सवाल करार का नहीं, विदेश नीति का

Publsihed: 21.Oct.2007, 20:31

वामपंथी दलों की मुख्य चिंता भारत-अमेरिका एटमी करार की नहीं, अलबत्ता विदेश नीति को लेकर है। एटमी करार के जरिए अमेरिका ने जिस तरह की रणनीति अख्तियार की है, उससे भारत की विदेश नीति में बदलाव होना स्वाभाविक है। मौजूदा सरकार कितना भी कहे कि भारत की विदेश नीति कतई प्रभावित नहीं होगी, लेकिन मनमोहन सिह का यह कथन विश्वसनीय साबित नहीं होता। खासकर ईरान को लेकर अमेरिका के भारत पर पड़ रहे दबाव के कारण यह स्पष्ट हो जाता  है कि महाशक्ति के असली इरादे क्या हैं। अमेरिका चाहता है कि ईरान-पाक-भारत गैस पाईप लाइन का समझौता न हो, इसीलिए उसने भारत के सामने एटमी ऊर्जा का प्रस्ताव रखा था।

अमेरिका ने जिस तरह अफगानिस्तान के खिलाफ पाकिस्तान को इस्तेमाल करके वहां राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर दी है, ठीक उसी तरह का इरादा ईरान के मामले में भारत को इस्तेमाल करने का लगता है। अमेरिका चाहता है कि ईरान के खिलाफ कार्रवाई में भारत उसके साथ रहे। अमेरिका के इराक पर हमले से पहले भारत-अमेरिका संबंधों में काफी नजदीकी आ चुकी थी, इसके बावजूद तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने संसद से इराक पर हमले की निंदा का प्रस्ताव पास करवाया था। जबकि ईरान को एटमी कार्यक्रम बंद करने संबंधी धमकी देने का आईएईए की बैठक में प्रस्ताव पास करवाए जाने के वक्त भारत ने अमेरिका का साथ दिया। हालांकि यह प्रस्ताव उस समय पास हुआ जब वामपंथी दलों के समर्थन से भारत में यूपीए सरकार है। दूसरी तरफ रूस शुरू से ही ईरान के खिलाफ किसी तरह का प्रस्ताव पास करवाए जाने के खिलाफ था, हालांकि जब प्रस्ताव पास हुआ तो रूस ने भी मजबूरी में इसका समर्थन किया। लेकिन रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने पिछले हफ्ते ईरान जाकर अमेरिका के खिलाफ अपने मत का इजहार कर दिया है। ईरान के खिलाफ प्रस्ताव के समय भारत के रुख को लेकर भी यूपीए सरकार और वामपंथी दलों में गंभीर टकराव की स्थिति पैदा हुई थी। जवाहर लाल नेहरू व्यक्तिगत तौर पर कम्युनिस्ट विचारधारा के नजदीक थे इसलिए उन्होंने अमेरिका की तरफ से बढ़ाए गए दोस्ती के हाथ को थामने के बजाए सोवियत संघ से दोस्ती गांठी। नतीजा यह निकला कि अमेरिका ने एशिया में पाकिस्तान को अपना मित्र बना लिया। ठीक उसी समय सोवियत संघ का चीन के साथ तकरार चल रहा था और भारत-सोवियत संघ गठबंधन का नतीजा यह निकला कि चीन भी पाकिस्तान का हमदर्द हो गया। सोवियत संघ ने भारत को न सिर्फ  बाजार की तरह इस्तेमाल किया और अपने ज्यादातर हथियार भारत को बेचने लगा, अलबत्ता भारत के माध्यम से ही तीसरी दुनिया के देशों में प्रवेश किया। दुनिया में उस समय अमेरिका और सोवियत संघ दो बड़ी ताकतें थीं, जवाहर लाल नेहरू ने वैसे तो गुट निरपेक्षता का झंडा बुलंद किया लेकिन भारत को पूरी तरह सोवियत खेमे में ला खड़ा किया था। उन दिनों हालत यह थी कि जो भी कोई अमेरिकी नीतियों या अमेरिका से दोस्ती की पैरवी करता था उसे सीआईए का एजेंट करार दे दिया जाता था। भारत-पाक युध्द के बाद इंदिरा गांधी ने देश को चीन और पाकिस्तान के खतरों से सुरक्षित करने के लिए 1971 में सोवियत संघ से एतिहासिक संधि की (इस संधि की संसद से मंजूरी नहीं ली गई थी, हालांकि इंदिरा गांधी ने जब इसे संसद में पेश किया तो मेजे थपथपाकर स्वागत किया गया था।)। भारत की सोवियत संघ निर्भरता वाली इस संधि का नतीजा यह निकला कि अमेरिका ने पाकिस्तान को सैन्य मदद बढ़ा दी, चीन और सोवियत संघ के संबंध और बिगड़ गए, भारत-चीन के संबंधों में ठंडापन आ गया, चीन और अमेरिका में शीत युध्द जैसे हालात पैदा हो गए, जबकि चीन और पाकिस्तान में दोस्ती और गहरी हो गई। यह स्थिति 1986 में गोर्बाच्योव के वलादिवोस्टोक भाषण तक जारी रही। इस एतिहासिक भाषण में गोर्बाच्योव ने चीन की सीमा से फौजें हटाने और अफगानिस्तान से पीछे हटने का एलान करके विदेश नीति में व्यापक बदलाव कर डाला। इस नई विदेशनीति के बाद सोवियत संघ ने पाकिस्तान और चीन के साथ संबंध सुधारने शुरू किए और 1992 में सोवियत संघ टूटने के बाद तो स्थिति एकदम बदल गई। सोवियत संघ टूटने के बाद 20 जुलाई 2000 को रूस के विदेशनीति संबंधी घोषणापत्र में चीन को अपना पहला मित्र घोषित किया गया। इसके बाद तो भारत के पास अपनी विदेशनीति में बदलाव के सिवा कोई चारा नहीं था। रूस के अचानक पासा पलट लेने के बाद भारत के लिए अपने सामरिक हितों का संकट पैदा हो गया। भारत के सामने एक रास्ता तो यह था कि मल्टीपोलर कूटनीति को अपनाते हुए रूस-चीन-भारत का त्रिगुटा बनाया जाए। कूटनीतिक हलकों में इस पर गंभीर चर्चा हुई, मास्को में वाजपेयी-पुतिन और चीन के राष्ट्रपति की एक बैठक भी हुई। लेकिन इस मल्टीपोलर कूटनीति से भारत के सामरिक हितों की रक्षा में अड़चनों को देखते हुए संतुलित विदेशनीति तैयार की गई। जहां एक तरफ अमेरिका से संबंध सुधारे गए, वहां दूसरी तरफ रूस से मित्रवत संबंध बनाए रखे गए। लेकिन वक्त के मुताबिक सामरिक संबंधों में परिवर्तन करते हुए रूस से सैन्य निर्भरता कम करने का फैसला किया गया। यूपीए सरकार का गठन होने के बाद बनाए गए न्यूनतम साझा कार्यक्रम में भी विदेशनीति को लेकर कोई संसय नहीं था। न्यूनतम साझा कार्यक्रम में साफ कहा गया था कि स्वतंत्र विदेशनीति अपनाते हुए मल्टीपोलर कूटनीति को बढ़ावा दिया जाएगा लेकिन अमेरिका के साथ घनिष्ठ संपर्कों और संबंधों को आगे बढ़ाया जाएगा। ठीक यही विदेशनीति एनडीए सरकार ने अपनाई थी। लेकिन अमेरिका के साथ एटमी करार के साथ जुड़ी हाईड एक्ट की शर्तों ने स्थिति को पूरी तरह बदल दिया है। वामपंथियों के समर्थन से मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद जहां उम्मीद यह की जाती थी कि राजग सरकार के समय अमेरिका के साथ बढ़ गई घनिष्ठता में थोड़ी कमी आएगी, वहां हुआ ठीक इसके उलट है। वामपंथी दलों के दबाव के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार ईरान के मामले में अमेरिका के सामने झुक गई और एटमी ऊर्जा ईंधन हासिल करने के लिए अमेरिका की तरफ झुकाव वाली विदेशनीति अपनाने के साफ संकेत भी दे दिए। वामपंथियों के लिए सबसे बड़ा संकट यह है कि उसके समर्थन से चल रही सरकार अमेरिका समर्थक नीतिया अपना ले तो भविष्य में उसके लिए अमेरिका विरोध बेहद मुश्किल हो जाएगा। इसलिए सवाल अब एटमी करार का नहीं अलबत्ता भारत की विदेशनीति का है, जो इस करार के माध्यम से अमेरिका समर्थक हो जाएगी।

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