अपने अभिषेक मनु सिंघवी का जवाब नहीं। गुर्जर आंदोलन पर बोले। तो वसुंधरा राजे को रानी-महारानी कह गए। पता नहीं सिंघवी का जमहूरियत से भरोसा क्यों उठा। वसुंधरा तो बाकायदा चुनी हुई सीएम। चुनाव में रहनुमाई भी वसुंधरा की थी। मनमोहन सिंह की तरह कतई नहीं। न पहले चुनाव में रहनुमाई की। न अब करेंगे। न जनता ने चुना, न चुने हुए सांसदों ने। सिंघवी की तरह वसु कभी राज्यसभा में भी नहीं रही। फिर सिंघवी का सीएम को रानी-महारानी कहना। अपन को खुन्नस के सिवा कुछ नहीं लगा। गुर्जर आरक्षण पर कांग्रेस का स्टेंड पूछा। तो बंदे के जुबान लड़खड़ाने लगी।
कैसी राजनीतिक पार्टी। राजनीतिक स्टेंड बताने को तैयार नहीं। यूपीए सरकार पैरवी ऐसे करते दिखे। जैसे सरकार खुद लंगड़ी-लूली हो। बोले- 'वसु ने गुर्जरों को धोखा दिया। देश को धोखा दिया। आरक्षण का वादा किया। आरक्षण की चिट्ठी नहीं भेजी। चोपड़ा कमेटी की सिफारिशें भेज दी। जिनका कोई मतलब नहीं।' अब सिंघवी से क्या बहस करें। वकीलों का काम ही बहस करना। अपना नहीं। सो अपन तो आपको बता दें। वसु ने अलग से चार-छह फीसदी आरक्षण का सुझाव भेजा। जरूरत पड़े तो संविधान संशोधन हो। यह भी लिखा। अपन ने पूछा। तो सिंघवी बोले- 'पचास फीसदी से ज्यादा आरक्षण हो नहीं सकता।' तभी अपने एक तमिल खबरची मित्र वेंकट ने याद कराया- 'तमिलनाडु में 67 फीसदी आरक्षण।' तो वकील महाशय बोले- 'यह मामला सुप्रीम कोर्ट में।' तो अपन वह बात बताएं। जो सिंघवी ने नहीं बताई। कांग्रेस तमिलनाडु के दबाव में आई थी। वहां 67 फीसदी के लिए संविधान में संशोधन किया। अब राजस्थान की बारी आई। तो राजनीतिक नौटंकी देखिए। किसी शाहबानो का मामला होता। तो भले सारी दुनिया खिलाफ होती। मुख्यमंत्रियों की मीटिंग बुला लेते। सारे देश में गुर्जरों के लिए संविधान संशोधन हो जाता। पर कांग्रेस करे तो क्या करे। इधर कुआं, तो उधर खाई। गुर्जरों की हिमायत की। तो मीणा खफा होंगे। यही संकट तो बीजेपी का। सो कांग्रेस-बीजेपी में फर्क कोई नहीं। पर राजस्थान में भी कांग्रेस का हाल कर्नाटक जैसा होगा। जहां न लिंगायत साथ रहे, न वोकालिंगा। शुक्रवार को लिंगायत येदुरप्पा ने सीएम पद की शपथ ली। तो वोकालिंगा एस एम कृष्णा हाईकमान के खिलाफ खुलकर बोले। आउटलुक को दिए इंटरव्यू में कहा- 'हाईकमान ने एक नहीं, कई गलतियां की। मैं चाहता था- गवर्नर पद से इस्तीफा देकर बेलगांव से कर्नाटक में घुसूं। जहां राजनीतिक शो होता। तो पार्टी को फायदा होता। माहौल बनता। हाईकमान मुझे चुनाव लड़वाता। तो पार्टी को फायदा होता। हाईकमान मुझे सीएम प्रोजेक्ट करता। तो पार्टी की ऐसी गत न बनती।' एस एम कृष्णा का गुस्सा जायज। गवर्नरी छोड़कर मैदान में कूदे। पर पार्टी ने न टिकट दिया, न प्रोजेक्ट किया। कृष्णा की हालत अब 'न घर के, न घाट के' वाली। न खुदा ही मिला, न वसाल-ए-सनम। न इधर के रहे, न उधर के। पर बात हाईकमान पर गुस्से की। हाईकमान यानी सोनिया गांधी। बात सोनिया की चली। तो बता दें- कांग्रेस एक-एक कर तेरह राज्य हार चुकीं। अब तो हार की समीक्षा के लिए वर्किंग कमेटी भी नहीं बैठती। ताकि सनद रहे, सो बता दें। शनिवार को वर्किंग कमेटी नौ महीने बाद होगी। दिसंबर में वर्किंग कमेटी हुई जरूर थी। पर तब कांग्रेस की सालगिरह का मौका था। राजनीतिक चर्चा नहीं हुई। यों पिछली वर्किंग कमेटी दस मार्च को हुई जरूर थी। पर उस दिन सोनिया को अध्यक्ष बने दस साल हुए। सो बधाई देने के लिए हुई। सनद रहे सो एक बात और बता दें। सवा सौ साल की कांग्रेस में और कोई दस साल अध्यक्ष नहीं रहा। तब कांग्रेस में जमहूरियत हुआ करती थी। परिवारवाद का बोलबाला नहीं था। पर अब जब परिवारवाद का करिश्मा भी फुस्स होने लगा। तब भी वर्किंग कमेटी में कोई सवाल नहीं उठाएगा। आप देख लेना आज।
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