चाटुकारिता तो कांग्रेस की राजनीति का गहना

Publsihed: 19.Apr.2008, 20:46

सोनिया गांधी इस बात से इनकार नहीं कर सकती कि कांग्रेस में चाटुकारिता नहीं। कांग्रेस की राजनीति चाटुकारिता आधारित है इसीलिए तो पार्टी में परिवारवाद चल रहा है।

कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को पार्टी जितनी तवज्जो दे रही है इतनी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को नहीं मिल रही। अब तक तो कांग्रेस के पोस्टर बैनरों पर सोनिया गांधी के साथ कहीं कभी कभी मनमोहन सिंह का फोटो दिखाई भी दे जाता था। लेकिन राहुल गांधी को पार्टी महासचिव बनाए जाने के बाद मनमोहन सिंह एकदम गायब हो गए हैं। कांग्रेस में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के बाद दूसरा स्थान राहुल ने हासिल कर लिया है और मनमोहन तीसरे स्थान पर चले गए हैं। तीसरे स्तर के नेता को पार्टी में जितना महत्व मिलना चाहिए, उतना ही मिल रहा है।

कांग्रेस के कार्यक्रमों में कहीं फोटो लग गया तो लग गया, नहीं लगा तो न सही। इस का ताजा उदाहरण पिछले दिनों मध्यप्रदेश में देखने को मिला जब सुरेश पचौरी के अध्यक्ष बनने पर हुए सम्मेलन में मंच पर पीछे राहुल और सोनिया ही छाए हुए थे। पार्टी में राहुल से कहीं वरिष्ठ महासचिव दिग्विजय सिंह भी गायब थे, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का तो कहीं नामोनिशान नहीं दिखा। इसी मौके पर किसी ने कांग्रेस के वयोवृध्द नेता अर्जुन सिंह से पूछा था कि क्या राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद पर प्रोजैक्ट करके चुनाव लड़ा जाना चाहिए। प्रणव मुखर्जी की तरह अर्जुन सिंह खुद भी कभी प्रधानमंत्री पद की लाईन में शामिल थे और सोनिया गांधी के आशीर्वाद से एक दिन प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे थे। लेकिन परिवारवाद की चाटुकार कांग्रेस पार्टी को छोड़कर वापस लौटे प्रणव मुखर्जी ने गैर-नेहरू परिवार में पैदा होने के कारण खुद को तीसरे-चौथे स्तर का नेता बनना कबूल कर लिया है। लंबे समय तक प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश पाले अर्जुन सिंह ने भी चौथे पांचवें स्थान पर संतोष कर लिया है और कतई नहीं चाहते कि सोनिया-राहुल के अलावा किसी और के मताहत काम करना पड़े। मनमोहन सिंह को तो उन्होंने नरसिंह राव के शासनकाल में भी चुनौती दी थी, अब तो उन्हें मजबूरी में ही उन के तहत काम करना पड़ रहा है। इसलिए अर्जुन सिंह ने भोपाल में जवाब दिया था कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के योग्य नेता हैं।

कुछ अखबारों में छपी इस खबर को कांग्रेस के सचिव राजीव शुक्ल ने पढ़ा होगा और उन्होंने अपने चैनल के कांग्रेस कवर करने वाले संवाददाता को इसी मुद्दे पर अर्जुन सिंह से बात करके खबर बनाने की हिदायत दी होगी। पिछड़े वर्ग को आरक्षण का केस जीतने के बाद अर्जुन सिंह सुर्खियों में थे और उनमें 1995 जैसे राजनीतिक जोश भर आया। तब उन्होंने मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों को मुद्दा बनाकर नरसिंह राव पर निशाना साधा था। मनमोहन सिंह तभी से अर्जुन सिंह की आंख में खटक रहे हैं और ओबीसी आरक्षण से अपना राजनीतिक कद बढा हुआ मानकर उन्होंने भोपाल वाला जवाब जरा ज्यादा ताकत देकर दोहरा दिया। हालांकि सोनिया गांधी चल इसी लाईन पर रही हैं, कांग्रेस पार्टी में यह कौन नहीं जानता कि आखिरकार राहुल ही उनके नेता हैं। राहुल गांधी के देशभर में दौरे हो रहे हैं और वह जहां भी जाते हैं पार्टी उनका अपने युवराज की तरह उसी तरह स्वागत करती है जैसे किसी राजशाही में राजकुमार का होता है। जो कुछ हो रहा है, वह एक परिवार की चाटुकारिता के सिवा कुछ नहीं है। कांग्रेस को अपना भविष्य इसी परिवार में दिखाई देता है इसलिए राहुल गांधी उनके नेता हैं। लेकिन अर्जुन सिंह मीडिया के जरिए अपनी राजनीतिक चाल चलने से पहले यह भूल गए कि कांग्रेस पार्टी ने लोकतंत्र का आवरण ओढ़ा हुआ है। सोनिया गांधी जब कांग्रेस की अध्यक्ष बनी थी तो सीताराम केसरी का इसी तरह तख्ता पलट हुआ था जैसे किसी देश में चुनी हुई सरकार का कोई फौजी कमांडर तख्ता पलट करता है। सीताराम केसरी का तख्ता पलटे जाने की तरह ही ठीक एक साल बाद 1999 में पाकिस्तान में परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ का तख्ता पलटा था। लेकिन अर्जुन सिंह भूल गए कि सोनिया गांधी ने केसरी का तख्ता पलटते समय भी कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलवा कर अपने पक्ष में प्रस्ताव पास करवाया था। मनमोहन सिंह पर राजनीतिक गोटी चलाते समय अर्जुन सिंह लोकतंत्र के आवरण वाले इस मूल मंत्र को भूल गए और यह भी भूल गए कि हर चाल का सही मौका होना चाहिए। अर्जुन सिंह यह भी भूल गए कि नरसिंह राव से टकराव के समय सोनिया गांधी कैसे उन्हें नैतिक समर्थन दे रहीं थी, लेकिन जब तिवारी कांग्रेस बनाकर वह मैदान में कूदे तो सोनिया गांधी ने उन्हें राजनीतिक बियाबान में अकेले छोड़ दिया था। नई पार्टी का गठन करने के लिए तालकटोरा स्टेडियम में सम्मेलन बुलाया गया था और इस सम्मेलन से उठकर अर्जुन सिंह खुद सोनिया गांधी को लेने गए थे, लेकिन उन्होंने उन्हें सिर्फ आशीर्वाद देकर बैरंग लौटा दिया था। बाद में अर्जुन सिंह को संसद में प्रवेश के लाले पड़ गए थे। लगातार दो चुनाव हारने के बाद सीताराम केसरी के जरिए कांग्रेस में लौटे थे। सोनिया गांधी जानती हैं कि राजनीति में कब कौन सी गोटी चलनी चाहिए, अर्जुन सिंह अपनी जिंदगी राजनीति में गुजारने के बाद भी यह नहीं सीख पाए। हालांकि यह अलग बात है कि हमेशा राजनीतिक तीर निशाने पर नहीं लगता, जैसे सोनिया खुद 1999 में सारी तैयारी करके प्रधानमंत्री नहीं बन पाई थी। राजनीति में एक सा वक्त हमेशा नहीं रहता, 1999 में राष्ट्रपति के.आर. नारायण उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने को तैयार थे लेकिन मुलायम सिंह ने विदेशी मूल का मुद्दा उठा दिया, जबकि 2004 में के. आर. नारायण राष्ट्रपति नहीं थे। सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर बिठाने के लिए 16 मई 2004 को संसद भवन में जिस तरह मणिशंकर अय्यर, कपिल सिब्बल, अंबिका सोनी में आंसू बहाने और दहाड़े मारने की होड़ लगी थी, अगर वह चाटुकारिता नहीं थी, तो क्या थी। कांग्रेस की इसी संस्कृति को अपनाते हुए अर्जुन सिंह ने अगर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की बात कही तो चाटुकारिता पर एतराज क्यों। कांग्रेस अध्यक्ष को अगर चाटुकारिता पसंद नहीं थी तो उस रात सैंट्रल हाल में आंसू बहाकर अपनी वफादारी का झंडा गाड़ने वाले केंद्रीय मंत्रिमंडल में क्यों हैं।

अर्जुन सिंह से बेहतर कांग्रेस की संस्कृति कौन जानता है। जब कांग्रेस की प्रवक्ता जयंती नटराजन ने मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बने रहने और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की चाटुकारिता पसंद नहीं होने की बात कही तो अर्जुन सिंह ने कहा कि कांग्रेस संस्कृति को वह बेहतर जानते हैं। अगर कांग्रेस अध्यक्ष को चाटुकारिता पसंद नहीं है तो देश भर में कांग्रेसियों की ओर से राहुल गांधी के लिए पलक पांवड़े बिछाया जाना वह कैसे बर्दाश्त कर रही हैं, क्या यह चाटुकारिता की श्रेणी में नहीं आता। मध्यप्रदेश और हाल ही में लखनऊ में कांग्रेस कार्यकर्ता सम्मेलनों में कांग्रेस के मंच पर लगे राहुल के बैनर अगर चाटुकारिता की श्रेणी में नहीं आते तो अर्जुन सिंह का सच कहना कैसे चाटुकारिता की श्रेणी में आएगा। कांग्रेस बैठकों, सम्मेलनों में लगते राहुल जिंदाबाद के नारे कांग्रेस के किसी वरिष्ठ नेता को परेशान नहीं करते क्योंकि वे इस परिवार से जुड़ी अपनी नियती को जानते हैं। वे राहुल के संसद में घुसते ही युवराज जैसा स्वागत करने में हिचकिचाहट महसूस नहीं करते, वे लोकसभा में राहुल के खड़ा होने पर खड़े हो जाते हैं, उनके हर शब्द पर ताली बजाते हैं, राहुल एक झलक देख ले तो खुद को धन्य मानते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि मनमोहन सिंह तो मध्यकाल का कामचलाऊ बंदोबस्त है। राहुल ही उनके भावी प्रधानमंत्री हैं, उन्हें भावी प्रधानमंत्री घोषित करने के लिए भाजपा की तरह किसी संसदीय बोर्ड की मंजूरी नहीं चाहिए। यह फैसला किसी भी दिन सोनिया और राहुल खुद कर लेंगे, कांग्रेस कार्यसमिति और संसदीय बोर्ड को तो सिर्फ मुहर लगानी होगी। याद करो जब राहुल गांधी राजनीति में आए-आए थे और उन्हें कोई जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई थी, तब जब सोनिया गांधी से पूछा जाता था कि वह जिम्मेदारी कब संभालेंगे तो वह कहती थीं- यह फैसला राहुल गांधी खुद लेंगे। फिलहाल तो राहुल प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी निभाने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं, यह अलग बात है कि देश की जनता की सोच वैसी नहीं है, जैसी कांग्रेसी नेताओं की हैं। आजादी के बाद हुए पहले लोकसभा चुनावों में दर्जनों पूर्व राजा-महाराजा चुने गए थे, लेकिन अब उन राजघरानों का इक्का दुक्का ही प्रतिनिधि लोकसभा में दिखाई देता है। मतदाताओं की दो पीढ़ियां बदल गई हैं, इसलिए नेहरू परिवार का आकर्षण भी मंद पड़ गया है। दलित की झोपड़ी में सोना भी उत्तर प्रदेश में कारगर साबित नहीं हो रहा। राहुल को गांधी होने का एक सीमा तक ही लाभ मिलेगा, पिछले दिनों राहुल ने कर्नाटक में अपने दौरे के दौरान कबूल किया कि राजनीति में उन्हें गांधी होने का फायदा मिला है। यह फायदा सिर्फ राहुल को नहीं सोनिया को भी मिला और इससे पहले राजीव को भी मिल चुका है, लेकिन राजशाही अनंतकाल तक नहीं चल सकती। नेपाल का उदाहरण हमारे सामने है।

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