यों तो जयपुर की आतंकी वारदात का आज दसवां दिन। अपने यहां तेरहवीं से पहले मातम मनाने की संस्कृति। मार्च 2006 को आतंकियों ने बनारस के मंदिरों में बम फोड़े। तो सोनिया गांधी ने होली नहीं मनाई थी। वाजपेयी, जो होली के शौकीन। उनने भी होली नहीं मनाई। सो अब तेरहवीं से पहले मनमोहन का डिनर अजीब-ओ-गरीब। बनारस में सिर्फ 28 लोग मरे थे। जयपुर में 66 लोग मर चुके। मनमोहन सालाना रिपोर्ट कार्ड जारी करते। डिनर न रखते। तो संस्कृति भी बची रहती। आतंकवाद के खिलाफ गंभीरता भी दिखती। बीजेपी को भी जनता की भावनाओं का ख्याल रखना चाहिए।
अपनी जयपुर वर्किंग कमेटी रद्द भले न करें। कम से कम जून तक तो टालें। बात जयपुर की चल रही है। सो बताते चलें- बीजेपी ने गृहमंत्री शिवराज पाटिल को झूठा साबित कर दिया। तो बुधवार को कांग्रेस की हवा खराब दिखी। रखी-रखाई ब्रीफिंग रद्द कर दी। शिवराज पाटिल यों तो जलेबी जैसी बातें करने में माहिर। पहली बार सीधी बात की। तो बुरी तरह फंस गए। बात बांग्लादेशियों की घुसपैठ की चली। तो अपन राजस्थान के गवर्नर एसके सिंह का बयान बताते चलें। उनने कहा- 'जब वीपी सिंह की सरकार थी। तो उनने बांग्लादेशियों के वोट बनवाने का वादा किया था।' पर यह बात सिर्फ वीपी सिंह पर लागू नहीं होती। सभी सेक्युलर दलों का यही हाल। बांग्लादेशियों को वोट बैंक के लिए कांग्रेस ने तो हमेशा इस्तेमाल किया। असम में घुसपैठियों के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ। तो अगप से समझौता हुआ था- 'घुसपैठियों को निकालने के लिए खास कानून बनाने का।' पर पंद्रह अक्टूबर 1983 को जब ऑर्डिनेंस जारी हुआ। तो उसमें विदेशियों की शिनाख्त का जिम्मा शिकायतकर्ता पर डाल दिया। यानी सरकार चार्जशीट दाखिल करे। तो वही विदेशी साबित करे। जबकि इससे बेहतर तो अपना 1946 का फारनर्स एक्ट था। जिसमें आरोपी को साबित करना पड़ता था- 'वह विदेशी नहीं, अलबत्ता भारतीय।' कांग्रेस ने घुसपैठ रोकने की बजाए बढ़ाने वाला कानून बनाया। एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कानून के खिलाफ हलफिया बयान दिया। तो यूपीए ने आते ही हलफिया बयान बदल दिया। पर सुप्रीम कोर्ट ने कानून को घुसपैठियों का मददगार बता बारह जुलाई 2005 को रद्द कर दिया। तो यूपीए सरकार ने फारनर्स एक्ट में ही असम के लिए तब्दीली कर दी। यह है बांग्लादेशी घुसपैठियों पर कांग्रेस की नीति। सो वसुंधरा की सख्ती पर कांग्रेस तिलमिला गई। पर बात हो रही थी सालगिरह के डिनर की। जिसका मजा लेने मुलायमवादी तो जाएंगे। पर मायावादियों ने न्योता ठुकरा दिया। अपन को मुलायम की राजनीति भी समझ नहीं आई। बीते बजट सत्र में ही महंगाई पर सरकार को कोस रही थी। अचानक मनमोहन सिंह पर लाड़ आ गया। पर सबसे बड़ी दुविधा तो वामपंथियों की दिखी। नंदीग्राम-सिंगूर की हार से वामपंथी तमतमा गए। ममता बनर्जी ने अपनी बढ़त का खूंटा गाड़ दिया। वामपंथी अपनी हार पर कांग्रेस से खफा। अपन ने एक नेता से पूछा- 'क्या मनमोहन के डिनर में जाओगे?' वह बोले- 'कांग्रेस को महंगाई की फिक्र नहीं। ऐसे में कैसा डिनर। कांग्रेस बंगाल के गवर्नर गोपालकृष्ण गांधी का अनुसरन क्यों नहीं करती। कोलकाता में बिजली का संकट हुआ। तो रोज दो घंटे राजभवन की बिजली बंद की।' पर वामपंथियों की करनी-कथनी में बहुत फर्क। नाक-भौँह चढ़ाकर भी डिनर खाने चले जाएं। तो अपन को कोई हैरानी नहीं होगी। यों डिनर में नहीं जाने के लाख बहाने। एक ने महंगाई की बात करी। तो दूसरे ने कहा- 'सुरजीत की हालत पर निर्भर करेगा।' यों सुरजीत की हालत में सुधार। वैसे रिकार्ड के लिए अपन बता दें। वामपंथी दो साल से लेट जा रहे हैं। जब रिपोर्ट कार्ड बंट जाए। तालियां बज जाएं। डिनर शुरू हो जाए। तभी पीएम के घर में घुसते हैं। सो गए भी तो सिर्फ पेट पूजा के लिए जाएंगे। सुना नहीं, पिछले दिनों एबी वर्धन ने कहा- 'हम समर्थन वापस ले लें। तब भी महंगाई नहीं घटनी।'
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