महंगाई एक सीढ़ी और चढ़ गई। तो अपने अभिषेक मनु सिंघवी बोले- 'हमारे पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं।' यानी कांग्रेस ने हाथ खड़े कर लिए। सोनिया गांधी ने राजस्थान में कहा- 'महंगाई रोकने की जिम्मेदारी राज्य सरकारें लें।' इसका मतलब भी था- केंद्र और कांग्रेस का हाथ खड़े करना। अभिषेक मनु सिंघवी सही समझे। तभी तो कहा- हमारे पास जादू की छड़ी नहीं। सच्ची बात से चिड़ जाते हैं अपने सिंघवी। पिछले हफ्ते कह रहे थे- महंगाई जल्द काबू आएगी। हुआ उल्टा। इस हफ्ते आया आंकड़ा तो धुआं निकाल गया। यों अपन आंकड़ेबाजी पर न भी जाएं। तो भी आम आदमी का जीना दूभर। आंकड़े तो सिर्फ दिखाने के सबूत। महंगाई का ताजा आंकडा 22 मार्च तक का। जिसके मुताबिक मुद्रास्फीति सात फीसदी हो गई। अगले हफ्ते सात फीसदी भी पार होगी।
अपन किसी को मई 2004 याद कराएं। तो कोई फायदा नहीं। अपन तो यूपीए राज का ही दिसंबर 2004 याद कराएंगे। मई से दिसंबर तक तो महंगाई ने छलांग लगाई ही थी। दिसंबर 2004 में मुद्रास्फीति 7.02 फीसदी पहुंच गई थी। कोर कमेटी की मीटिंगें हुई। केबिनेट कमेटी बैठी। सोनिया ने कांग्रेस वर्किंग कमेटी बुलाई। मनमोहन को चिट्ठियां लिखी। ताकि आम आदमी पर फिक्रमंद दिखाई दें। दालें तब पैंतीस से पैंतालीस रुपए हुई थी। तब कांग्रेस कहती थी- जल्द काबू आ जाएगी। पर कीमतें काबू नहीं आई। अब तो कोई दाल साठ रुपए किलो से कम नहीं। तब भी दुनियाभर में महंगाई की दलील दी थी। अब भी वही दलील। तब भी चिड़चिड़ाहट में जादू की छड़ी का जुमला बोला था। अब फिर जादू की छड़ी का जुमला। सरकार चाहे, तो क्या नहीं कर सकती। सरकार चाहती है- तभी तो महंगाई बढ़ती है। अभिषेक मनु सिंघवी से कोई पूछे- एनडीए सरकार में होम लोन की ब्याज दर कैसे घटी थी। आम आदमी को छत नसीब होनी कैसे शुरू हुई थी। यूपीए सरकार आते ही ब्याज दर क्यों बढ़ने लगी? दिल्ली की छोड़िए। अब तो पूरे देश में आम आदमी के लिए मकान बनाना मुश्किल। मकानों-फ्लैटों की कीमतों में आग लग गई। सारे बिल्डर कांग्रेस की जेब में। कांग्रेस ने आम आदमी को वहीं पहुंचा दिया। जहां 1996 में छोड़कर गई थी। अब तो कांग्रेस के सहयोगियों का भी मोहभंग होने लगा। गुरुवार को एनसीपी प्रवक्ता डीपी त्रिपाठी और डीएमके चीफ करुणानिधि ने तेवर दिखाए। तो शुक्रवार को बारी आरजेडी की थी। रघुवंश बाबू 'ऑफ दि रिकार्ड' बोले। तो जमकर बरसे। किसी ने सिंघवी से पूछा- 'रघुवंश बाबू कह रहे हैं- सरकार का फील गुड खत्म।' तो सिंघवी की घिग्गी बंध गई। बोले- 'उन्हें अपनी बात कहने का हक। वह कुछ भी बोलें।' अपन ऐसा नहीं सोच सकते। अपन को लालू-मुलायम की मुलाकातों का इलम। दोनों में एक दशक से कुट्टी थी। तीसरे मोर्चे के अलंबरदार मुलायम कोई यों ही मुलायम नहीं हुए। बजरिया मुलायम अब लालू की लेफ्ट से भी कुट्टी खत्म। पवारवादी डीपी यादव ने तो खुल्लमखुल्ला कह दिया- 'हमारे पास विकल्प नहीं था। इसलिए कांग्रेस के साथ गए। एनसीपी की दिलचस्पी तीसरे मोर्चे में।' चुनाव से पहले लालू-पवार के तेवर समझिए। पवार भले ही सेक्युलरिज्म के रथ पर सवार हों। पर वह कोई दरवाजा बंद नहीं करते। आडवाणी की किताब के विमोचन पर पवार यों ही नहीं पहुंचे। यों भी बजरिया पीए संगमा बीजेपी से रिश्ता कायम। मेघालय में एनसीपी का गठबंधन बीजेपी से। इसी बात पर तो शुक्रवार को सिंघवी लाल-पीले थे। बोले- 'कांग्रेस तो गठबंधन धर्म निभा रही है। एनसीपी बताए- सेक्युलरिज्म का दम भरके मेघालय में बीजेपी के साथ कैसे? अपने अनैतिक व्यवहार पर सफाई दें।' यानी बात तू-तू, मैं-मैं तक आ पहुंची। पानी के मुद्दे पर करुणानिधि भी कांग्रेस से तू-तू, मैं-मैं पर उतर आए। करुणानिधि एन चुनाव के मौके पर पाला बदलने के माहिर। पर बात यूपीए में शुरू होती दरार की नहीं। बात महंगाई की। जो सिर चढ़कर बोलने लगी।
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