जून में भंग हुई। तो लोकसभा चुनाव नवंबर दिसंबर में। अभिभाषण पर बहस शुरू हुई। तो आडवाणी बोले- 'इस साल नहीं, तो अगले साल के शुरू में चुनाव। इस सरकार में तो राष्ट्रपति का यह आखिरी अभिभाषण था।' सामने बैठे मनमोहन न तो खंडन में बोले। बोलना तो दूर की बात, मुंडी भी नहीं हिलाई। विपक्ष का नेता बोले। तो पीएम के दखल देने का रिवाज। पर मनमोहन चुप्पी साधकर बैठे रहे। वह तब भी कुछ नहीं बोले। जब आडवाणी ने क्वात्रोची का जिक्र कर सोनिया पर हमला किया। वह तब भी कुछ नहीं बोले। जब आडवाणी ने कहा- 'आपकी सारी योजनाएं नेहरू, इंदिरा, राजीव के नाम पर। क्या इस देश में इस परिवार के अलावा कोई नेता नहीं हुआ।' उनने मनमोहन पर फब्ती कसते कहा- 'आपके गुरु नरसिंह राव के नाम पर भी कोई योजना नहीं।'
जब ऐसे तीखे सवालों पर नहीं बोले। तो किसानों के कर्ज माफी का पैसा कहां से आएगा। इस सवाल का जवाब देने को क्यों बोलते। उनने हाथों हाथ जीडीपी की धज्जियां उड़ाते कहा- 'देश के बीस अमीर तीस करोड़ गरीब भारतीयों से ज्यादा कमाते हैं। तो यह समवेत विकास कैसे हुआ।' उनने मंहगाई का जिक्र छेड़ा। तो यूपीए खेमे में जैसे मुर्दनी छा गई। आम आदमी का तो क्या। आम औरत का जीना भी हराम हो गया। यह बात आडवाणी ने तो कही ही। सोमवार को चिदम्बरम् ने भी मानी। विज्ञान भवन में उद्योगपतियों से बतियाते बोले- 'मंहगाई का खतरा बरकरार।' मंहगाई की बात चली। तो अखिलेश प्रसाद सिंह ने संसद में माना- 'पिछले छ: महीनों में सरसों का तेल, घी, आटा, चावल, दालें मंहगी हुई।' पर बात हो रही थी राष्ट्रपति के अभिभाषण की। जिसमें किसानों की आत्महत्या का जिक्र नहीं। महिलाओं को आरक्षण का जिक्र नहीं। तो उनने कहा- 'मनमोहन सिंह में हिम्मत हो। तो महिला आरक्षण बिल लाएं। बीजेपी बिना शर्त समर्थन करेगी।' यही बात राज्यसभा में मनमोहन के मुंह पर राजनाथ सिंह ने कही। आतंकवाद की बात तो खुद कांग्रेस की कृष्णा तीरथ ने शुरू की। बोली- 'एनडीए के राज में संसद पर हमला हुआ।' आडवाणी की बारी आई तो बोले- 'हां, संसद पर हमला हुआ। पर सारे आतंकी मार दिए गए। षड़यंत्रकारियों को अदालत ने सजा दी। पर आप सजा पर अमल नहीं कर रहे।' आडवाणी ऐसी-ऐसी मिर्ची लगाने वाली बातें कहें। तो कांग्रेसी चुप क्यों रहते। सो, हंगामों के बीच ही हुआ आडवाणी का भाषण। पर बात इस सरकार के कार्यकाल की। जिसकी उलटी गिनती लेफ्ट ने शुरू कर दी। प्रतिभा ताई के अभिभाषण और चिदम्बरम् के बजट की कसर प्रणव दा ने पूरी की। संसद में बोले- 'एटमी करार पर आम सहमति की कोशिश जारी। हाईड एक्ट अमेरिकी कांग्रेस और प्रशासन का अंदरुनी मामला। जबकि करार वनटूथ्री के तहत।' पर प्रणव का यह कुतर्क अपने पल्ले नहीं पड़ता। वनटूथ्री एग्रीमेंट का आधार ही जब हाईड एक्ट। तो यह अमेरिका का अंदरुनी मामला कैसे हुआ। यह तो बिल्ली को देख कबूतर के आंख बंद करने वाली बात हुई। प्रणव दा का तर्क न तो आडवाणी-राजनाथ को जंचा। न अपने सीताराम येचुरी को। आडवाणी ने लोकसभा में मनमोहन से कहा- 'कुछ मेगावाट बिजली के लिए देश की सुरक्षा को दाव पर न लगाएं। देश की कूटनीतिक आजादी को कमजोर न करें। आपने संसद में कहा था कि समझौता सिर्फ एटमी ऊर्जा सहयोग पर है। पर मैं आरोप लगाता हूं, आप देश को गुमराह कर रहे हैं।' येचुरी भी पीछे नहीं रहे। वह संसद के गलियारे में प्रेस कांफ्रेंस करके बोले- 'सरकार ने करार का क्रियान्वयन शुरू किया। तो हमारा समर्थन नहीं रहेगा। अक्लमंद को इशारा काफी।' ऐसी बात नहीं। जो सोनिया-मनमोहन-प्रणव दा अक्लमंद नहीं। अक्लमंद हैं- तभी तो चुनावी तैयारियां शुरू कर चुके।
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