कंधार और 'माई कंट्री माई लाईफ'

Publsihed: 30.Mar.2008, 05:25

लाल कृष्ण आडवाणी की किताब 'माई कंट्री माई लाइफ' राजनीतिक लड़ाई का केंद्र बिंदु बन गई है। आडवाणी के परंपरागत विरोधी बिना किताब को पढ़े, उनके खिलाफ धड़ाधड़ लिख और बोल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि किताब में कोई त्रुटियां नहीं हैं, हालांकि किताब लिखते समय आडवाणी और उनके सलाहकारों ने तथ्यों की अच्छी तरह जांच-पड़ताल की, फिर भी कई गलतियां रह गई हैं। जैसे एक जगह 1974 में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का जिक्र किया, जबकि उन्हें जनसंघ लिखना चाहिए था क्योंकि उस समय जनसंघ थी, भाजपा नहीं। एक और बड़ी चूक हुई है, जिसे आडवाणी के विरोधी हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। यह ऐतिहासिक तथ्य है, जो उस समय भी अखबारों में छपा था कि विमान जब दुबई में उतरा, तो भारत सरकार ने अमेरिका से मदद मांगी थी। लेकिन आडवाणी की ओर से लिखते समय तत्कालीन राजदूत का नाम गलत लिखा गया। उस समय भारत में अमेरिकी राजदूत रिचर्ड सेलस्टे थे, न कि रोबर्ट ब्लैकविल।

आडवाणी ने अपनी किताब में लिखा है- 'तेजी से बदलते घटनाक्रम में जब विमान दुबई पर उतरा तो मैंने अमेरिकी राजदूत रोबर्ट ब्लैकविल से बात की और अमेरिकी मदद की गुहार लगाई। उस समय हमें पता चला था कि संयुक्त अरब अमीरात स्थित राजदूत एयरपोर्ट पहुंचे हैं। संयुक्त अरब अमीरात के अधिकारियों ने भारतीय राजदूत को हवाई अड्डे पर जाने की इजाजत नहीं दी थी। मैंने सोचा कि खाड़ी क्षेत्र में अमेरिका की अच्छी खासी सेना मौजूद है और खाड़ी पर अमेरिका का कूटनीतिक प्रभाव भी है, इसलिए अमेरिका प्रभावशाली कदम उठाकर विमान को वहां से उड़ने से रोक सकता है और इस बीच भारतीय कमांडो बंधकों को छुड़ाने की कार्रवाई कर सकते हैं। लेकिन मुझे निराशा हाथ लगी क्योंकि उन्होंने कोई कोशिश नहीं की। संकट खत्म हो जाने के कुछ दिन बाद जब ब्लैकविल मुझे मिले तो मैंने उनसे अपनी नाराजगी का इजहार किया।' लेकिन उस समय भारत में अमेरिकी राजदूत रिचर्ड सेलेस्टे थे और स्वाभाविक है कि आडवाणी की यह सारी बातचीत सेलेस्टे से हुई थी। ब्लैकविल की ओर से स्पष्टीकरण आने के बाद लाल कृष्ण आडवाणी ने सफाई देने का फैसला किया है, किताब के अगले संस्करण में इसे सुधार भी लिया जाएगा। लेकिन उनके विरोधी किताब की इस चूक का राजनीतिक फायदा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।आडवाणी के सिर्फ राजनीतिक विरोधी होते, तो गनीमत थी, उन्हें मीडिया के एक वर्ग के विरोध का भी सामना करना पड़ता है। जिन्ना प्रकरण भी उनके साथ पाकिस्तान गए अनाड़ी और पूर्वाग्रहग्रस्त मीडिया कर्मियों की ही साजिश थी। आडवाणी ने अपनी किताब में इसका भी जिक्र किया है। मीडिया का यह वर्ग आडवाणी के खिलाफ लिखने की बातें ढूंढता रहता है। इस तरह की एक घटना याद आती है जब एक बड़े अखबार में एक पत्रकार ने आडवाणी की बेटी प्रतिभा की किसी कंपनी में हिस्सेदारी की खबर लिखी थी। जबकि प्रतिभा का उस कंपनी से कुछ लेना-देना नहीं था, प्रतिभा ने जब कानूनी नोटिस जारी किया तो खबर का खंडन कर दिया गया और माफी मांग ली गई। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता है, आए रोज छपने वाली बेसिर पैर की खबरों का जवाब देते-देते तो आदमी परेशान ही हो जाएगा। इसलिए राजनीतिक नेताओं की बयानबाजी के आधार पर खबर लिखने की बजाए अपने पूर्वाग्रहों को एक तरफ रख पत्रकारों को एहतियात बरतनी चाहिए और अपने स्तर पर तथ्यों की जांच करने के बाद ही लिखना चाहिए।

ताजा घटना एक भूतपूर्व पत्रकार और मौजूदा कांग्रेसी सांसद की है, जो विभिन्न अखबारों में अभी भी कालम लिख रहे हैं। उन्होंने अपने ताजा कालम में लिखा है- 'आडवाणी ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट किया है कि उन्हें पता नहीं है कि तत्कालीन विदेशमंत्री किसके कहने पर और क्यों आतंकवादियों के साथ जहाज में बैठकर कंधार गए थे? उनको इसकी भी जानकारी नहीं है कि आतंकवादियों की और क्या-क्या शर्तें पूरी की गई थी? आडवाणी के अनुसार हो सकता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अनुमति से वह कंधार गए हों।' स्पष्ट है कि इस कालम के लेखक सांसद महोदय ने आडवाणी की किताब को पढ़ना तो दूर, देखा तक नहीं होगा। उन्होंने अपने कालम में जो कुछ लिखा है वह किताब में है ही नहीं। इस सांसद ने पिछले साल राज्यसभा में कहा था कि विमान के अपहरणकर्ताओं को बीस करोड़ डालर भी दिए जाने के आरोप लग रहे हैं। संसद में कही गई इससे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना बात नहीं हो सकती। जसवंत सिंह अपनी किताब 'ए कॉल टू ऑनर' में लिख चुके थे कि आतंकवादियों ने 36 आतंकवादियों को छोड़ने और बीस करोड़ डालर की मांग की गई थी, जिसे मंत्रिमंडल ने ठुकरा दिया था लेकिन बाद में अपहृत नागरिकों को छुड़ाने का दबाव बढ़ने पर सरकार तीन आतंकवादियों को छोड़ने के लिए राजी हुई थी। जसवंत सिंह की इस किताब से स्पष्ट था कि पैसे की मांग पूरी नहीं की गई थी। लेकिन कांग्रेस के सांसद ने जो बात संसद में कही थी उसे अपने ताजा लेख में फिर दोहराते हुए कहा है - 'तीन आतंकवादी छोड़ दिए गए थे, तब यह भी संभव है कि धन की उनकी दूसरी मांग भी पूरी की गई हो। यदि यह तथ्य सही नहीं है तो भाजपा नेता इसका खंडन क्यों नहीं कर रहे हैं।' संभवत: कांग्रेस के सांसद इस थ्योरी पर चल रहे हैं कि झूठ को बार-बार बोलने से सच लगने लगता है। भाजपा के जिम्मेदार नेता संसद में इसका खंडन कर चुके हैं। पूर्व विदेशमंत्री यशवंत सिन्हा ने खुद राज्यसभा में इस आरोप का खंडन किया था, जो कांग्रेस के सांसद ने लगाया था। खासकर सत्ताधारी पार्टी के सांसद को इस तरह के अनर्गल आरोप नहीं लगाने चाहिए, क्योंकि सारे सरकारी दस्तावेज तो उसी की पार्टी के केंद्रीय मंत्रियों के कब्जे में हैं। अगर इस आरोप में जरा भी सच्चाई है, तो सरकार के पास एनडीए के खिलाफ इससे बड़ा और हथियार कोई नहीं हो सकता। आखिर एक सहज सा सवाल खड़ा होता है कि बीस हजार करोड़ रुपया क्या इतनी मामूली रकम है? उसे वाजपेयी-आडवाणी या जसवंत सिंह ने अदा कर दिया होगा? सरकारी खजाने से इतनी बड़ी रकम गई हो, उसका खुलासा न हो, यह कैसे हो सकता है? राजनीति को इतने निम्नतम स्तर पर भी नहीं पहुंचा देना चाहिए।

जहां तक मसूद अजहर समेत तीन आतंकवादियों को छोड़े जाने की बात है, तो यह सब जानते हैं कि प्रधानमंत्री के घर पर अपहृत लोगों के परिजनों की ओर से किए जा रहे प्रदर्शनों को किस तरह प्रायोजित किया जा रहा था। अफसोस यह है कि मीडिया का जो वर्ग आज तीन आतंकियों को रिहा किए जाने पर सवाल उठा रहा है, वही उस समय प्रधानमंत्री के घर पर हो रहे प्रदर्शनों को हवा दे रहा था। जसवंत सिंह और आडवाणी दोनों ने ही अपनी किताबों में मीडिया की उस भूमिका का जिक्र किया है। जहां तक जसवंत सिंह के आतंकवादियों के साथ जाने का सवाल है, तो उस पर सवाल उठाया जाना वाजिब है। भले ही जार्ज फर्नाडीस ने इस बाबत मंत्रिमंडलीय समूह के फैसले की बात कही है, लेकिन जसवंत सिंह ने भी अपनी किताब में इसका जिक्र नहीं किया। जसवंत सिंह और आडवाणी की किताबों में यह बात एक जैसी है कि सरकार पहले आतंकियों की कोई भी शर्त मानने को तैयार नहीं थी, लेकिन जन दबाव में ऐसा फैसला लेना पड़ा। आडवाणी ने ऐसा कहीं नहीं कहा है कि उन्हें आतंकवादियों को छोड़े जाने की जानकारी नहीं थी, जसवंत सिंह ने भी ऐसा कहीं नहीं कहा है कि उनके उसी विमान में कंधार जाने का फैसला केबिनेट कमेटी में लिया गया था। अलबत्ता जसवंत सिंह ने अपनी किताब में उस वक्त की मजबूरी को स्पष्ट किया है- 'अपहृत नागरिकों को छुड़वाने के लिए बातचीत कर रहे तीन प्रमुख अधिकारियों विवेक काटजू, अजीत दोवल और सी डी सहाय का कहना था कि भले ही आतंकवादी तीन आतंकियों को छोड़ने पर सभी यात्रियों को मुक्त करने पर राजी हो गए हैं, फिर भी पता नहीं आखिरी समय पर क्या अड़चन खड़ी हो जाए, इसलिए हम चाहते हैं कि मौके पर फौरी फैसला लेने वाला होना चाहिए।' स्वाभाविक है कि अचानक आ पड़े संकट पर कोई भी बड़ा अधिकारी फैसला नहीं ले सकता था, कोई मंत्री ही फैसला ले सकता था, वह भी जो प्रधानमंत्री से सीधे बात कर सकता हो। हालांकि जसवंत सिंह उसी विमान में जाने के हालात को टाल सकते थे, वह दूसरे विमान से जाते तो उनके लिए ऐसी दयनीय स्थिति पैदा नहीं होती। जहां तक लाल कृष्ण आडवाणी का सवाल है तो वह इस लेखक को मार्च 2004 में ही बता चुके हैं कि जसवंत सिंह का उस विमान में साथ जाना उचित नहीं था और इस गलत फैसले पर बाद में उन्होंने अपनी आपत्ति जताई थी। उस समय आडवाणी उपप्रधानमंत्री थे।

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