कर्नाटक में कांग्रेस क्या हारी। सबको कांग्रेस की फिक्र पड़ गई। अपन दिनभर एक चैनल पर रहे। बार-बार यही सवाल दागा गया-'अब कांग्रेस का क्या होगा। कांग्रेस को क्या करना चाहिए'। मीडिया कांग्रेस की हालत पर दुबला हो चला है। पर अपन उन लोगों में नहीं। जो देश से ज्यादा कांग्रेस की फिक्र करे। कांग्रेस ने परिवारवाद अपनाकर खुद अपनी जड़ों में मटठा डाला। अपन उन लोगों में भी नहीं। जो कांग्रेस के लिए नेहरु-गांधी परिवार को जरूरी समझें। सोनिया के बिना भी नरसिंह राव 145 सीटे लाए थे। सोनिया के बिना भी सीताराम केसरी 141 सीटें लाए थे।
कांग्रेस को एकजुट रखना अलग बात। कांग्रेस को वोट दिलाना अलग बात। सोनिया कांग्रेस को वोट दिला सकती। तो सोनिया के रहनुमाई में कांग्रेस गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान न हारती। यूपी, बिहार, हिमाचल, उत्तराखंड, उड़ीसा, पंजाब न हारती। कर्नाटक की जीत पर आडवाणी भले कहें- कांग्रेस की धोखाधड़ी, जेडीएस के विश्वासघात को जनता ने सबक सिखाया। कर्नाटक के नतीजे में इन दोनों बातों का महत्व। पर मनमोहन की मंहगाई, आतंकवादियों की पैरवी ने भी असर दिखाया। अल्पसंख्यकवाद भी कर्नाटक में औंधे मुंह गिरा। किसानों की कर्जमाफी का लालीपॉप भी नहीं चला। अब इन मु्द्दों का इस साल राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ चुनावों में भी असर हो। तो अपन को हैरानी नहीं होगी। कोई माने न माने। करिश्मे अब चुनाव नहीं जीता सकते। आम आदमी को रोटी-कपड़ा-मकान चाहिए। नारे और परिवारवाद नहीं। नेहरू-गांधी परिवार का करिश्मा खत्म। अपन को एक दिन अरुण जेटली बता रहे थे- 'नेहरू की क्षमता 400 सीटें थी। इंदिरा घटकर 300 पर आ गई। राजीव गांधी 200 पर अटक गए। सोनिया की क्षमता 150 की। राहुल कांग्रेस को 75-100 पर अटका देंगे'। बात राहुल की चली। तो याद करा दें। वह पिछले दिनों बोले थे- 'पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र खत्म'। तो कांग्रेस में लोकतंत्र था भी कब। अपन ने सीताराम केसरी को जब अध्यक्ष पद से हटते देखा। तो अपन को उसी दिन साफ हो गया था- 'कांग्रेस अब सिर्फ परिवारिक कंपनी।' राहुल ने पता नहीं पार्टी में लोकतंत्र की बात कैसे कही। पार्टी में लोकतंत्र ही होता। तो वह इतनी जल्दी महासचिव नहीं बन पाते। पर यह बात तो सोलह आने सही। जिस राजनीतिक दल में लोकतंत्र नहीं होगा। वह राजनीतिक दल नहीं होगा। वह सोनिया की कंपनी होगी। जयललिता की दुकान होगी। लालू यादव का ढ़ावा होगा। मायावती का खोखा होगा। पासवान का ठेला होगा। करुणानिधि की पटरी दुकान होगी। पर राजनीतिक दल नहीं होगें। अपन यूपी में राहुल का करिश्मा देख चुके। गुजरात, हिमाचल, उत्तराखंड में रोड शो का नतीजा देख चुके। कर्नाटक में भी राहुल का इम्तिहान हो गया। कर्नाटक कभी कांग्रेस का तारनहार था। इंदिरा मुसीबत में फंसी। तो चिकमंगलूर गई थी। सोनिया ने बेल्लारी पकड़ी थी। पर अब कांग्रेस का कर्नाटक गढ़ भी टूटा। कर्नाटक तब भी कांग्रेस के साथ था। जब 1977 में पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हुआ। कर्नाटक से बीजेपी का दक्षिणी दरबाजा खुला। तो इसका सेहरा दो नेताओं के सिर बंधेगा। रणनीतिकार अरुण जेटली और जुझारू येदुरप्पा । सेहरा तो आडवाणी के सिर भी बंधेगा। जिनने चुनाव प्रचार में दिन-रात एक किया। कर्नाटक की जनता ने चुनाव में येदु को सीएम के रुप में देखा। तो आडवाणी को भावी पीएम के रुप में। सो आडवाणी अगर अगले साल शपथ का ख्वाब देखें। तो यह ख्याली पुलाव भी नहीं। दिल्ली अब दूर नहीं।
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