अगला हफ्ता बीजेपी में उथल-पुथल का

Publsihed: 17.Dec.2009, 05:56

सुषमा स्वराज को रोकने के लिए ब्राह्मणवाद का फच्चर। पर अपन को कतई नहीं लगता यह फच्चर सुषमा को रोक पाएगा। आडवाणी ने सुषमा को अपनी कुर्सी देना तय कर लिया। राजनाथ सिंह की निगाह इस कुर्सी पर होगी। पर इस मामले में संघ का दखल नहीं चलेगा। संघ में जातिवाद से पद नहीं भरे जाते। सो सवाल जातीय संतुलन का होता। तो गडकरी अध्यक्ष तय न होते। आडवाणी न सिर्फ सुषमा को अपनी भावी रणनीति बता चुके थे। अलबत्ता मोहन भागवत को भी बता चुके थे। मंगलवार को आडवाणी ने सुषमा-जेटली की पीठ थपथपाई। तो वह कोई अंदरूनी राजनीतिक चाल नहीं थी। जो सुषमा की दावेदारी मजूबत करने को ऐसा कहते। आडवाणी जब फैसला कर चुके। तो उसका कारण बताने की जरूरत नहीं।

मोहन भागवत भी यह बात साफ कर चुके। उनने एक बातचीत में कहा था- 'संसदीय दल के बारे में संघ की कोई राय नहीं।' यों भी संघ का दखल संगठन में भले हो। संसदीय दल में पहले भी कभी नहीं रहा। मोहन भागवत यों भी कह चुके थे- 'भविष्य का नेतृत्व आडवाणी जी तय करेंगे।' सो नीतिन गडकरी का नाम भी आडवाणी की राय से तय हुआ। जो अगले हफ्ते चार्ज ले लेंगे। सुषमा का नाम भी आडवाणी ने तय किया। जो उनके बाद चार्ज लेंगी। आडवाणी संसदीय दल के चेयरमैन होंगे। जो चौदहवीं लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी थे। ताकि सनद रहे, सो याद दिला दें। यह परंपरा सोनिया ने शुरू की। सोनिया बारहवीं लोकसभा की मेंबर नहीं थी। पर संसदीय दल की चेयरपर्सन बनी। लोकसभा में विपक्ष के नेता की जिम्मेदारी शरद पवार को दी थी। राज्यसभा में मनमोहन सिंह को। अब जेटली-सुषमा संभालेंगे विपक्ष के नेता की जिम्मेदारी। वाजपेयी का पद संभालेंगे आडवाणी। यह बात तो बहुत पहले ही तय हो चुकी। सो आडवाणी चेयरमैन बनकर उस कमरे में बैठेंगे। जो पंद्रहवीं लोकसभा में अब तक खाली। वाजपेयी के नाम की पट्टी लगी है इस कमरे पर। बीजेपी-कांग्रेस में समझौते से दोनों को मिला था एक-एक कमरा। एक बीजेपी संसदीय दल चेयरमैन को। एक कांग्रेस संसदीय दल चेयरपर्सन को। वाजपेयी की दूसरी जिम्मेदारी एनडीए चेयरमैन की भी संभालेंगे। पर वक्त आने पर। अभी नहीं। बात पवार की चली। तो बताते जाएं- वाजपेयी की सरकार एक वोट से गिरी। तो सोनिया की दावेदारी पर बिदक गए थे मुलायम। मुलायम-आडवाणी में हुआ था गुप्त समझौता। मुलायम सोनिया को पीएम नहीं बनने देंगे। वाजपेयी दुबारा सरकार बनाने का दावा नहीं करेंगे। नाम शरद पवार का आता। तो शायद 1999 के मध्यावधि चुनाव न होते। इसी से बिदके पवार ने उठाया था विदेशी मूल का मुद्दा। विपक्ष के नेता के नाते पीएम पद के स्वाभाविक दावेदार थे पवार। तो लब्बोलुबाब यह- विपक्ष का नेता होता है- पीएम इन वेटिंग। पार्टी अध्यक्ष नहीं होता। सो बीजेपी में अब संगठन और संसदीय भूमिका तय। पर बात ब्रहा्मणवाद का फच्चर फंसा सुषमा को रोकने की। पर यह सवाल उठा भी। तो जेटली कुर्बानी को तैयार। राज्यसभा में वेंकैया नायडू नेता विपक्ष हो जाएं। दक्षिण की रहनुमाई भी। कम्मा जाति को भी रहनुमाई। यों बुधवार को जसवंत सिंह का इस्तीफा हुआ। जी हां, ना ना करते जसवंत ने घुटने टेक दिए। अब लोकलेखा समिति का पद भी खाली। तो अब यह पद गैर ब्राह्मण को ही मिलेगा। मुरली मनोहर जोशी की किस्मत ब्राह्मण होने के कारण ही नहीं खुलेगी। यों तो यशवंत सिन्हा स्वाभाविक दावेदार। वह जाति से कायस्थ। पर बार-बार आडवाणी के खिलाफ बोल वह अपना खेल बिगाड़ चुके। आडवाणी ने अबके माफ न किया। तो दावा नहीं बनता। फिर राजनाथ सिंह की लाटरी खुलने में क्या दिक्कत। राजपूत की जगह राजपूत बैठेगा। पर फैसला आडवाणी करेंगे। यों गडकरी के अध्यक्ष बनने से एक और मुसीबत। गोपीनाथ मुंडे का क्या होगा। महाराष्ट्र में दोनों की गुटबाजी जगजाहिर थी। तो क्या संगठन से रुखसत हो जाएंगे मुंडे। फिर लोकलेखा समिति पर उनका दावा भी बनेगा। ब्राह्मणों के बीच एक ओबीसी क्यों नहीं।

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