तो राजनीति का अखाड़ा बने रोजगार योजना

Publsihed: 18.Apr.2008, 20:40

तो राहुल यूपी में अखाड़ा जमाने को तैयार। किसी भी राजनीतिक नेता के लिए संघर्ष जरूरी। राहुल संघर्ष के लिए मैदान में उतरे। तो इसकी तारीफ होनी चाहिए। आखिर यूपी में कांग्रेस जड़ों से कट चुकी। राहुल बाबा संघर्ष नहीं करेंगे। तो चेहरे को देखकर वोट नहीं मिलने। यह बात हाल ही के उपचुनावों में साफ हो गई। राहुल बाबा की तारीफ करनी चाहिए। चुनाव नतीजों से हिम्मत नहीं हारी। संघर्ष की रफ्तार और तेज कर दी। राहुल बाबा शुक्रवार को झांसी में डिविजनल कमिश्नर के सामने धरने पर बैठे। तो अपन को इंदिरा गांधी का वह संघर्ष याद आ गया। जब उनने जनता राज में अलख जगा दी थी। बिहार में दलितों का नरसंहार हुआ। तो इंदिरा गांधी हाथी पर चढ़कर वेलची गई थी। इंदिरा गांधी की हाथी पर चढ़ी वह फोटू दुनियाभर में मशहूर हुई।

तब इंदिरा की देखा-देखी वाजपेयी भी शरदूल से देवली तक मार्च किए थे। अपन उसके बाद की संघर्ष गाथा भी याद करा दें। चंद्रशेखर ने 1983 में कश्मीर से कन्याकुमारी तक पदयात्रा की। तो 1990 में देश के प्रधानमंत्री हो गए। मतलब यह हुआ- संघर्ष का फल मीठा। इंदिरा भी दलितों के लिए लड़ी। तो दुबारा पीएम बन गई। चंद्रशेखर ने गरीब-गुरबों का दु:ख-दर्द जाना। तो पीएम की कुर्सी पर जा पहुंचे। अब उसी रास्ते पर राहुल। तो बुराई करने की कोई बात नहीं। अपन को कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी की हाय-तौबा जरा नहीं जची। कांग्रेस के युवराज को जरा सा संघर्ष करना पड़ा। तो कांग्रेस कपड़े फाड़ने लगी। मनीष तिवारी से पूछा- किस संघर्ष में ऐसा नहीं हुआ। झांसी के डिविजनल कमिश्नर ने ऐसा क्या कर दिया। जो इतना रोना-पीटना। कोई नेता तीन सौ लोगों की भीड़ लेकर कमिश्नर के कमरे में घुसना चाहिए। तो कोई भी कमिश्नर क्या करेगा। सोचो, यही घटना आंध्र प्रदेश में होती। राहुल बाबा की जगह वैंकैया नायडू होते। या चंद्रबाबू नायडू होते। तो आंध्र का कमिश्नर क्या हू-ब-हू ऐसा नहीं करता। जैसा झांसी के कमिश्नर पी.वी.जगमोहन ने किया। यों भी राहुल के साथ यह कोई अनोखी घटना नहीं हुई। अपन दिल्ली में जंतर-मंतर पर ऐसा रोज होते देखने के आदी। पुलिस संसद मार्ग थाने से आगे किसी को जाने नहीं देती। पहले दो-दो वेरीकेट। बात फिर भी न बनें। तो पानी के फव्वारे। भीड़ तब भी काबू में न आए। तो अश्रु गैस के गोले। पर पुलिस इंच भर आगे नहीं बढ़ने देती। दिल्ली की बात छोड़िए। ऐसे दर्जनों उदाहरण मिलेंगे। जब राज्यों की पुलिस ने संसदीय प्रतिनिधिमंडल तक को मौका-ए-वारदात पर जाने नहीं दिया। राहुल बाबा ने धरना दिया। संर्घष का यह उनका लोकतांत्रिक हक। डिविजनल कमिश्नर ने सुरक्षा का बंदोवस्त किया। यह उनका प्रशासनिक फर्ज। पर बात असली राजनीति की। राहुल बाबा को बुंदेलखंड के सूखे की याद आई। पर विदर्भ में किसानों की आत्म हत्याएं अभी नहीं रुकी। राहुल बाबा विदर्भ क्यों नहीं गए। मायावती को यह पूछने का हक। जहां तक बात बुंदेलखंड की। तो वहां हालात विदर्भ से बुरे। इसमें कोई शक नहीं। पर राज्य सरकार से ज्यादा केंद्र जिम्मेदार। मायावती की बात तो छोड़िए। पहले के सीएम मुलायम भी टिकट की मांग करते-करते थक गए। पर मनमोहन-सोनिया सरकार नहीं पिघली। हां, राहुल बाबा को ग्रामीण रोजगार योजना का हिसाब-किताब मांगने का हक। अलबत्ता देश के हर नागरिक को यह हक। बात रोजगार गारंटी की चली। तो बताते जाएं- इस योजना का गोल-गपाड़ा खुलकर सामने आ चुका। अपन को 2006 की बात याद। जब सोनिया राजस्थान में जाकर बोली थी- 'ग्रामीण रोजगार योजना ठीक से लागू नहीं हो रही।' पर अगले ही दिन अपन को रघुवंश बाबू ने बताया- 'राजस्थान ग्रामीण रोजगार योजना ठीक से लागू करने वाले राज्यों में अव्वल।' तो यह योजना राजनीति का अखाड़ा हो गया। अपने कान तो तभी खड़े हुए थे। जब पहले पहल योजना सिर्फ गैर कांग्रेसी राज्यों में लागू हुई।

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