कांग्रेस के करिश्माई नेतृत्व का अंत

Publsihed: 10.May.2008, 20:40

राजनीति में हर छोटी बात का महत्व होता है। यह अनुभव से ही आता है। गुजरात विधानसभा के चुनावों में सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर ही तो कहा था। इस छोटी सी बात से गुजरात में कांग्रेस की लुटिया डूब गई। चुनाव जब शुरू हुआ था तो कांग्रेस का ग्राफ चढ़ा हुआ था और दिल्ली के सारे सेक्युलर ठेकेदार ताल ठोककर कह रहे थे कि इस बार मोदी नप जाएंगे। चुनावी सर्वेक्षण भी कुछ इसी तरह के आ रहे थे। लेकिन जैसे-जैसे चुनावी बुखार चढ़ा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी मौत के सौदागर जैसी छोटी-छोटी गलतियां करती चली गई और आखिर में कांग्रेस बुरी तरह लुढ़क गई। सोनिया गांधी को तो अपनी गलती का अहसास हो गया होगा, लेकिन उनके इर्द-गिर्द चापलूसों का जो जमावड़ा खड़ा हो गया है उसने वक्त रहते गलती सुधारने नहीं दी।

कांग्रेस ने ताल ठोककर कहा कि सोनिया गांधी ने जो कहा, ठीक कहा। दूसरी तरफ 2004 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी को मिक्स ब्रीड का बछड़ा कहकर जो गलती की थी, उस पर भारतीय जनता पार्टी ने कड़ा ऐतराज जताया था। नरेंद्र मोदी ने अपना वाक्य वापस भी ले लिया था, इसके बावजूद गुजरात में भाजपा की लोकसभा सीटें घट गई थी। इसलिए चुनावों के समय की गई हर छोटी-मोटी गलती का चुनाव नतीजों पर गहरा असर पड़ता है।

गुजरात विधानसभा के चुनाव नतीजों से यह समझ आ जाना चाहिए कि 2004 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 145 सीटें सोनिया गांधी के किसी करिश्मे के कारण नहीं मिली थी। कांग्रेस की सीटों में कोई बहुत ज्यादा इजाफा नहीं हुआ था जो उसे सोनिया गांधी का करिश्मा कहा जाए। पांच साल पहले सोनिया गांधी की रहनुमाई में ही कांग्रेस 114 सीटें जीती थी और 2004 में बढ़कर 145 हो गई थी। नरसिंह राव भी 1996 में कांग्रेस को 140 सीटें दिला लाए थे और सीताराम केसरी ने भी 1998 में कांग्रेस को 141 सीटें दिला दी थी। इसलिए सोनिया गांधी किसी भी तरह नरसिंह राव या सीताराम केसरी से बडी साबित नहीं हुई। कांग्रेस पिछले बारह सालों में हुए चार लोकसभा चुनावों में 114 से 145 सीटों के बीच लुढ़क रही है। इनमें से दो चुनाव सोनिया गांधी की रहनुमाई में लड़े गए हैं। कांग्रेस अगर यह समझती है कि चार साल के यूपीए शासन में सरकारी इश्तिहारों पर असंवैधानिक ढंग से सोनिया गांधी के फोटो छापने से उनकी लोकप्रियता में इजाफा हो गया है और लोकसभा चुनावों में उन्हें फायदा होगा, तो वे निश्चित रूप से गलतफहमी का शिकार हैं। इन्हीं पिछले चार सालों में यूपी, बिहार, पंजाब, कर्नाटक, हिमाचल, उत्तराखंड, गुजरात, मेघालय, नगालैंड और बंगाल में सोनिया गांधी की लोकप्रियता का इम्तिहान हो चुका है। इन दस में से पांच राज्यों कर्नाटक, मेघालय, पंजाब, हिमाचल, उत्तराखंड में अच्छी-भली कांग्रेस की सरकारें थी। कांग्रेस गोवा में गवर्नर के दुरुपयोग से, झारखंड में राजनीतिक बेईमानी से और महाराष्ट्र में शरद पवार के बूते पर सरकार में है। सिर्फ आंध्र प्रदेश और हरियाणा ऐसे दो राज्य हैं जहां कांग्रेस क्षेत्रीय दलों क्रमश: तेलुगूदेशम और इनलोद के शासन को ध्वस्त करके नकारात्मक वोटों के भरोसे सत्ता में पहुंची है। एकमात्र दिल्ली ऐसा राज्य है जहां सोनिया गांधी के बागडोर संभालने के बाद कांग्रेस लगातार दस साल से सत्ता में है।

सोनिया गांधी के तथाकथित करिश्मे की इस हकीकत के बावजूद कांग्रेस पता नहीं किस भरोसे पर 2009 का लोकसभा चुनाव जीतने का भ्रम पाले हुए है। कांग्रेस मोटे तौर पर दो कारणों से आशान्वित है। पहला कारण राहुल गांधी का नेहरू-इंदिरा परिवार के नए वारिस के तौर पर उभरना और दूसरा कारण मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, बिहार, गुजरात और उत्तर प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकारों के नकारात्मक वोट। अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव का आंकलन लगाने से पहले हमें पिछले लोकसभा चुनाव की याद करनी चाहिए। पांच साल पहले भी कांग्रेस इन्हीं दो कारणों से सत्ता तक पहुंची थी। कांग्रेस के सत्ता में आने की उम्मीद की एक वजह थी सोनिया गांधी का करिश्मा, जो कांग्रेस को लगातार राज्यों में दुबारा सत्ता में ला रही थी। सोनिया गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने से पहले कांग्रेस पूर्वोत्तर के छोटे-मोटे चार राज्यों समेत पूरे देश में सिर्फ आठ राज्यों में सिमट गई थी। सोनिया के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद धीरे-धीरे यह संख्या बढ़कर तेरह हो गई थी। हालांकि नए राज्यों में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के नकारात्मक वोटों के कारण सत्ता में आई थी, लेकिन पार्टी की चापलूसी आधारित राजनीति के तहत उसे सोनिया गांधी का करिश्मा कहकर प्रचारित किया जा रहा था। सोनिया गांधी का करिश्मा लोकसभा चुनावों में कितना काम किया उसका खुलासा हम ऊपर कर चुके हैं। उनके अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस 1999 में 141 सीटों से घटकर 114 पर आ गई थी और छह साल के एनडीए शासन के बाद उसके नकारात्मक वोटों के भरोसे 145 पर आई। इसलिए सोनिया गांधी का करिश्मा मानना कांग्रेस का खुद को धोखे में रखना ही है। छह साल के एनडीए शासन के बावजूद कांग्रेस 2004 में वहीं खड़ी थी, जहां 1996 में नरसिंह राव ने छोड़ा था। अलबत्ता एनडीए के नकारात्मक वोटों का प्रभाव न होता तो कांग्रेस वही 114 सीटों पर खड़ी रहती, जहां 1999 में सोनिया गांधी ने पहुंचाया था। पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का ग्राफ ज्यादा गिरा, लेकिन कांग्रेस का ग्राफ उतना नहीं बढ़ा। भाजपा 182 सीटों से घटकर 138 पर आ गई, उसकी 44 सीटें घटी, लेकिन कांग्रेस की सिर्फ 31 सीटें बढ़ी। इसका मतलब यह हुआ कि सोनिया का करिश्मा तो चला ही नहीं, एनडीए के नकारात्मक वोटों का भी कांग्रेस को उतना फायदा नहीं हुआ। करिश्मे और नकारात्मक वोटों का पिछला हिसाब-किताब सामने रखकर ही हमें 2009 के लोकसभा चुनावों का आंकलन करना चाहिए, क्योंकि कांग्रेस गैर कांग्रेसी राज्यों के नकारात्मक वोटों और राहुल गांधी के करिश्मे पर उम्मीद लगाकर चुनाव में उतरने की तैयारी कर रही है। अपने पांच साल के शासनकाल से सकारात्मक वोटों की उम्मीद कांग्रेस को कतई नहीं है, इसलिए मनमोहन सिंह को दरकिनार कर राहुल गांधी को युवराज की तरह चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है।

पहले बीजेपी के नकारात्मक वोटों की बात। कांग्रेस मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में जरूर भरोसा कर सकती है। इन तीनों भाजपाई राज्यों के नकारात्मक वोटों का कांग्रेस को कुछ न कुछ फायदा जरूर हो सकता है, लेकिन ऐसा नहीं कहा जा सकता कि केंद्र सरकार की महंगाई जैसी नकारात्मक बातों का वोटरों के दिलो-दिमाग पर असर नहीं पड़ेगा। वोटर अब लोकसभा और विधानसभा चुनावों में फर्क को बखूबी जानता है और राज्यों के नकारात्मक वोट केंद्र में कांग्रेस के लिए सकारात्मक नहीं हो सकते। अलबत्ता इन तीनों राज्यों में भी कांग्रेस को केंद्र सरकार की नाकामियों के नकारात्मक वोटों का सामना करना पड़ेगा। फिर भी अगर इन तीन राज्यों से कांग्रेस को कुछ फायदा हुआ भी, तो उतना नुकसान आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में हो जाएगा। बंगाल, तमिलनाडु से कांग्रेस कोई उम्मीद पाले ही ना। कर्नाटक में भी सीटें बढ़ने से रही। अगर कांग्रेस बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात से किसी तरह की उम्मीद रख रही हो, तो निश्चित रूप से गलतफहमी का शिकार है। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस दो दशक से सत्ता से बेदखल है और पिछले एक दशक से तो सोनिया गांधी के करिश्मे का दो-दो बार और राहुल गांधी के करिश्मे का भी एक बार इम्तिहान हो चुका है। राहुल इन तीनों राज्यों में अपने रोड-शो में पिट चुके हैं। चुनावों के दौरान और चुनावों से पहले राजनीति में हर छोटी-मोटी गलती का महत्व होता है। अब जबकि लोकसभा चुनावों की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं, तो राहुल गांधी की फैसला लेने वाली पहली गलती सामने आ चुकी है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश दास ही एकमात्र ऐसे कांग्रेसी नेता थे, जो एक दशक से अपनी जड़ें जमाने की कोशिशों में लगे हुए थे। उनकी जड़ें मजबूत हो भी गई थी, यही वजह थी कि कांग्रेस ने पिछले चुनावों में अखिलेश दास को अटल बिहारी वाजपेयी के सामने चुनाव मैदान में उतारने का फैसला किया था। लेकिन जमीनी हकीकत से नावाकिफ राहुल गांधी ने अपने चापलूस समर्थकों के कहने पर अखिलेश दास को केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटवाकर कांग्रेस को ही कमजोर किया है। जवाहर लाल नेहरू के समय तक कांग्रेस के ताकतवर क्षत्रप हुआ करते थे, जिनकी अनदेखी करके कांग्रेस आलाकमान पार्टी और संगठन के फैसले लेने की ताकत नहीं रखता था, इंदिरा गांधी ने इन सभी क्षत्रपों को एक-एक करके धराशाही कर दिया। दिल्ली के इशारों पर मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष बदले जाने लगे, नतीजा यह निकला कि कांग्रेस जड़ों से कट गई। अखिलेश दास के मामले में नए करिश्माई नेता की ओर से लिए गए फैसले को भी उसी रौशनी में देखा जा सकता है।

चुनाव मैदान में उतरने वाला हर कांग्रेसी अब यह जानता है कि सोनिया गांधी या राहुल गांधी उसके चुनाव की नैय्या पार नहीं लगा सकते। इसलिए कांग्रेस के नेता अब उनके फैसलों को आलाकमान का आदेश मानकर वैसे ही नहीं मानते, जैसे इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के जमाने में मानने लगे थे। कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह ने सोनिया गांधी के फैसले लेने की पध्दति पर सवाल उठाकर पार्टी में आने वाले बिखराव के संकेत दे दिए हैं। अर्जुन सिंह का बयान ठीक उस समय आया है जब कांग्रेस के दो सांसदों कुलदीप विश्नोई और मदन लाल शर्मा ने सोनिया गांधी के नेतृत्व को खुली चुनौती दी है और तीसरे सांसद अखिलेश दास ने सोनिया के साथ-साथ राहुल गांधी को भी चुनौती दे दी है। इन चार नेताओं के रुख से स्पष्ट है कि सोनिया गांधी का पार्टी को एकजुट रखने का करिश्मा ढल रहा है और राहुल का करिश्मा जोर पकड़ने का नाम नहीं ले रहा है।

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