तो कानों को सुहाने लगा राग चाटुकारिता

Publsihed: 23.Apr.2008, 20:42

अपने राहुल बाबा में नेताओं के गुण आने लगे। उनका पहला वादा ही काफूर हो गया। अपने यहां नेताओं के वादों पर कहा जाता है- 'वह वादा ही क्या, जो वफा हो जाए।' लगता है अपने राहुल बाबा ने राजनीति का पहला पाठ यही सीखा। मध्यप्रदेश में पहला वादा हवा हुआ। तो दिग्गी राजा गदगद हो गए। उनने कहा- 'राहुल गांधी में प्रधानमंत्री बनने की काबिलियत।' राजनीति में अपन को दिग्गी राजा जैसा फब्तीबाज और नहीं दिखता। हाजिर जवाबी में कटाक्ष घोलना आसान नहीं। दिग्गी राजा में यह खासियत भरपूर। पर ठहाके लगाने के माहिर दिग्गी राजा ने अपनी महारत राहुल बाबा पर नहीं अपनाई होगी। उनने तो वही राग चाटुकारिता ही बजाया। जो पहले उनके राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह बजा चुके थे। पर पहले बात राहुल बाबा के वादे की। उनने अपने जीवन का पहला वादा मध्यप्रदेश के गांव 'बैसा टपरियन' में किया।

याद होगा राहुल बाबा पंद्रह अप्रेल को बुंदेलखंड गए थे। रात को टिकमगढ़ के गांव बैसा टपरियन पहुंचे। तो रात आदिवासी विधवा भवानी देवी के घर बिताई। सुबह उठकर होटल में जाकर नहाए। यह अलग बात। बात भवानी देवी के घर बिताई रात की। भवानी देवी ने चुल्हा जलाकर राहुल के लिए पूड़ी -सब्जी बनाई। भवानी देवी की बेटी कमला ने राहुल को पूड़ी -सब्जी परोसी। तभी भवानी देवी ने राहुल को बताया था- 'कमला की शादी 22 अप्रेल को है।' राहुल बाबा वादा कर आए- 'शादी से पहले बीस हजार रुपए भेज दूंगा।' आदिवासियों के वोट बैंक पर निगाह के बावजूद राहुल वादा भूल गए। पर अखबार में खबर पढ़ मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने हुकुम फरमाया। तो कलेक्टर बीस हजार रुपया भवानी देवी को थमा आया। वह भी शादी से ठीक एक दिन पहले। शादी धूमधाम से हुई। शादी के बाद बुधवार को अखबारों में खबर छपी। तो अपने दिग्गी राजा मध्यप्रदेश के इंदौर में ही थे। सो उनने बयान दिया- 'राहुल गांधी में प्रधानमंत्री बनने की काबिलियत।' इतना ही नहीं। उनने यह भी कहा- 'इसे चाटुकारिता न समझें।' अपन तो दुविधा में फंस गए। दिग्गी राजा ने फब्ती कसी या चाटुकारिता की। पर अपन अर्जुन सिंह-प्रणव मुखर्जी का बयान याद करें। तो दिग्गी राजा का बयान भी हू-ब-हू वही। जिसे सोनिया ने बजरिया जयंती नटराजन चाटुकारिता बताया था। दिग्विजय सिंह खुद छोटे-मोटे राजा थे। सो उनने अपने पूर्वजों का जमाना पढ़ा-सुना होगा। राजाओं-महाराजाओं के जमाने में चापलूसों को भाट कहते थे। जो राजाओं के दरबार में जमकर चापलूसी करते। बदले में बख्शीश मिलती। जिन विद्वानों को चापलूसी पसंद नहीं होती। वे भाटों की बातों को 'राग दरबारी' कहकर फब्ती कसते। गायकों ने राग दरबारी तक बना डाला। यों अपन विवाद में नहीं पड़ते। पर ऐसा मानने वालों की कमी नहीं। जिनने जन-गण-मन को भी ब्रिटिश महारानी के सम्मान में गाया राग दरबारी बताया। वे वंदे मातरम् को राष्ट्रगान बनाने के हिमायती थे। पर बात मौजूदा 'राग दरबारी' की। राहुल कोई राजा-महाराजा नहीं। दरबार तो राजा-महाराजा के लगते थे। सरदार पटेल ने रियासतें खत्म कर दी। तो राजा-महाराजा भी नहीं रहे। इंदिरा गांधी ने राजाओं-महाराजाओं के प्रिवी पर्स भी खत्म कर दिए। पर कांग्रेस ने अचानक गांधी परिवार को राज परिवार का दर्जा दे दिया। तो अपने गणतंत्र के हालात फिर बदलने लगे। अब कांग्रेसी राहुल को युवराज कहने से जरा नहीं हिचकिचाते। मंगलवार को संसद में राहुल को युवराज कहकर पुकारा गया। तो एतराज करने पर कांग्रेसियों ने हुड़दंग मचाया। संविधान बनाने वालों में तो अब एक -आध ही बचा होगा। पता नहीं यह खबर उस तक पहुंची भी या नहीं। पहुंची होगी तो फफक-फफक कर रोया होगा। पर कांग्रेसियों की इस चाटुकारिता को अपन राग दरबारी नहीं कह सकते। इसे राग चाटुकारिता कहें तो ठीक रहेगा। बुधवार को कांग्रेस प्रवक्ता शकील अख्तर ने वैसा एतराज नहीं किया। जैसा अर्जुन सिंह के बयान पर किया था। यानि राग चाटुकारिता कानों को सुहाने लगा।

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