अपन को पहले से पता था- 'डा. वेणुगोपाल कोर्ट में जीत जाएंगे।' हेल्थ मिनिस्टर अंबूमणि रामदौस दो साल से हाथ धोकर पीछे पड़े थे। अंबूमणि जैसे ही नई साजिश रचते। अरुण जेटली अदालत से वेणुगोपाल को राहत दिला लाते। अंबूमणि जब अदालतों से थक-हार गए। तो नवंबर में एम्स डायरेक्टर की उम्र पर नया कानून बनवा दिया। कानून था- पैंसठ साल की उम्र तक ही कोई डायरेक्टर हो सकेगा। वेणुगोपाल हो गए थे पैंसठ के। एनडीए राज में हेल्थ मिनिस्टर रही सुषमा स्वराज ने संसद में कहा था- 'यह बिल सिर्फ वेणुगोपाल के खिलाफ व्यक्तिगत दुर्भावना से लाया गया।' अब सुप्रीम कोर्ट ने सुषमा की कही बात सच साबित की। अदालत ने कानून को रद्द कर दिया। वेणुगोपाल बहाल हो गए। रामगोपाल वर्मा की एक फिल्म आई थी- 'अब तक छप्पन।' तो अब वेणुगोपाल के एम्स में 'अब सिर्फ छप्पन।'
अदालत से गुहार लगाकर बेकार हुए 160 दिन न मांगे। तो तीन जुलाई तक डायरेक्टर रहेंगे सिर्फ छप्पन दिन। जब वेणुगोपाल को हटाने के लिए संसद में कानून बन रहा था। तब सेंट्रल हाल में अंबूमणि से अरुण जेटली टकरा गए। अंबूमणि ने कहा- 'आप वेणुगोपाल को क्यों बचा रहे हैं?' जेटली ने कहा- 'आप बाकी बचे सात-आठ महीने काम करने दीजिए। यही ठीक रहेगा।' पर अंबूमणि ने वेणुगोपाल को हटाना अपनी इज्जत का सवाल बना लिया। एक नहीं कई बार हटाया। हर बार कोर्ट से मात खाई। अंबूमणि की जिद भी बच्चों वाली रही। डाक्टरों की डिग्रियों पर दस्तखत तक से इनकार कर दिया। हाईकोर्ट ने अंबूमणि का बाजा बजाया। चौबीस घंटे में डिग्रियों पर दस्तखत की हिदायत दी। तो अंबूमणि की घिग्घी बंधी। तब अपन ने चार सितंबर को 'जागो मोहन प्यारे' में लिखा- 'यह जागने की घड़ी अंबूमणि की नहीं। जागने की घड़ी मनमोहन प्यारे की। साख अंबूमणि की नहीं। अलबत्ता मनमोहन सरकार की गिरी।' पर मनमोहन नहीं जागे। उनने अंबूमणि के कहने पर नया बिल बनवा दिया। संसद से पास भी करवा दिया। अपनी प्रतिभा ताई से दस्तखत भी करवा दिए। सारा देश जानता था। कानून सिर्फ वेणुगोपाल के खिलाफ। पर मनमोहन नहीं जानते थे। अब सुषमा स्वराज ने कहा- 'अदालत के फैसले पर पीएम अपने बारे में सोचें, या न सोचें। पर अंबूमणि से तो इस्तीफा लें।' खुद अंबूमणि ने तो इस्तीफे से इनकार कर दिया। उन्हें अदालत के फैसले से झटका भी नहीं लगा। पिछले दो साल में उनने अदालत के इतने झटके सह लिए। वह तो झटकाप्रूफ हो चुके। अपन जानते हैं- अंबूमणि से इस्तीफा लेना मनमोहन के बस में भी नहीं। मनमोहन तो खुद भी इस्तीफा देने की हैसियत नहीं रखते। वह लाल बहादुर शास्त्री नहीं हो सकते। जिनने एक टे्रन दुर्घटना पर इस्तीफा दे दिया था। मनमोहन इस्तीफा देने की सोचते। तो तभी सोच लेते। जब सुप्रीम कोर्ट ने बिहार विधानसभा भंग करने को गलत ठहराया। मनमोहन ने तब बूटा सिंह से तो इस्तीफा ले लिया। पर अपनी केबिनेट की गलती नहीं मानी। राष्ट्रपति से दस्तखत करवाने की गलती नहीं मानी। बूटा सिंह ने तो वही किया था। जो दिल्ली से कहा गया था। अब जब कोर्ट की फटकार पर बूटा सिंह का इस्तीफा लिया। तो मनमोहन को जवाब देना होगा- अंबूमणि से इस्तीफा क्यों नहीं। पर मनमोहन न इस्तीफा मांगेंगे, न बर्खास्त करेंगे। मनमोहन सरकार तो को-ऑपरेटिव सोसायटी की तरह चल रही है। जिसमें पीएम की कोई धमक नहीं। जहां तक बात अंबूमणि की। तो उनने सरकारी वैक्सीन से चौदह बच्चों की मौत पर इस्तीफा नहीं दिया। कोर्ट की फटकार पर क्यों देंगे। अपन को तो डर है- कहीं दोनों जजों पर ही अपरकास्ट की तोहमत न लगा दें। कहीं ज्यूडिशरी में ओबीसी रिजर्वेशन की मांग न रख दें। आखिर यह लड़ाई तो ओबीसी कोटे पर ही शुरू हुई थी।
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