अब फिर कभी महिला बिल लाने की जरूरत नहीं

Publsihed: 06.May.2008, 20:48

सोचो, राज्यसभा न होती। लोकसभा होती। तो सोमनाथ चटर्जी क्या करते। राज्यसभा में मंगलवार को जो हुआ। लोकसभा में तो 24 और 28 अप्रेल को कुछ भी नहीं था। दादा ने फिर भी 32 सांसदों पर फंदा लगा दिया था। तो बात राज्यसभा की। हंगामे, नारेबाजी, धक्का-मुक्की के बीच महिला आरक्षण बिल पेश हो गया। यूपीए का काम खत्म। चार दिन पहले जिक्र तक नहीं था। आखिर इसकी अचानक जरूरत क्यों पड़ी? कहीं मिड टर्म पोल की घंटी तो नहीं बजने वाली। अपन ने दो मार्च को लिखा था- 'जून में भंग तो नहीं हो जाएगी लोकसभा।' यों एटमी करार पर यूपीए-लेफ्ट मीटिंग एक बार फिर बेनतीजा रही। अपन को इस पहेली की समझ नहीं आई।

आईएईए से सेफगार्ड समझौते का ड्राफ्ट तैयार। मंगलवार को उसी पर बात होनी थी। फिर बात 28 मई तक क्यों टली। मीटिंग शुरू होने से पहले करार पर मनमोहन के दूत श्यामसरन बोले- 'करार बुश के राष्ट्रपति रहते ही होना चाहिए। सरकार बदली, तो कोई ठोर नहीं।' पर अपन से पूछो। तो मनमोहन के सामने अब दो ही रास्ते। या तो करार को भूल जाएं। या सरकार को भूल जाएं। आखिरी वक्त पर क्या फैसला लेना पड़े। यह दुविधा बरकरार। सो एक तरफ चुनाव की तैयारी। तो दूसरी तरफ लेफ्ट से गलबहियां भी जारी। चुनावों की तैयारी तो लोकलुभावन बजट से ही शुरू। मिडिल क्लास को इनकम टेक्स में लुभाया। किसानों को कर्जमाफी से पुचकारा। नौकरशाहों को वेतनबोर्ड का लॉलीपाप। पर बजट की सारी कमाई महंगाई खा गई। चुनावों का बना-बनाया माहौल बिगड़ गया। सो अब महिला आरक्षण का नया शिगूफा। यों अपन ख्याली पुलाव कितने ही पकाते रहें। महिला आरक्षण अभी होना-जाना नहीं। कम से कम मौजूदा बिल तो लागू नहीं होना। अपन ने बारह मार्च को सुझाव दिया था- 'अपन को कुछ तो पाक से भी सीख लेना चाहिए।' पाक में महिलाओं के लिए साठ सीटें रिजर्व। अल्पसंख्यकों के लिए भी दस सीटें। पर उनका चुनाव नहीं होता। राजनीतिक दलों को वोटों के आधार पर नामीनेशन का हक। यह फार्मूला सबसे बढ़िया। कांग्रेसी हों या भाजपाई। सांसद अपनी सीटें पत्नियों-बहनों-बेटियों को सौंपने को राजी नहीं। यों भी महिला बिल कोई पहली बार नहीं आया। पहले देवगौड़ा राज में 12 सितंबर 1996 को पेश हुआ। गीता मुखर्जी की रहनुमाई में ज्वाइंट कमेटी बनी। रपट भी नौ दिसंबर 1996 को आ गई। पर लोकसभा भंग हो गई। तो बिल गया पानी में। फिर वाजपेयी राज में 26 जून 1998 को पेश हुआ। लोकसभा फिर भंग हो गई। तो 1999 में वाजपेयी ने रामजेठमलानी के हाथों फिर पेश कराना चाहा। पर मुलायमवादियों-लालूवादियों-पासवानवादियों-शरद यादववादियों ने बिल मंत्री के हाथ से छीन लिया। फाड़-फूड़कर टुकड़े हवा में उड़ा दिए। वाजपेयी राज में कोशिश 2002 और 2003 में भी हुई। पर बिल पेश ही नहीं हो पाया। कांग्रेस ने नायाब नुस्खा निकाला। राज्यसभा में पेश करो। न राज्यसभा भंग होगी, न बिल फिर कभी दोबारा पेश करना पड़ेगा। बिल हमेशा के लिए सदन में। पेश भी हुआ चालाकी से। वैल में हो रहा था राजठाकरे के बयान पर हल्ला। तभी चेयर पर बैठे पीजे कुरियन ने अचानक कहा- 'विधिमंत्री हंसराज भारद्वाज बिल पेश करें।' भारद्वाज पहले से मंत्रियों की दूसरी लाइन में थे। अगल में अंबिका, बगल में शैलजा। साथ में विलास मुत्तमवार, अहमद पटेल, राजीव शुक्ल जैसों की घेराबंदी। जैसे ही कुरियन ने पुकारा। वैल में मौजूद सपाई सांसद भारद्वाज को रोकने दौड़े। पर वहां तो भारद्वाज की घेराबंदी थी। पीछे बैठी कांग्रेसी महिला सांसद भी दौड़ी। रेणुका की रहनुमाई में भारद्वाज के आगे दीवार खड़ी कर दी। मुत्तमवार-अहमद पटेल ने अब्बू आजमी को पकड़ा न होता। तो हाथापाई भी हो ही जाती। जो होना था, वही हुआ। बिल गया स्टेंडिंग कमेटी में। पर अपन बता दें- होना-जाना कुछ नहीं। ताकि सनद रहे सो बताते जाएं। चौथी लोकसभा के समय 1968 में लोकपाल-लोकायुक्त बिल पेश हुआ था। पांचवीं, छठी, आठवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं लोकसभा में भी पेश हुआ। पर अभी तक पास होने का नाम नहीं। लालू यादव ने तो मंगलवार को ही ताल ठोक दी- 'बिल में माइनोरिटी-ओबीसी का कोटा न हुआ। तो पास नहीं होने देंगे।' ये दोनों बातें हो नहीं सकती। संविधान में माइनोरिटी-ओबीसी को लैजिस्लेटिव रिजर्वेशन नहीं। यानी बिल पेश जरूर हुआ। हमेशा जिंदा भी रहेगा। पर मौजूदा सूरत में पास कभी नहीं होना।

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