गुजरात की हार पर कांग्रेस में मुर्दनी। सोनिया गांधी चौथे दिन भी अस्पताल में। गंगाराम अस्पताल में भर्ती की बात समझ नहीं आई। मामला इतना गंभीर था। तो ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीटयूट क्यों नहीं ले जाई गई। बताया तो गया था सिर्फ चेस्ट इंफेक्शन। पर अपन दिल्ली की सर्दी से वाकिफ। दमे के मरीजों के लिए यह सर्दी जानलेवा। सो अपन ही नहीं। ज्यादातर लोगों का मानना था- दमे का दौरा। अपन को पहले से पता था- सोनिया दमे की मरीज। बात चली है तो बताते जाएं। नेताओं में जयललिता भी दमे की मरीज। करुणानिधि भी। और येरा नायडू भी। पर शुक्रवार को गंगाराम अस्पताल ने कहा- 'सांस की नली में सूजन जैसी कोई बात नहीं।' यानी दमे का गंभीर मामला तो नहीं। चेस्ट इंस्फेक्शन की मामूली बात, और चार दिन।
इसने राजनीतिक हलकों में अफवाहें फैला दी। अपन अफवाहबाजों पर भरोसा नहीं करते। बीमारी का हार से भी कुछ लेना-देना नहीं होगा। हार से मुर्दनी छाना अलग बात। पर मोदी के चेहरे पर जीत की जो खुशी दिखी। उसमें अपन को घमंड तो नहीं झलका। जैसा यूपीए की सरकार बनने पर सोनिया के चेहरे पर था। मोदी की विनम्रता देखिए। जीतते ही सीधे केशुभाई का आशीर्वाद लेने गए। वही केशुभाई जिसने चुनाव में साथ तो नहीं दिया। नुकसान पहुंचाने में भी कसर नहीं छोड़ी। यह मोदी की दरियादिली ही है। जो जीत में फच्चर फंसाने वालों को माफ करने को तैयार। केशुभाई-राणा पर अब अनुशासन का डंडा नहीं चलना। मोदी ने पटेलों को जीतना शुरू कर दिया। शुक्रवार को कैबिनेट बनी। तो अट्ठारह में से नौ पटेल दिखे। पुराने मंत्रियों में कैबिनेट मंत्री नरोत्तम, अनादिबेन, मंगूभाई। नितिन पटेल को जगह मिली। राज्यमंत्रियों में भी सौरभ और प्रभात पटेल। मोदी ने छह साल तक फकीर वाघेला, जय नारायण व्यास को नहीं लिया। दोनों केशुभाई की कैबिनेट में थे। अब मोदी की कैबिनेट में शामिल। मोदी ने 'सारे घर के बदल डालूंगा' वाला फार्मूला तो नहीं अपनाया। पर अट्ठारह में से नौ नए। यानी आधे घर के तो बदल डाले। छह पुराने मंत्री अबके नहीं बन पाए। जहां तक अशोक भट्ट की बात। तो वह स्पीकर हो जाएं। तो हैरानी नहीं। आखिर बारह साल से मंत्री बनते-बनते थक गए होंगे। जैसे अपने सोमनाथ बाबू 35 साल से सांसद ही चले आ रहे थे। पर अपन बात कर रहे थे मोदी विरोधियों में मुर्दनी की। कांग्रेस में भले ही मुर्दनी छा गई। मोदी विरोधी मीडिया में भी मुर्दनी का ही आलम। पर मोदी विरोधी एनजीओ अभी भी ठंडे नहीं पड़े। लोकतंत्र में जनता का फैसला सर्वोपरि। पर मोदी विरोधी एनजीओ जनता की अदालत का फैसला मानने को तैयार नहीं। अब 'सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस' फिर कोर्ट पहुंच गया। नई अर्जी डीजीपी पी.सी. पांडे को लेकर। अपन याद दिला दें- दंगों के बाद डीजीपी पांडे एनजीओ के निशाने पर थे। इसी एनजीओ ने 2006 में अदालत का दरवाजा खटखटाया। पांडे को हटाने की मांग थी। अदालत में फैसला नहीं हुआ। पर जब चुनाव की घंटी बजी। तो चुनाव आयोग ने वही फैसले किए। जो मोदी विरोधियों ने फरमाइश रखी। सो आयोग ने तब पांडे को भी हटा दिया। अब मोदी जनता की अदालत से जीतकर आ गए। तो पांडे फिर डीजीपी बनेंगे ही। सो अब फिर अदालत में गुहार। पर अबके अदालत दो हिस्सों में बंट गई। शुक्रवार को सुनवाई हुई। तो दो जज अलग-अलग दिखे। जस्टिस काटजू ने तो साफ कहा- 'सरकारें किसको तैनात करें। किसको न करें। यह तय करना अदालत का काम नहीं। कल को प्रधानमंत्री की नियुक्ति पर भी पीआईएल आ जाएगी।' पर जस्टिस एचके सेमा की राय अभी साफ नहीं। उनने एनजीओ से आयोग का वह फरमान मंगवाया है। जिसमें पांडे को हटाया गया था।
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