आम चुनाव दूर नहीं। रेवड़ियां बंटने लगीं। लेफ्ट ने हाथ न भी खींचा। तो कांग्रेस कोई और बहाना ढूंढेगी। अगले साल तक लटका। तो रेवड़ियां खत्म हो चुकी होंगी। अपन रेवड़ियों की गिनती बाद में करेंगे। पहले गांधी को याद कर लें। इस बार कांग्रेस को गांधी कुछ ज्यादा ही याद आए। प्रणव मुखर्जी संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में गए। तो सोनिया को साथ ले गए। संयुक्त राष्ट्र ने इस बार गांधी के जन्मदिन को मान्यता दी। अब यह दिन दूनियाभर में 'अहिंसा दिवस' होगा।
राष्ट्रपिता की तरफ से राष्ट्रपति संयुक्त राष्ट्र जाते। तो काबिल-ए-तारीफ होता। पर कांग्रेस ने देश को नहीं। पार्टी को तरजीह दी। जिसका नतीजा न्यूयार्क में दिखा। जहां दो दिन गांधीगिरी तरीके से विरोध हुआ। जब सोनिया संयुक्त राष्ट्र में बोली। तो दो घंटे तक प्रदर्शन भी हुआ। जहां तक देश की बात। तो इस बार बीजेपी भी गांधीवादी हो गई। गांधी की रामधुन बीजेपी की रामसेतु धुन बन गई। राजनाथ ने कांग्रेस को 'गेट वेल सून' का गांधीगिरी संदेश भेजा। बोले- 'कांग्रेस की मानसिक हालत ठीक नहीं। सो राम का अपमान करने पर उतारू। भगवान कांग्रेस को जल्द स्वस्थ करे।' बात स्वास्थ्य की चली। तो चुनावी रेवड़ियां याद आ गई। हर रोज नई रेवड़ी। एक दिन ग्रामीण रोजगार। दूसरे दिन डीए। तीसरे दिन बोनस। चौथे दिन गरीबों का स्वास्थ्य बीमा। पांचवें दिन आम आदमी की बीमा योजना। छठे दिन अल्पसंख्यक छात्रों को वजीफा। सातवें दिन छोटे-मझोले अखबारों को इश्तिहारों की बाढ़। आठवां दिन आज होगा। अपन को आज की रेवड़ी का इंतजार। मुड़-मुड़ मिलती रेवड़ियों से अंधों को भी चुनाव का अंदाज। पर सबसे पहले चुनाव गुजरात का। जहां मोदी सब पर भारी। इस सब में बीजेपी का पटेल खेमा और खुद बीजेपी भी। कांग्रेस भी। एक दिन अपन को खुद अरुण जेटली बता रहे थे- 'गुजरात में बीजेपी फैक्टर नहीं। मोदी फैक्टर काम करेगा।' गुजरात के बाद बारी आएगी हिमाचल की। सो हिमाचल में भी रेवड़ियां बंटनी शुरू हो गई। गांधी जयंती पर भी चिदंबरम शिमला जाकर रेवड़ियां बांट आए। आम आदमी बीमा योजना की शुरूआत शिमला से इसीलिए की। केंद्रीय विश्वविद्यालय, आईआईटी, सौ किमी की रेल लाइन भी दे आए। आपने कभी इतनी रेवड़ियां एक साथ बंटते देखी? पर अपन को लगता है- हिमाचल के साथ कर्नाटक भी निपटेगा। हिमाचल-कर्नाटक के साथ ही लोकसभा भी निपट जाए। तो हैरानी नहीं होगी। बकौल शरद पवार- 'यह सरकार चार महीने की।' अभी तो अगस्त-सितंबर ही निकला। यानी नवंबर के आखिर में चौदहवीं लोकसभा की चौदहवीं। पर फिलहाल बात कर्नाटक की। जहां देवगौड़ा परिवार की नौटंकी शुरू। यह नौटंकी अपन पिछले साल जनवरी में भी देख चुके। तब बाप ने बेटे से रूठने का नाटक किया। बाप के बिना ही बेटे ने राजतिलक कर लिया। तो बाप कोपभवन से बाहर आ गया। अब बेटा कुर्सी के लिए ऐसे मचल रहा है। जैसे कोई बच्चा खिलौना छीनने पर मचलता है। देवगौड़ा ने शुरूआती ना-नुकर के बाद अपनी जेडीएस से समर्थन दिला दिया। पर अब कह रहे हैं- 'बेटे ने जेडीएस से तो कोई समझौता नहीं किया। समझौता कुमारस्वामी से किया था। सो जेडीएस अगले बीस महीने बीजेपी को सरकार नहीं सौंपेगी।' अपन ने 28 सितंबर को भी यह बीस-बीस महीने वाली कहानी बताई थी। तब भी अपन ने येदुरप्पा-कुमारस्वामी की जोड़ी को बेमेल कहा। अब तो वह जाहिर ही हो गया। झूठ और मक्कारी कोई देवगौड़ा परिवार से सीखे। अपना माथा तो तभी ठनका था। जब देवगौड़ा ने मराजुद्दीन को मंत्री पद से हटा प्रदेश अध्यक्ष बनाया। अल्पसंख्यक वोट बटोरने का यह पुराना कांग्रेसी हथकंडा। बीजेपी से समझौते का पाप धोने के लिए मराजुद्दीन को आगे किया। सो कर्नाटक की चुनावी घंटी तो बज गई समझो। इस छीछालेदर के बाद येदुरप्पा का सीएम बनना भी बेकार। बन गए तो चार दिन के मेहमान।
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