अपने राजस्थान में भरतपुर के पति-पत्नी की राजनीति। तो मध्यप्रदेश में भूरिया बाप-बेटी की राजनीति चर्चा में। अपने शिवराज सिंह चौहान ने निर्मला भूरिया को मंत्री बनाया। तो अपनी आंखों के सामने मध्यप्रदेश की खेमेबाजी लौट आई। एक जमाना था। जब मध्यप्रदेश की राजनीति अर्जुन- विद्या भैया खेमों में थी। माधव राव सिंधिया की तब छोटी सी अपनी राजनीतिक दुकान थी। जो ग्वालियर -गुणा से आगे कभी नहीं बढ़ी। तब अर्जुन के सारथी थे दिग्गी-जोगी-सुभाष यादव। विद्या भैया के साथ बड़े भाई श्यामा चरण तो थे ही। साथ थे परसराम भारद्वाज-राधाकृष्ण मालवीय।
वैसे देखने में भले ही दोनों ब्राह्मण नेता लगते हों। पर हैं दोनों दलित नेता। जिनने विद्या-श्यामा ब्राह्मण नेताओं को अपना नेता बनाया। तो दोनों बारी-बारी से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे। विद्या भैया के साथ तीसरे नेता थे अरविंद नेताम। नरसिंह राव का जमाना ब्राह्मण राजनीति के आखिरी दिन थे। सो श्यामा-विद्या भैया की जमकर तूती बोली। अर्जुन सिंह को नरसिंह राव से टकराव लेना पड़ा। तब असलम-भूरिया की जोड़ी भी सामने आई। दोनों न विद्या भैया के खेमे में थे। न अर्जुन खेमे में। नरसिंह राव ने दोनों को भाव नहीं दिया। तो दोनों अर्जुन सिंह के करीब दिखने लगे। नरसिंह राव पर भी निशाना साधने लगे। अर्जुन ने दोनों को जोगी के माध्यम से दाना डाला। दोनों मुंहफट नेताओं के कंधे पर बंदूक रखकर राव पर दागी। असलम-भूरिया ने राव के खिलाफ वर्कर मीटिंग बुला ली। नरसिंह राव थे राजनीति के शातिर। जब असलम के घर मीटिंग चल रही थी। तब राव ने राजस्थान के कैंप्टन अय्यूब खां को जासूस बनाकर भेजा। राव के खिलाफ बोलने पर अय्यूब खां ताव खा गए। नौबत मारपीट पर आ पहुंची। अय्यूब खां को पीट-पीटकर बाहर निकाल दिया गया। रणनीति फ्लाप रही। तो राव ने नई बिसात बिछाई। उनने पीटने और पिटने वाले दोनों को मंत्री बना दिया। इस तरह असलम और अय्यूब खां दोनों मंत्री बने। भूरिया को कुछ नहीं मिला। पर असलम-भूरिया का अर्जुन खेमे से नाता टूट गया। उधर मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव हुए। तो अर्जुन खेमे में दरार पड़ गई। अर्जुन चाहते थे- सुभाष यादव मुख्यमंत्री बनें। कमलनाथ चाहते थे- दिग्विजय सिंह बनें। आखिर तिकोना मुकाबला हुआ। सुभाष यादव-दिग्विजय-श्यामा चरण। दिग्गी राजा बाजी मार गए। तो मध्यप्रदेश में नए समीकरण उभरे। नरसिंह राव का राज गया। तो राव के चेले-चपाटे भी गर्दिश में चले गए। सिर्फ श्यामा भैया ही जमे रहे। वरना विद्या भैया-असलम शेर खां-दिलीप सिंह भूरिया-अरविंद नेताम चारों कांग्रेस छोड़ गए। कभी बीजेपी तो कभी एनसीपी का दामन थामते रहे। अब चारों के चारों घूम-घुमाकर कांग्रेस में लौट आए। तो अर्जुन खेमे के खिलाफ फिर खिचड़ी पकने लगी। अर्जुन सिंह के दिन तो यों भी गर्दिश में। सोनिया के दरबार में अब वैसा दबदबा नहीं। जो शुरू के दिनों में था। पर असल बात दिलीप सिंह भूरिया की। कांग्रेस में लौटकर आए। तो अपन ने निर्मला भूरिया के बारे में पूछा। उनने कहा- 'अभी तो बीजेपी में है। पर चुनाव से पहले कांग्रेस में आ जाएगी।' अपन को पचमढ़ी का वह फैसला अभी याद। लौटकर कांग्रेस में आने वाले को पहले चुनाव में टिकट नहीं मिलेगा। यों भी कांति भूरिया को छोड़ सोनिया घूम-घुमाकर लौटे भूरिया को टिकट क्यों देगी। जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं आती। वैसे ही दो भूरिया एक सीट से कांग्रेस टिकट नहीं पा सकते। सो दिलीप सिंह भूरिया को खुद टिकट की उम्मीद नहीं। निर्मला भूरिया को भी टिकट कैसे दिलाएंगे। यह सवाल अपन को हमेशा मथता रहा। निर्मला भूरिया भी दुविधा में होगी। अपने शिवराज चौहान ने इसी दुविधा का फायदा उठाया। भूरिया अपनी बेटी को सोनिया के पाले में ले उड़ते। इससे पहले ही मंत्री बना दिया। चौहान ने निर्मला को मंत्री बना तो दिया। पर चुनाव के वक्त भी वह बीजेपी में रहेगी। इस बात का क्या भरोसा। बीजेपी की लुटिया डूबती दिखी। तो बाप का दामन थाम ही लेगी बिटिया।
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