पाक की जमहूरियत में अमेरिकी फच्चर

Publsihed: 21.Feb.2008, 03:20

अपन ने कल पाकिस्तान में जमहूरियत का जिक्र किया। अपन को लगा- जमहूरियत ने पाक में कदम रख लिए। अपने लिखे की स्याही अभी सूखी भी नहीं होगी। चुनावी नतीजों के पेंच फंसने लगे। अपन ने लिखा था- 'बेनजीर की हत्या न हुई होती। तो चुनावी नतीजे कुछ और होते।' अगर अपन पाकिस्तानी आवाम का जनादेश देखें। तो परवेज मुशर्रफ के तो खिलाफ। पर बेनजीर की पीपीपी-नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग के हक में। पर पीपीपी-मुस्लिम लीग में छत्तीस का आंकड़ा रहा। अलबत्ता अपन कहें- 'ईंट कुत्ते का बैर रहा।' तो गलत नहीं होगा।

फौज ने जुल्फिकार अली भुट्टो को कभी पसंद नहीं किया। जिया उल हक ने भुट्टो का शासन पलटा। इतना ही नहीं। अलबत्ता भुट्टो को फांसी पर भी चढ़ाया। जिया उल हक की विमान हादसे में मौत हुई। तो बेनजीर भुट्टो आवाम की पसंद बनी। पर फौज ने बेनजीर को भी राज नहीं करने दिया। बेनजीर और राजीव गांधी एक ही समय पीएम थे। इसे आप संयोग कहें या कुछ और। दोनों देशों के दोनों पीएम भ्रष्टाचार में बदनाम हुए। अपने इधर बोफोर्स हुआ। तो उधर बेनजीर का पति जरदारी मिस्टर-10 परसेंट बनकर उभरे। खैर भारत और पाक की जमहूरियत में जमीन-आसमान का फर्क। नवाज शरीफ पीएम थे। तो फौज ने नवाज शरीफ का बेनजीर के खिलाफ जमकर इस्तेमाल किया। यही नवाज शरीफ थे। जिनने आसिफ जरदारी को जेल में डाला। जरदारी आठ साल जेल में रहे। पर वक्त का फेर देखिए। उसी फौज ने नवाज शरीफ का तख्ता पलटा। अब वही नवाज शरीफ उसी आशिफ जरदारी से गठजोड़ को तैयार। यों तो दोनों परिवारों का फौज से कड़वा तजुरबा। सोचो, जमहूरियत का तकाजा यही- 'नवाज, जरदारी मिल जाएं।' पर लाख टके का सवाल? क्या अमेरिका ऐसा होने देगा? बुधवार को जार्ज बुश ने कहा- 'परवेज मुशर्रफ ने बढ़िया काम किया। जितना कर सकते थे। उतना किया। अब वहां चुनाव हो गए हैं। सवाल यह है- क्या नई सरकार अमेरिका को सहयोग देगी? हमें उम्मीद करनी चाहिए- ऐसा होगा।' अमेरिकी प्रशासन ने अपनी कोशिशें शुरू कर दीं। अमेरिकी दूतावास का अधिकारी आसिफ जरदारी से मिला। जार्ज बुश का कोई संदेश तो दिया होगा। इसी के बाद जरदारी का बयान चौंकाने वाला रहा। बोले- 'मिल-जुलकर काम करना होगा। इसी नेशनल एसेंबली में काम होगा। जहां नवाज शरीफ भी होंगे।' यों तो शरीफ-जरदारी मुलाकात आज होगी। पर दोनों में तीन मुलाकातें पहले भी हो चुकी। गुरुवार की मुलाकात फैसलाकुन होगी। पता चलेगा- 'बुश की साजिश कामयाब रही या जमहूरियत की जीत हुई।' अपन को बुश के इरादों पर पूरी आशंका। पाकिस्तानी आवाम ने बुश-मुशर्रफ गठजोड़ ठुकरा दिया। अब बुश-मुशर्रफ की नई साजिश। साजिश है- जरदारी, शरीफ गठजोड़ न हो। अलबत्ता जरदारी-मुशर्रफ गठजोड़ से फुटकर सांसदों को मिलाकर सरकार बने। खुदा--खास्ता ऐसा हुआ। तो मुशर्रफ-बुश साजिश कामयाब होगी। जमहूरियत यहीं पर पंक्चर हो जाएगी। सरकार ज्यादा दिन चलेगी नहीं। मुशर्रफ का फिर बोलबाला। अमेरिकी राजदूत की जरदारी से मुलाकात के मतलब साफ। जरदारी-शरीफ में फूट डालना। यों अपन जनादेश को समझें। तो एक बात और साफ। मुशर्रफ का दुबारा राष्ट्रपति चुना जाना नाजायज। जिस नेशनल एसेंबली ने मुशर्रफ को चुना। जिन प्रोविंसिएल एसेंबलियों ने मुशर्रफ को चुना। उन्हें पाकिस्तानी आवाम ने हरा दिया। अब बुश को भी समझ आया होगा- 'मुशर्रफ टर्म पूरी हो चुकी एसेंबलियों से खुद को चुनवाने पर क्यों बाजिद थे।' यों तो अमेरिका जमहूरियत का ढोल पीटता है। पर पाकिस्तान, इराक, अफगानिस्तान में जमहूरियत का कातिल। अमेरिका जमहूरियत पसंद होता। तो मुशर्रफ के बचाव में न उतरता। मुशर्रफ में जमहूरियत पर जरा भी भरोसा हो। तो जनादेश कबूल कर लेते। जनता ने ठुकरा दिया। तो इस्तीफा दे देते। पर उनने बुधवार को ताल ठोककर कहा- 'इस्तीफा नहीं दूंगा।' नवाज शरीफ की चली। तो बर्खास्त जज बहाल होंगे। बर्खास्त जज बहाल हुए। तो मुशर्रफ के दिन थोड़े। पर जमहूरियत के रास्ते में बुश का फच्चर। लंगड़ी एसेंबली कहीं फौजी शासन ही न ला दे।

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