ताजा अक्ल, करार पर चुनाव अक्लमंदी नहीं

Publsihed: 13.Oct.2007, 12:32

मिड टर्म चुनाव हुए। तो बीस महीने पहले देश पर तीन सौ करोड़ का बोझ। यह तो सरकारी खर्च। कोई दस गुना राजनीतिक दलों का खर्च समझ लो। देश पर सवा तीन हजार करोड़ का बोझ पड़ेगा। तो महंगाई का अंदाजा लगा लो। वैसे भी महंगाई और कांग्रेस का चोली-दामन का साथ। आजकल प्याज से सेब सस्ता। सो इस महंगाई में चुनाव जितने दिन टलें। उतना अच्छा। गुरुवार को लालू-पवार ने चुनाव टलने की बात कही। तो शुक्र को खुद सोनिया-मनमोहन ने चुनाव से तौबा की। वैसे अपन को बजट के बाद अब भी चुनाव का अंदेशा।

यों आम आदमी तो चुनाव टलने से खुश ही होगा। पर यह खुशी कोई ज्यादा लंबी नहीं। इससे बड़ी खुशी की बात तो शुक्रवार को दूसरी हुई। जब शांति के नोबल पुरस्कार का एलान हुआ। ज्यादातर लोग जानते ही नहीं थे। दुनियाभर में ग्लोबल वार्मिंग की जो बहस चली। उसकी जड़ में कोई अमेरिकी या यूरोपीय नहीं। अलबत्ता एक भारतीय। राजेंद्र कुमार पचौरी को शांति नोबल पुरस्कार मिला। तो बहुतेरों का माथा ठनका। ताकि सनद रहे सो अपन बता दें- संयुक्त राष्ट्र ने ग्लोबल वार्मिंग पर तीन हजार वैज्ञानिकों की जो कमेटी बनाई। उसके चेयरमैन हैं राजेंद्र पचौरी। सो पहली बार किसी भारतीय को शांति का नोबल मिला। मदर टेरेसा भारतीय मूल की नहीं थी। नोबल पुरस्कार तो रविंद्र नाथ टैगोर, सीवी रमन, डा. हरगोविंद खुराना, सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर, अमर्त्य सेन को भी मिला। पर शांति का नोबल पुरस्कार नहीं। जो सबसे ज्यादा सम्मानजनक। मदर टेरेसा को तो मिला। पर महात्मा गांधी को नहीं। पिछली बार श्री श्रीरविशंकर और कैलाश सत्यार्थी आखिर तक दौड़ में थे। सो पचौरी को पुरस्कार खुशी का दिन। पर बात हो रही थी यूपीए-लेफ्ट गतिरोध की। जिसके टलने की अपन ने कल ही बात कही। जब अपन ने रूस से एटमी करार के संकेत दिए। तब अपन को नहीं पता था- प्रणव मुखर्जी रूस को प्यार भरी चिट्ठी लिख रहे होंगे। शुक्रवार को प्रणव दा का आर्टिकल- 'टू रशिया, विद लव' छपा। तो अपना अंदाजा सही होता दिखने लगा। अपन बार-बार लेफ्ट विरोध की वजह चीन बताते रहे। सो लेफ्ट को शांत करने का एक ही तरीका। अमेरिका जैसा करार रूस से भी हो जाए। प्रणव दा के भारत-रूस रिश्तों की तारीफ में लिखे लेख का मतलब समझिए। 'फिलहाल' चुनाव टलने के संकेत शुक्रवार को मनमोहन-सोनिया ने भी दिए। दोनों  एचटी लीडरशिप सम्मेलन में बोले। दोनों का लब्बोलुबाब था- 'सरकार वक्त से पहले गिराने का इरादा नहीं। एटमी करार भले ही ठंडे बस्ते में पड़े।' सोनिया बोली- 'लेफ्ट की चिंताएं गैरवाजिब नहीं। सरकार उनसे टकराव नहीं लेगी। टकराव गठबंधन धर्म नहीं होता। नहीं, हम जल्द चुनाव के पक्ष में नहीं।' पीएम से जब पूछा- मान लो, करार फेल हो जाए? तो पीएम बोले- 'यह सरकार सिर्फ एक मुद्दे की नहीं। करार लागू नहीं होता। तो मुझे निराशा होगी। पर जीवन में कुछ निराशाएं भी होती हैं। इसके बावजूद जीवन चलता है।' तो ऐसी हालत में वह हताश नहीं होंगे? इस्तीफा नहीं देंगे? इस सवाल पर बोले- 'यह आपका सुझाव है।' मनमोहन-सोनिया ने यह सब अल बरदेई की मौजूदगी में कहा। यानी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को भी संदेश दे दिया। पर सार्वजनिक तू-तू, मैं-मैं के बाद चुनाव टलने से बीजेपी हैरान-परेशान। वेंकैया नायडू को सोनिया-मनमोहन का पैंतरा समझ नहीं आया। बोले- 'लगता है चुनाव से डरकर सोनिया-मनमोहन ने करार पर 'यू टर्न' लिया।' वैसे यह 'यू टर्न' नहीं, रामसेतु का डर। राजनीति तो शतरंज का खेल। यों भी करार का सेहरा तो अब मनमोहन के सिर ही। लागू अब हो, या बाद में। क्या फर्क पड़ेगा। अमेरिका से करार पर सरकार गिराना अक्लमंदी नहीं। रामसेतु यूपीए-लेफ्ट दोनों को खा जाएगा। पर यह अक्ल बहुत देर बाद आई।

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