तिब्बत का आंदोलन जोर पकड़ने लगा। सत्रह अप्रेल को ओलंपिक मशाल आएगी। उससे पहले दिल्ली-मुंबई में भिड़ंतें होना तय। फ्रांस की खबर से तो मनमोहन सरकार के तोते उड़ गए। पेरिस में पहुंची मशाल प्रदर्शन के चलते बुझानी पड़ी। बुझी मशाल को बस में रखकर ले जाना पड़ा। अपने खिलाड़ी भाईचुंग भुटिया ने देश को रास्ता दिखाया। तिब्बत के समर्थन में मशाल विरोध का गांधीवादी रास्ता। जिनने मशाल का विरोध नहीं करने का ऐलान किया। वे फ्रांस से सबक लें। मशाल दिल्ली आएगी, तो इंडिया गेट से शुरू होगी। सोमवार को इंडिया गेट पर ही तिब्बत के लिए मोमबत्तियां जली। तो कम्युनिस्ट जल-भुन गए। मनमोहन सरकार के तो कपड़े भीग गए। यों तिब्बत के मामले पर अटल राज भी दूध का धुला नहीं। पर मनमोहन सरकार के तो बुरे हाल। भारत में चीनवादी कम्युनिस्टों के सामने नतमस्तक। तो बीजिंग में चीन सरकार के सामने घुटनेटेक। अपने मनमोहन सिंह बीजिंग गए। तो चीन के राष्ट्रपति तने हुए खड़े थे। अपने मनमोहन भाई झुककर खड़े थे। यह फोटू सोमवार को अपने यशवंत सिन्हा ने दिखाया।
पर अपन बात कर रहे थे इंडिया गेट पर जली मोमबत्तियों की। पुलिस की दलील भी बड़ी अजीब थी- 'ओलंपिक मशाल इंडिया गेट से गुजरेगी। सो मोमबत्तियां इंडिया गेट पर न जलाई जाएं।' चीन और अमेरिका से इतना डर। यह तो गुलामी जैसी हालत हो गई। खैर मोमबत्तियां इंडिया गेट पर ही जली। भले ही पुलिस से लुका-छिपी का खेल हुआ। पर मोमबत्तियों से पहले तिब्बत पर गोष्टी हुई। तो संघ परिवारी इकट्ठे दिखे। यों तो जनसंघ समेत संघ परिवार शुरू से दलाईलामा के साथ रहा। पर स्वयंसेवक अटल बिहारी पीएम बने। तो बीजिंग जाकर तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग बता आए थे। सोमवार को यशवंत सिन्हा ने तो अटल राज के पाप धो लिए। पर अटल-जसवंत-आडवाणी का गुनाह कबूल करना अभी बाकी। गोष्टी में संघ के अधिकारी इंद्रेश जी ने खरी-खोटी सुनाने में परहेज नहीं किया। बोले- 'इतिहास मौका देता है। पहले पैंसठ में मौका मिला। तो ताशकंद में जीती बाजी हार गए। फिर इकहत्तर में मौका मिला। तो शिमला में जीती बाजी हारी। कारगिल के वक्त भी मौका मिला। पर हड़पे हुए कश्मीर तक नहीं पहुंचे। बाजी फिर भी हार गए। मौका गंवाकर सुरक्षा परिषद में सीट की भीख मांग रहे हैं।' बगल में बैठे यशवंत-जावड़ेकर समझें, तो इशारा काफी। इंद्रेश जी ने तिब्बत की गलती नहीं गिनाई। पर इशारा तिब्बत की ओर भी था। वाजपेयी ने सिर्फ कारगिल के वक्त नेहरू जैसी गलती नहीं की। चीन दौरे के वक्त भी तिब्बत पर नेहरू जैसी गलती की। बीजेपी को अब अपनी गलती का अहसास होने लगा। गोष्टी में प्रकाश जावड़ेकर ने तिब्बत की स्वायत्ता पर जोर दिया। तो यशवंत सिन्हा दो कदम आगे निकल गए। जावड़ेकर ने चुटकी लेकर कहा था- 'मैं विदेश मंत्री नहीं रहा। बनूंगा भी नहीं। इसलिए मैं तिब्बत पर अपनी बात खुलकर कहूंगा। यशवंत सिन्हा शायद ऐसा न कर पाएं।' पर सिन्हा तो जावड़ेकर पर भारी पड़े। जब उनने कहा- 'दलाईलामा चीन में तिब्बत की स्वायत्ता का नारा छोड़ें। अब तिब्बत की आजादी का आंदोलन छेड़ना होगा। राजनीतिक बंदिश का बंधन तोड़ अपनी राय रखें। किसी की हिम्मत नहीं। जो दलाईलामा के साथ तस्लीमा जैसा सलूक कर सके।' यानी गवाह मुदई से ज्यादा चुस्त हो गया। तिब्बत के मुद्दे पर यशवंत सिन्हा अपन को जार्ज फर्नाडीस का नया अवतार दिखे। जब उनने कहा- 'मैं खुद को तिब्बत के लिए समर्पित करता हूं। जरूरत पड़ी तो तिब्बत के लिए ल्हासा कूच करूंगा।' दलाईलामा की स्वायत्ता वाली मांग पर तिब्बती खुश नहीं। यशवंत ने जब आजादी का परचम फहराया। तो तिब्बतियों ने जमकर तालियां बजाई।
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