दहन के बाद का नाम सुन यूपीए बेहद डर गया।
करुणाकरन रावण के नाम से वैसे भी आजकल परेशान। सो उनने मनमोहन को दो टूक कहा- 'लेफ्ट कहीं विजय दशमी पर यूपीए सरकार का दहन ही न कर दे।' यही डर यूपीए को भी सताया। तो सोनिया-मनमोहन दोनों ने पलटी मार ली। एचटी सम्मेलन में कहा- 'एटमी करार लागू न हुआ। तो कोई जीवन नहीं रुकेगा।' पर तब से कांग्रेस को यह समझ नहीं आया- करार को ठंडे बस्ते में कहें, या खत्म कहें। यह दुविधा तब तक रही। जब तक नाइजीरिया में आनंद शर्मा ने पासा नहीं पलटा। पर जैसे ही आनंद शर्मा ने कहा- 'करार पर कोशिश बरकरार।' करार बरकरार के कांग्रेसी बयान ऐसे आने लगे। जैसे बरसात के बाद मेढक निकल आते हैं। मेढकों की टर्र-टर्र की आवाजें लेफ्टियों के कानों में गूंजीं। तो वर्धन ने कहा- 'सोमवार को दो टूक पूछ लेंगे। सरकार करार रद्द करना चाहती है या चुनाव कराना चाहती है।' पर जैसे ही सोमवार आया। वर्धन के तेवर फिर बदल गए। पिछले एक महीने में एबी वर्धन के बयान एक जगह इकट्ठा कर लें। तो लाफ्टर चेलेंज में बाजी वर्धन के हाथ होगी। राजू श्रीवास्तव, सुनील पाल का हारना तय। पर सोमवार को यूपीए-लेफ्ट मीटिंग से पहले वर्धन क्या बोले। जरा वह भी सुन लो। बोले- 'त्यौहारों का मजा किरकिरा नहीं करना चाहते। सरकार का भविष्य त्यौहारों के बाद तय करेंगे।' बाद में यूपीए-लेफ्ट मीटिंग में वही हुआ। जो सुबह लेफ्ट मीटिंग में तय हुआ। मनमोहन को दीवाली तक की मोहलत देना। दीवाली के बाद वर्धन कहेंगे- 'हमने कभी नहीं कहा- सरकार गिराएंगे।' पर एक बात हो गई। फिलहाल सोलह नवंबर तक करार ठंडे बस्ते में। यह बात प्रणव मुखर्जी को मीडिया के सामने कहनी पड़ी। अब आनंद शर्मा, वीरप्पा मोइली, सिंघवी के पास कहने को कुछ नहीं। पच्चीस दिन के लिए जुबान बंद। अब अगली मीटिंग दीवाली के बाद सोलह नवंबर को। पर बुश को दिया वादा नहीं निभा पाने पर मनमोहन बेहद शर्मसार। शर्मसारी का इजहार पहले बुश से फुनियाते समय किया। फिर सोमवार को यूपीए मीटिंग में भी। सुनते हैं- रूंआंसे होकर बोले- 'जिन तीन दलों ने केबिनेट में करार का समर्थन किया। अब वही तीनों करार के खिलाफ।' आप समझ गए होंगे। इशारा लालू, करुणानिधि और पवार की ओर। करार पर हुई जग हंसाई से शर्मसारी का इजहार किया। तो लालू-बालू-पालू भी मौजूद थे। शर्मसारी से इस्तीफे की पेशकश की खबर लीक हुई। पर यह सुन अपने अभिषेक मनु सिंघवी भड़क गए। बोले- 'ऐसे बेसिर-पैर के सवालों का जवाब नहीं देता।' पर एक सवाल तो उठेगा ही। पीएम अमेरिका से करार को लेकर इतने इमोशनल क्यों? सवाल मनमोहन-बुश का नहीं। सवाल देश की साख का। पर अगर मनमोहन को साख की इतनी ही परवाह। तो उनने बिना यूपीए-लेफ्ट से सलाह किए करार किया ही क्यों। क्या मनमोहन नहीं जानते थे- उन्हें जनादेश नहीं मिला था। जनादेश कांग्रेस को भी नहीं मिला। मनमोहन करार के लिए इतने बेकरार होंगे। तो खुद-ब-खुद शक के घेरे में आएंगे। मनमोहन का अमेरिका से इमोशनल रिश्ता? या भारत से?
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