अपन आपकी याददाश्त फिर ताजा कर दें। कंधार अपहरण कांड हुआ। तो देश में क्या हालात थे। वाजपेयी पीएम थे। जसवंत सिंह विदेश मंत्री। वही जसवंत जिनने तब अमेरिकापरस्ती की कोई कसर नहीं छोड़ी। हालांकि विमान अपहरण के वक्त अपन ने मदद मांगी। तो अमेरिका ने मुंह फेर लिया था। अब अपहरण कांड फिर सुर्खियों में। जबसे आडवाणी पीएम पद के उम्मीदवार हुए। कईयों की छाती पर सांप लौट गया। आडवाणी को कटघरे में खड़ा करना कांग्रेस का तो काम। पर जसवंत-यशवंत को क्या हुआ। अपन को दोनों कांग्रेस की कठपुतली तो नहीं लगते। अपन को वह दिन नहीं भूले। जब वाजपेयी राज के वक्त एक संपादक ने लेख लिखा था- 'जसवंत सिंह हो सकते हैं वाजपेयी के उत्तराधिकारी।'
जिस संपादक ने लिखा। वह आज भी जसवंत के कायल। जसवंत की बात अलग। पर यशवंत सिन्हा। वह तो दूर-दूर तक पीएम रेस में नहीं हो सकते। पर जसवंत-यशवंत ने कांग्रेस को मौका दिया। तो कांग्रेस आडवाणी के खिलाफ जहर क्यों न उगले। सो सोमवार को अपने अभिषेक मनु सिंघवी ने सवाल दागा- 'खुद को भावी पीएम बताते हैं, पर राष्ट्रीय सुरक्षा की बैठक में मौजूद नहीं रहते। उन्हें देश को बताना चाहिए कि वह उस समय कहां थे?' राजनीति में सच-झूठ की कोई फिक्र नहीं करता। पर अपन हैरान मीडिया पर। जो सात साल में सब कुछ भूल गया। सात साल की बात तो छोड़िए। उन्नीस मार्च को जारी किताब पर भी चंडूखाने की बातें। आडवाणी ने 'माई कंट्री, माई लाइफ' में वह कहीं नहीं लिखा। जो किताब में लिखा कहा जा रहा है। मीडिया कहता है- 'आडवाणी ने लिखा है कि तीन आतंकियों को छोड़ने की उन्हें कोई जानकारी नहीं थी।' पर आडवाणी ने अपनी किताब में ठीक इसके उलट लिखा है। उनने लिखा- 'सरकार चारों तरफ से दबाव में थी। इसी दबाव में आतंकियों को छोड़ने का फैसला लेना पड़ा।' हां, आडवाणी ने शेखर गुप्त को इंटरव्यू में जरूर कहा- 'आतंकियों के साथ जसवंत जाएंगे। यह बात मुझे आखिरी वक्त ही पता चली।' यहां भी उनने नहीं कहा- 'मुझे पता नहीं था।' पर कांग्रेस-मीडिया ने विवाद खड़ा कर दिया। तो जसवंत सिंह इतवार को एक सवाल के जवाब में बोले- 'आडवाणी उस समय सीसीएस मीटिंग में नहीं रहे होंगे। या वह भूल गए होंगे।' तो अपन तब के हालात याद करा दें। पीएम के घर पर प्रदर्शन हो रहे थे। बकौल राजनाथ सिंह- 'प्रदर्शन के पीछे कांग्रेस थी।' कांग्रेस ने तब ऑन रिकार्ड कहा था- 'सरकार संकट से निपटने को उचित फैसला ले।' उन्हीं हालत में तीन आतंकियों को छोड़ने की सौदेबाजी हुई। सौदेबाजी की थी- विवेक काटजू, अजीत दोवल, सीडी सहाय ने। तीनों आला अफसर थे। अब कांग्रेस का सवाल उठाना वक्त की पैंतरेबाजी। हजरत बल को भूल जाना भी वक्त की जरूरत। पर बात आतंकियों के साथ जसवंत सिंह के जाने की। तो अपन याद कराएं 31 दिसंबर 1999 का दिन। जब सीसीएस में फैसला हुआ। आडवाणी नहीं, भूले हैं जसवंत सिंह। अगर जसवंत सिंह के साथ जाने का फैसला हुआ था। तो उनने अपनी किताब 'ए कॉल टू ऑनर' में क्यों नहीं लिखा। फैसला हुआ था। तो सीसीएस मीटिंग के रिकार्ड में भी होगा। क्या केबिनेट सेक्रेटरी प्रभात कुमार भी लिखना भूल गए। पर जितना अपन जानते हैं- 'फैसला सिर्फ तीन की रिहाई का हुआ था।' मीटिंग खत्म हो गई। आडवाणी ही नहीं, बाकी मंत्री भी चले गए। जसवंत सिंह के साथ सिर्फ अफसरान बचे थे। तब विवेक काटजू ने कहा- 'इस मौके पर ऐसा व्यक्ति रहना चाहिए। जो नाटकीय हालात में फैसला ले सके। जो जरूरत पड़ने पर फौरन पीएम से बात कर सके।' तब जसवंत सिंह ने कहा- 'तो मैं साथ चलने को तैयार हूं।' यह जसवंत सिंह की बहादुरी थी। पर उसी विमान में जाने का फैसला गलत था। यह फैसला सीसीएस में भी नहीं हुआ था।
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