वोट बैंक की जमहूरियत में इंसानियत हुई स्वाहा:

Publsihed: 15.May.2008, 20:41

अपन को चुनाव करना होगा। इंसानियत और जमहूरियत में से किसे चुनें। शायद ही कोई ऐसा शख्स मिले। जो इंसानियत पर जमहूरियत को तरजीह दे। इकसठ साल पहले अपन को आजादी मिली। तो अपन ने जमहूरियत को खुद अपनाया था। पर अब जब जमहूरियत ही इंसानियत में आड़े आए। तो क्या अपन को सोचना नहीं चाहिए? अपन ऐसी जमहूरियत का क्या करेंगे? जिसमें इंसानियत ही न बचे। अब तो जमहूरियत ने इंसानियत पर ही हमला बोल दिया। सोचो, जमहूरियत में वोटों का लालच न होता। तो बांग्लादेशी निकाल बाहर न किए जाते। बांग्लादेशी घुसपैठिए कब वोटर बन गए। अपन को पता ही नहीं चला। पता तब चला, जब अपनी जमहूरियत घुसपैठियों ने लूट ली। अब आजादी लूटने पर भी आमादा।

 वही बांग्लादेशी। जिन्हें अपन ने पाक के जुल्मों से आजाद करवाया। पाकिस्तान से लश्कर सक्रिय। तो बांग्लादेश से हूजी। बांग्लादेशी-पाकिस्तानी आतंकी भारत के खिलाफ घी-खिचड़ी। घुसपैठियों के अड्डे आतंकियों के ठिकाने बन चुके। जब आतंकियों के ठिकाने हर शहर में मौजूद। तो अपन आतंकवाद पर कैसे पाएंगे काबू। अपन को हंसी भी आई, गुस्सा भी। जब शिवराज पाटिल बोले- 'जिस मकसद से विस्फोट किए गए थे। वह पूरा नहीं हुआ।' चौंसठ बेकसूरों का खून भी तो मकसद था आतंकियों का। जो बाखूबी पूरा हुआ। पर अपने पाटिल को नहीं दिखा। वह सोनिया के साथ जयपुर पहुंचे। तो बोले- 'भारत आतंकवाद के खिलाफ हर कीमत पर लड़ेगा।' पाटिल से एक सवाल। क्या घुसपैठियों के वोटों की कीमत पर भी। पाटिल साहब भारत की बात छोड़ दें। आप तो कांग्रेस और यूपीए सरकार की बात करें। कांग्रेस-यूपीए की आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की नियत होती। तो पोटा रद्द न करते। पाटिल से एक और सवाल। पोटा रद्द क्यों किया गया? क्या सिर्फ वोट बैंक उसका कारण नहीं था? आतंकवाद के खिलाफ हर कीमत पर लड़ने की नियत होती। तो अफजल को अब तक फांसी मिल चुकी होती। इससे आतंकवाद से हर कीमत पर लड़ने की आपकी नियत झलकती। हाथों-हाथ बात सोनिया के दौरे की। जिस पर अपनी वसुंधरा भड़की। तो कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी बोले- 'सोनिया पहले भी ऐसे मौकों पर मौका-ए-वारदात पर जाती रही। कोई पहली बार नहीं गई। सीएम का ऐतराज समझ नहीं आया।' कांग्रेस को समझ आएगा भी नहीं। वह आतंकवाद से लड़ने के लिए सख्त कानून जरूरी नहीं समझती। इसीलिए पोटा रद्द किया। इसलिए राजस्थान का राकोका लटका रखा है। तो क्या यह दोहरा चरित्र न हुआ। एक तरफ आतंकवादियों से हमदर्दी। दूसरी तरफ आतंकवाद के शिकार आम आदमी से हमदर्दी। ऐसे घड़ियाली आंसुओं को वसुंधरा ने ठीक वक्त पर बेनकाब किया। अपन को हैरानी प्रणव दा के बयान पर भी हुई। जो रूस में जाकर बोले- 'आतंकवाद पर जीरो टॉलरैंस नीति होनी चाहिए। संयुक्तराष्ट्र आतंकवाद के खिलाफ फौरी सम्मेलन बुलाए।' आप क्या जीरो टॉलरैंस करेंगे। जो दबाव में पोटा रद्द कर दे। दबाव में अफजल को फांसी न दे। जहां तक बात संयुक्तराष्ट्र की। तो संयुक्तराष्ट्र ने 28 सितंबर 2001 को एक प्रस्ताव पास किया। जो 1373 के नाम से मशहूर हुआ। प्रस्ताव था- 'आतंकवाद से कैसे लड़ा जाए। दुनियाभर की सरकारें क्या-क्या कदम उठाएं।' प्रस्ताव के तीसरे नुक्ते का 'एफ' हिस्सा प्रणव दा को याद कराएं। कहता है- 'किसी को भी रिफ्यूजी का दर्जा देने से पहले ख्याल रखा जाए। कहीं वे आतंकवाद का इरादा बनाकर तो नहीं घुस रहे।' प्रणव दा-पाटिल जरा बांग्लादेशियों को इस प्रस्ताव की निगाह से देख लें। अदालतें कह-कहकर थक गईं। पर अपनी सेक्युलर सरकारें घुसपैठियों को निकालने पर राजी नहीं। बांग्लादेशियों को निकालने की बात करिए। तो आप सांप्रदायिक हो जाएंगे। वोट बैंक का लालच बुरी बला बन चुका। जमहूरियत तो अब अपन को इंसानियत पर कलंक दिखने लगी।

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