फैडरल जांच एजेंसी ही नहीं, फैडरल कानून और फैडरल अदालत की भी जरूरत। आतंकवाद से लड़ने के लिए राज्यों और राजनीतिक दलों को तुच्छ राजनीति छोड़नी होगी।
इसी पखवाड़े राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के नोएडा में डा. राजेश तलवार और डा. नूपुर तलवार की चौदह साल की बेटी आरुषि की हत्या हो गई। नोएडा पुलिस ने पहले दिन हत्या के फौरन बाद से गायब घरेलू नौकर हेमराज पर शक किया। हेमराज की तलाश में पुलिस टीम नेपाल भेज दी गई। अगले दिन डा. तलवार के घर की छत पर हेमराज की लाश मिली, तो पुलिस के होश उड़ गए। नोएडा पुलिस लगातार सात दिन तक हवा में तीर मारती रही और अफवाहों को हवा देती रही।
अखबारों में तरह-तरह की थ्योरियां प्लांट करती रही। आखिर तेईस मई को पुलिस ने एक पोते के दादा पैंतालीस साल के हेमराज और चौदह साल की आरुषि के प्रेम संबंधों की विस्फोटक थ्योरी प्रकट की। थ्योरी का दूसरा हिस्सा था- डा. राजेश तलवार के डा. अनीता दुर्रानी के साथ नाजायज संबंध। पुलिस की थ्योरी यह थी कि बेटी आरुषि और नौकर हेमराज को राजेश तलवार के अनीता दुर्रानी के साथ नाजायज संबंधों का पता चला तो वे दोनों एक-दूसरे के करीब आ गए। डा. तलवार ने अपनी बेटी आरुषि को नौकर के साथ नाजायज हरकतें करते देखा और गुस्से में दोनों की हत्या कर दी। यह थ्योरी प्रकट करते हुए नोएडा पुलिस ने डा. राजेश तलवार को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन अगले ही दिन आरुषि की मां नूपुर तलवार ने पुलिस के सारे आरोपों को बेहूदा, बेवकूफीभरा और झूठा करार देते हुए कहा कि हत्यारे खुले घूम रहे हैं और पुलिस उन्हीं के खिलाफ षड़यंत्र रच रही है।
हत्या के इस मामूली किस्से ने यह जाहिर कर दिया है कि हमारे राज्यों की पुलिस जांच के मामले में कितनी निकम्मी और कमजोर है। राज्यों की ऐसी पुलिस से अंतरराष्ट्रीय साजिश वाली आतंकवादी वारदातों की तह तक जाने की उम्मीद रखना इस देश की भारी भूल होगी। आतंकवाद कोई सामान्य आपराधिक वारदात नहीं है, जिसकी जांच चोरी चकारी रोकने वाली पुलिस के हवाले कर दी जाए। पिछले तीन दशक से आतंकवाद दुनियाभर में बड़ी गंभीर समस्या बना हुआ है और यह स्थानीय स्तर पर काम नहीं कर रहा, अलबत्ता दुनियाभर के आतंकवादी संगठन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, एक-दूसरे को अस्त्र-शस्त्र, आर्थिक मदद और संपर्क मुहैया करवा रहे हैं। कुल मिलाकर आतंकवाद देश पर बाहरी आक्रमण है और संविधान के अनुच्छेद 355 में यह खास प्रावधान किया गया है कि बाहरी आक्रमण से राज्यों की सुरक्षा करना केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है। आतंकवाद को राजनीतिक चश्मे से देखना या आतंकवाद को कानून व्यवस्था का सामान्य समस्या बताना या आतंकवाद को अपराध की सामान्य घटना समझना नादानी ही है। लेकिन अफसोस यह है कि देश के राजनीतिक दल आतंकवाद को राजनीतिक चश्मे से देख रहे हैं, राज्यों की सरकारें आतंकवाद को कानून व्यवस्था का सामान्य मामला बताकर केंद्र सरकार को दखल देने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं। राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों के ये तर्क तब तक ठीक थे जब तक आतंकवाद सिर्फ जम्मू कश्मीर की समस्या थी।
पहले पंजाब और बाद में जम्मू कश्मीर में शुरू हुआ आतंकवाद अब राज्यों की सीमाओं से पार जा चुका है। देशभर में आतंकवादियों का जाल बिछ चुका है, जिनमें ज्यादातर विदेशी और न्यूनतम उनके भारतीय समर्थक हैं, जो उन्हें स्थानीय मदद मुहैया करवाते हैं। किसी राज्य की किसी शहर में होने वाली आतंकवादी वारदात की साजिश किसी और राज्य में रची जाती है, विस्फोटक सामग्री किसी तीसरे राज्य से मंगवाई जाती है और ऑप्रेशन को सरअंजाम देने की जिम्मेदारी किसी चौथे राज्य के आतंकवादियों की होती है। ऐसे हालात में किसी भी राज्य की पुलिस किसी आतंकवादी वारदात के बाद कैसे जांच कर सकती है। हमारे यहां एक राज्य की पुलिस दूसरे राज्य में जाकर जांच करने को समर्थ नहीं है, दूसरे देशों में जाने का तो कोई प्रावधान ही नहीं है, फिर किसी वारदात के अंतरराष्ट्रीय सूत्रों तक कैसे पहुंचा जा सकता है। आतंकवादियों की इस अंतरराष्ट्रीय रणनीति को ग्यारह सितंबर 2001 को न्यूयार्क में हुए आतंकवादी हमले के बाद दुनियाभर में महसूस किया गया, जिसे अमेरिका के स्थानीय आतंकवादियों ने सरअंजाम नहीं दिया था। साजिश अफगानिस्तान में रची गई थी, कोई आतंकवादी पाकिस्तान से गया था, तो कोई सूडान से। न्यूयार्क पर आतंकी हमले के फौरन बाद 27-28 सितंबर 2001 में संयुक्तराष्ट्र ने आतंकवाद के इन पहलुओं पर गंभीरता से विचार किया। लंबे विचार-विमर्श के बाद संयुक्तराष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने आतंकवाद पर प्रस्ताव संख्या 1373 पास किया और दुनियाभर के देशों को सलाह दी कि वे आतंकवादियों की फंडिंग, स्थानीय मदद, शस्त्रों की सप्लाई आदि रोकने के लिए कड़े कदम उठाएं, जिनमें खुफिया एजेंसियों को मजबूत करना और कानूनों को कड़ा करना भी शामिल था। संयुक्तराष्ट्र के इस प्रस्ताव के बाद दुनियाभर में आतंकवाद से निपटने के लिए अपने-अपने देशों की जरूरतों के मुताबिक कानूनों में बदलाव किया गया।
भारत में भी तभी इन बदलावों की जरूरत महसूस की गई और एनडीए सरकार ने अपराधिक न्याय प्रणाली में बदलावों पर विचार करने के लिए जस्टिस वीएस मलिमथ कमेटी का गठन किया। मलिमथ कमेटी ने सिफारिश की कि आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए देश में एक जांच एजेंसी होनी चाहिए और आतंकवाद से जुड़े मुकदमे एक राष्ट्रीय अदालत के हवाले किए जाने चाहिए। जस्टिस मलिमथ ने सरकार को मौजूदा कानूनों में बदलाव कर कानून कड़े करने की सिफारिश भी की। एनडीए सरकार ने दोनों कदम उठाए। सबसे पहले 25 अक्टूबर 2001 को अध्यादेश के जरिए पोटा कानून लागू किया गया। फिर तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देशभर के पुलिस प्रमुखों और गृहसचिवों की बैठक बुलाकर आतंकवाद से निपटने के लिए फैडरल जांच एजेंसी का सुझाव रखा। लालकृष्ण आडवाणी के इस सुझाव को इस बैठक में उत्साहवर्धक समर्थन मिला। लेकिन जैसा कि पोटा बिल का राजनीतिक आधार पर विरोध किया गया उसी तरह जब मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई गई तो गैर एनडीए मुख्यमंत्रियों ने इस सुझाव को राज्यों के अधिकारों में दखल करार देते हुए ठुकरा दिया। सुझाव ठुकराने वालों में कांग्रेसी और कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री प्रमुख थे।
उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस प्रमुख प्रकाश सिंह ने पुलिस सुधार से जुड़ी एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की थी। इस मामले की सुनवाई में मदद के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सोली सोराबजी की रहनुमाई में एक कमेटी बनाई जिसका काम था कि वह पुलिस में सुधार के लिए अपने सुझाव दे। बहस के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह महसूस किया कि आतंकवाद जैसी वारदातों से जुड़ी जांच के लिए देश में एक फैडरल एजेंसी का होना जरूरी है। यह बात 2005 की है, अदालत ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, सोली सोराबजी कमेटी, पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो और केंद्र सरकार से अपनी राय प्रकट करने के लिए कहा। करीब ढाई साल बीत चुके हैं, लेकिन यूपीए सरकार ने फैडरल एजेंसी पर अपनी राय प्रकट नहीं की है। अब देश में लगातार बढ़ रही आतंकवादी वारदातों और यूपीए सरकार का गठन होने के बाद हुई किसी भी वारदात की जांच किसी नतीजे पर नहीं पहुंचने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फैडरल जांच एजेंसी की जरूरत महसूस की है। लेकिन आतंकवाद से निपटने के लिए बनाए गए पोटा कानून को रद्द करने के बाद फैडरल एजेंसी किसी काम की भी नहीं होगी, क्योंकि फैडरल जांच एजेंसी ही नहीं, अलबत्ता फैडरल कड़ा कानून और फैडरल अदालत की भी जरूरत पड़ेगी, तब जाकर आतंकवाद की मांद में घुसकर प्रहार किया जा सकेगा। देश के मौजूदा कानून, मौजूदा खुफिया एजेंसियां, मौजूदा जांच एजेंसियां आतंकवाद के सामने बौनी दिखाई देती हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह पैदा होता है कि आतंकवाद से लड़ने के फैडरल ढांचे के बिना दुनियाभर के देशों से आतंकवाद के खिलाफ साझा लड़ाई और खुफिया एजेंसियों के आदान-प्रदान के समझौतों का क्या मतलब। आतंकवाद से लड़ने के लिए ठोस फैडरल ढांचे की जरूरत है, जिसमें आतंकवादियों और उनके स्थानीय संपर्कों का डाटा, आतंकी संगठनों के अंतरराज्यीय-अंतरराष्ट्रीय संबंधों, वारदातों के तौर-तरीकों, आतंकियों के आर्थिक स्रोतों का विश्लेषण करने के बाद खुफिया तंत्र को मजबूत किया जा सके और उनके खिलाफ प्रो-एक्टिव रणनीति बनाकर सरअंजाम दिया जा सके।
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