आडवाणी कर्नाटक की भागदौड़ से लौटे। तो हरकिशन सुरजीत का हालचाल पूछने गए। मनमोहन की सरकार बनवाने में अहम भूमिका थी सुरजीत की। सो मनमोहन इतवार को ही अस्पताल हो आए। मनमोहन के साथ सुरजीत कभी संसद में नहीं रहे। पर आडवाणी-सुरजीत एक ही वक्त राज्यसभा में थे। आडवाणी-सुरजीत ने तब भी इकट्ठे काम किया। जब बीजेपी-सीपीएम ने वीपी सरकार को समर्थन दिया। सो आडवाणी ने येचुरी को फोन किया। तो पुराने किस्से याद किए। वैसे अभी ऐसा वक्त नहीं आया था। वाहे-गुरु सुरजीत को चंगा भला करें। जैसे चंगे-भले होकर करुणानिधि अस्पताल से लौटे। सुरजीत का हालचाल पूछ अपने मनमोहन तो चुनावी तैयारियों में जुट गए। कल सरकार की चौथी सालगिरह। इसे अपन चौथा तो नहीं कह सकते।
यों पांचवीं सालगिरह से पहले तो चुनाव हो जाएंगे। सो सरकार का चौथा कहें या चौथी सालगिरह। बात एक ही। है यह आखिरी सालगिरह ही। फिर हो, न हो। सो मनमोहन इस बार जमकर जश्न मनाएंगे। खुदा-न-खास्ता कोई बाधा न पड़े। जैसे वाजपेयी 75 के हुए। तो अपना विमान अपहरण हो गया था। विमान अपहरण का भूत अब फिर निकल आया। जयपुर के बम धमाकों से कांग्रेस घिरी। तो लगी बीजेपी को कंधार याद कराने। तो आडवाणी ने भी कांग्रेस को याद कराई 27 दिसंबर 1999 की मीटिंग। जिसमें कांग्रेस की तरफ से मनमोहन सिंह थे। कांग्रेस को भूलने का पूरा हक। मनमोहन सिंह को भी। पर उस मीटिंग का फैसला था- 'फैसला तो सरकार करेगी। पर जो भी फैसला लिया जाए। यात्रियों की सुरक्षा और हितों को ध्यान में रखकर लिया जाए।' यानी तब यात्रियों की सुरक्षा अहम थी। ऑल पार्टी मीटिंग का यह फैसला कांग्रेस ने बताया था। आडवाणी, जसवंत या प्रमोद ने नहीं। पर अब जयंती नटराजन कहती हैं- 'आडवाणी को भूलने की आदत। जनता आडवाणी पर भरोसा न करे।' पर नहीं, आज बात मनमोहन सिंह के जश्न की। सो आखिरी साल में गिले-शिकवे खत्म। सरकार बनी थी। तो सोनिया का घमंड सातवें आसमान पर था। घर पर समर्थन देने आए मुलायम के दूत अमर सिंह को दुत्कार दिया। कहा- 'आपको बुलाया किसने?' तब यही सुरजीत साथ लाए थे। अब वह सुरजीत अस्पताल में। तो सोनिया को तब के किए पर अफसोस। सो अबके सालगिरह पर मनमोहन ने मुलायम को भी न्योता भिजवा दिया। रात को नेता जीमेंगे। तो दिन में खबरची। चलो, शुकर है- खबरचियों को जीमने का मौका मिला। मनमोहन खाने-पीने के शौकीन नहीं। सो वाजपेयी की तरह खबरचियों को गाहे-बगाहे न्योते नहीं मिले। अब चौथे का जिमना ही सही। पर अपन को डर है- कहीं कोई विघ्न न हो। पर असली बात आतंकवाद की। अपन प्रणव दा के ताजा फिक्र की बात करेंगे। पर पहले शिवराज पाटिल की बात। जो बांग्लादेशियों को कैंप में रखने की बात पर घिर गए। वसुंधरा को झूठा कहा। कहा- 'केंद्र ने ऐसी कोई चिट्ठी नहीं भेजी।' तो गुलाब कटारिया ने जरा देर नहीं की। उस चिट्ठी की तारीख बता दी- 'सत्ताईस जनवरी 2007'। जो केंद्र सरकार ने भेजी थी। अब मनीष तिवारी बोले- 'केंद्र ने कोई चिट्ठी भेजी होगी। तो फारनर्स एक्ट के मुताबिक ही भेजी होगी।' अपन कानूनी पचड़े में नहीं पड़ते। बात तो राजनीतिक लुका-छिपी की। पर ज्यादा गंभीर बात आतंकवाद की। जिस पर लंबी तानकर सोई थी मनमोहन सरकार। अब जब चुनाव नजदीक। तो फेडरल एजेंसी की याद आ गई। यों फेडरल कानून के बिना फेडरल एजेंसी किस काम की। यह तो मनमोहन ही बताएंगे। पर जब घिर गई सरकार। तो प्रणव दा को भी याद आया पाकिस्तान को आतंकवाद का वादा याद कराना। जो मुशर्रफ ने जनवरी 2004 में वाजपेयी से किया था- 'पाकिस्तान की जमीन से आतंकवाद नहीं होने देंगे।' पर अब फिर घुसपैठ की कोशिश। सीज फायर भंग करने के उदाहरण। सो मंगलवार को प्रणव दा इस्लामाबाद पहुंचे। तो जरदारी-शरीफ को शराफत से पेश आने की सलाह दी। यही सलाह आज पीएम गिलानी-राष्ट्रपति मुशर्रफ को देंगे।
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